ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 101/ मन्त्र 8
ऋषिः - बुधः सौम्यः
देवता - विश्वे देवा ऋत्विजो वा
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
व्र॒जं कृ॑णुध्वं॒ स हि वो॑ नृ॒पाणो॒ वर्म॑ सीव्यध्वं बहु॒ला पृ॒थूनि॑ । पुर॑: कृणुध्व॒माय॑सी॒रधृ॑ष्टा॒ मा व॑: सुस्रोच्चम॒सो दृंह॑ता॒ तम् ॥
स्वर सहित पद पाठव्र॒जम् । कृ॒णु॒ध्व॒म् । सः । हि । वः॒ । नृ॒ऽपानः॑ । वर्म॑ । सी॒व्य॒ध्व॒म् । ब॒हु॒ला । पृ॒थूनि॑ । पुरः॑ । कृ॒णु॒ध्व॒म् । आय॑सीः । अधृ॑ष्टाः । मा । वः॒ । सु॒स्रो॒त् । च॒म॒सः । दृंह॑त । तम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
व्रजं कृणुध्वं स हि वो नृपाणो वर्म सीव्यध्वं बहुला पृथूनि । पुर: कृणुध्वमायसीरधृष्टा मा व: सुस्रोच्चमसो दृंहता तम् ॥
स्वर रहित पद पाठव्रजम् । कृणुध्वम् । सः । हि । वः । नृऽपानः । वर्म । सीव्यध्वम् । बहुला । पृथूनि । पुरः । कृणुध्वम् । आयसीः । अधृष्टाः । मा । वः । सुस्रोत् । चमसः । दृंहत । तम् ॥ १०.१०१.८
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 101; मन्त्र » 8
अष्टक » 8; अध्याय » 5; वर्ग » 19; मन्त्र » 2
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अष्टक » 8; अध्याय » 5; वर्ग » 19; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(व्रजम्) हे मनुष्यों ! देश को (कृणुध्वम्) बनाओ-बसाओ-सम्पन्न बनाओ (सः-हि वः) वही तुम्हारा (नृपाणः) मनुष्यों का रक्षक है (बहुला पृथूनि) बहुत महान् विशाल (वर्म सीव्यध्वम्) कवच वस्तुओं को सीवो-तथा प्रकोटे रचो (आयसीः) लोहमय दृढ़ (अधृष्टाः) अबाध्य (पुरः) नगरों को (कृणुध्वम्) करो (वः) तुम्हारा (चमसः) भोजनागार तथा अन्नभण्डार (मा सुस्रोत्) कभी स्रवित न हो-रिक्त न हो (तं दृंहत) उसे दृढ़ करो ॥८॥
भावार्थ
मनुष्यों को मिलकर देश बसाना और उन्नत बनाना चाहिये। उसके चारों ओर प्रकोटे बनाना तथा उसमें नगरों को बसाना और वस्तुओं का निर्माण करना, भोजनागार तथा अन्नभण्डार भी दृढरूप में बनाना रखना चाहिये ॥८॥
विषय
आयसी पूः
पदार्थ
[१] (व्रजं कृणुध्वम्) = बाड़े को बनाओ। जैसे बाड़े में गौवों को निरुद्ध करते हैं, उसी प्रकार इन्द्रियरूप गौवों को इस बाड़े में निरुद्ध करने का प्रयत्न करो । प्रभु नाम-स्मरण से हृदय वह 'व्रज' बन जाता है जिसमें कि मन व इन्द्रियें निरुद्ध रहती हैं । (सः) = वह व्रज (हि) = ही (वः) = तुम (नृपाणः) = प्रणतिशील व्यक्तियों का रक्षक है । [२] (बहुला) = अनेक (पृथूनि) = विस्तीर्ण (वर्म) = कवचों को (सीव्यध्वम्) = सींओ । ये कवच तुम्हारा रक्षण करनेवाले हों । 'ब्रह्म वर्म मनान्तरम्' = वस्तुतः ब्रह्म ही हमारा आन्तर (वर्म) = कवच है। ये कवच हमारे सब कोशों का रक्षण करते हैं। इन कवचों से रक्षित होकर हमारे ये कोश 'तेज, वीर्य, बल, ओज, मन्यु व सहस्' से परिपूर्ण होते हैं । [३] इस प्रकार कवचों से अपने को सुरक्षित करके (पुरः) = इन शरीररूप पुरियों को (आयसी:) = लोहमयी, अर्थात् दृढ और (अधृष्टाः) = रोगादि से अधर्षणीय (कृणुध्वम्) = करो । (वः) = तुम्हारा सोम का, वीर्य का (चमसा) = आधारभूत यह शरीररूप पात्र (मा सुस्रोत्) = चूनेवाला न हो । सोम इसके अन्दर सुरक्षित रहे । (तम्) = उस पात्र को (दृंहता) = दृढ़ बनाओ । वीर्य-रक्षण से ही तो इसने दृढ़ बनना है।
भावार्थ
भावार्थ - हम इन्द्रियों को निरुद्ध करें। प्रभु नामस्मरण को अपना कवच बनाएँ । हमारे शरीर लोहवत् दृढ़ हों। सोम का रक्षण करें।
विषय
मार्ग, गोशाला, कवच, दृढ़ दुर्ग, नगर, चमसपात्र, आदि बनाने का उपदेश। पक्षान्तर में—इन्द्रियों, देह, पञ्च-कोश और देहादि को दृढ़ करने का उपदेश।
भावार्थ
हे विद्वान् लोगो ! आप लोग (व्रजं कृणुध्वम्) गमन योग्य मार्ग को अच्छी प्रकार बनाओ। आप लोग गौओं के रहने योग्य गोष्ठ आदि बनाओ। (सः हि वः नृ-पाणः) वह निश्चय से आप लोगों के समस्त मनुष्यों, प्राणों और वीरों आदि की रक्षा करने वाला है। आप लोग (बहुला) बहुत से (पृथूनि) बड़े २ (वर्म) नाना कवचों को (सी-व्यध्वम्) सीयो। आप लोग (अधृष्टाः) शत्रु से न जीते जाने योग्य, (आयसीः) लोह की बनी, शस्त्रादि से सुसज्जित, दृढ़ (पुरः कृणुध्वम्) पुरियें, नगरियें बनाओ। (वः चमसः) आप लोगों का चमस, पात्र भी (मा सुस्रोत्) चूए नहीं, वह भी दृढ़ हो। (तम् दृंहत) उसको भी दृढ़ करो। अध्यात्म में—यह देह ‘जो’ इन्द्रियों के रहने का स्थान है, जीव गण इसको उत्तम करें। वही ‘नृ’ आत्मा का पालक, सुख से रसपान करने का स्थान है, यही वर्म अर्थात् कवचवत् है। ये जीव नाना कोशों को बनाते हैं। ये ही नगरियों के तुल्य हैं। प्राणयुक्त होने से ये ‘आयसी’ हैं। नाना सुख रस भोगने के कारण यही देह ‘चमस’ है। इसका रस-वीर्य स्रवित न हो, प्रत्युत दृढ़ हो।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिर्बुधः सौम्यः॥ देवता—विश्वेदेवा ऋत्विजो वा॥ छन्दः– १, ११ निचृत् त्रिष्टुप्। २, ८ त्रिष्टुप्। ३, १० विराट् त्रिष्टुप्। ७ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ४, ६ गायत्री। ५ बृहती। ९ विराड् जगती। १२ निचृज्जगती॥ द्वादशर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(व्रजं कृणुध्वम्) देशम् “व्रजं प्राप्तं देशम्” [ऋ० १।१५६।४ दयानन्दः] कुरुत (सः-हि वः-नृपाणः) स खलु युष्माकं नराणां रक्षकः (बहुला पृथूनि) बहूनि महान्ति विशालानि (वर्म सीव्यध्वम्) वर्माणि-कवचवस्त्राणि रचयत “सीव्यन् रचयन्” [ऋ० २।१७।७ दयानन्दः] (आयसीः) लोहमयानि-दृढानि (अधृष्टाः) अबाध्यानि (पुरः) नगराणि (कृणुध्वम्) कुरुत (वः) युष्माकं (चमसः) चमन्ति भक्षयन्ति यस्मिन् स भोजनागारः “चमु अदने” [भ्वादि०] “चमु भक्षणे” [स्वादि०] ततोऽसच् प्रत्ययः [उणा० ३।११७] (मा सुस्रोत्) न स्रवितो भवेत्-न न्यूनो भवेत् (तं दृंहत) तं दृढं कुरुत ॥८॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Establish stalls for cattle, build roads, sew corselets and build great walls, that would be the safety and security measure for people. Build cities of steel undaunted. May your ladle of yajna divine and human never suffer leakage. Strengthen the ladle, raise and expand the quality of life.
मराठी (1)
भावार्थ
सर्व माणसांनी मिळून देशाला उन्नत करावे. चहूकडे प्रकोट बनविणे त्यात नगर वसविणे, वस्तूचे निर्माण करणे, भोजनगृह व अन्नभांडारही दृढरूपात बनविले पाहिजे. ॥८॥
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