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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 101 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 101/ मन्त्र 5
    ऋषिः - बुधः सौम्यः देवता - विश्वे देवा ऋत्विजो वा छन्दः - बृहती स्वरः - मध्यमः

    निरा॑हा॒वान्कृ॑णोतन॒ सं व॑र॒त्रा द॑धातन । सि॒ञ्चाम॑हा अव॒तमु॒द्रिणं॑ व॒यं सु॒षेक॒मनु॑पक्षितम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    निः । आ॒ऽहा॒वान् । कृ॒णो॒त॒न॒ । सम् । व॒र॒त्राः । द॒धा॒त॒न॒ । सि॒ञ्चाम॑है । अ॒व॒तम् । उ॒द्रिण॑म् । व॒यम् । सु॒ऽसेक॑म् । अनु॑पऽक्षितम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    निराहावान्कृणोतन सं वरत्रा दधातन । सिञ्चामहा अवतमुद्रिणं वयं सुषेकमनुपक्षितम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    निः । आऽहावान् । कृणोतन । सम् । वरत्राः । दधातन । सिञ्चामहै । अवतम् । उद्रिणम् । वयम् । सुऽसेकम् । अनुपऽक्षितम् ॥ १०.१०१.५

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 101; मन्त्र » 5
    अष्टक » 8; अध्याय » 5; वर्ग » 18; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    बुद्धिमान् जन उपदेश करते हैं कि हे कृषकों किसानों ! (आहावान्-निः-कृणोतन) जलस्थानों का निर्माण करो-बनाओ (वरत्राः) आवरणकारी भित्तियों को (सम्-दधातन) बाँधो, जिससे कि (वयम्) हम (उद्रिणम्) स्वयं जल को ऊपर फैंकनेवाले (सुषेकम्) अच्छे सींचनेवाले (अनुपक्षितम्) क्षीण न होनेवाले (अवतम्) कुए को (सिञ्चामहै) सींचें ॥५॥

    भावार्थ

    खेत को सींचने के लिए जलस्थानों को बनाना, उनके जल को रोकने के लिए चारो ओर बाँध बाँधना और ऐसे जलकूप बनाना, जिनका जल ऊपर आता जाये और क्षीण न हो, ऐसे साधनों से खेत को सींचना चाहिये ॥५॥

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    विषय

    प्रभु स्मरण व व्रत-धारण

    पदार्थ

    [१] (आहावान्) = प्रभु की पुकारों को, आराधनाओं को (निः कृणोतन) = निश्चय से करनेवाले बनो । (वरत्रा) = व्रत की रज्जुओं को (संदधातन) = धारण करो, अर्थात् व्रतों के बन्धनों में अपने को बाँधो । [क] प्रभु का स्मरण करें, [ख] जीवन को व्रती बनाएँ। [२] (वयम्) = हम उस प्रभु को (सिञ्चामहा) = अपने में सिक्त करें, जो (अवतम्) = हम सबके रक्षक हैं, (उद्रिणम्) = ज्ञान जल से परिपूर्ण हैं, (सुषेकम्) = हमें आनन्द से सिक्त करनेवाले हैं, (अनुपक्षितम्) = कभी क्षीण व नष्ट होनेवाले नहीं है।

    भावार्थ

    भावार्थ - जीवन का आनन्द इसी में है कि हम प्रभु स्मरणपूर्वक व्रतों का पालन करनेवाले बनें।

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    विषय

    पशुओं के लिये जलपान-स्थान, रस्सी, कूप आदि बनाने का विधान। अध्यात्म में—अक्षय रससागर प्रभु की उपासना करने की आज्ञा।

    भावार्थ

    हे विद्वान् जनो ! आप लोग (आहावान् निः कृणोतन) गौओं के पानी पीने के नाना स्थान बनाओ। (वरत्राः सम् दधातन) उत्तम २ रज्जुओं, रस्सियों का परस्पर जोड़ो। (वयम्) हम (उद्रिणम्) उत्तम जलयुक्त (सु-सेकम्) उत्तम रीति से खेत सींचने में समर्थ, (अनुपक्षितम्) कभी क्षीण न होने वाले, (अवतम्) कूप को (सिञ्चामहे) सींचें। अध्यात्म में—परम सुखप्रद, प्रेममय, समृद्ध, सर्वरक्षक प्रभु (अनुपक्षितम्) कभी न खुटने वाले रस का समुद्र है। उससे हम अपने क्षेत्र, देह, नाना आत्मा वा हृदय और जीवन को सीचें। इसलिये (वरत्राः) उत्तम व्रत-पालन आदि क्रियाओं को और प्रभु की (आहावान्) स्तुतियों को (कृणोतन) करें।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिर्बुधः सौम्यः॥ देवता—विश्वेदेवा ऋत्विजो वा॥ छन्दः– १, ११ निचृत् त्रिष्टुप्। २, ८ त्रिष्टुप्। ३, १० विराट् त्रिष्टुप्। ७ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ४, ६ गायत्री। ५ बृहती। ९ विराड् जगती। १२ निचृज्जगती॥ द्वादशर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (आहावान्-निः-कृणोतन) एते धीराः धीमन्तो ब्रुवन्ति हे कृषकाः ! यूयम्-आहावान् निपानानि जलस्थानानि “निपानमाहावः” [अष्टा० ३।३।७४] कुरुत सम्पादयत (वरत्राः-सम्-दधातन) “वृणोत्युदकं यया सा वरत्रा वृञश्चित्-अत्रन्” [उणादि० ३।१०७] आवरणीः-भित्तिः “बान्ध” इति भाषायां प्रसिद्धम्, ता आवरणीर्भित्तीः सन्धत्त, यतः (वयम्-उद्रिणं सुसेकम्) वयं खलूत्क्षेपणकारिणं स्वयं जल-क्षेपणकं सुसेक्तारम् (अनुपक्षितम्-अवतम्-सिञ्चामहै) उपक्षयरहितं कूपम् “अवतं कूपनाम” [निघ० ३।२३] सिञ्चामः ॥५॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Develop the sources of water, manage the connections, and let us replenish and maintain the full water sources inexhaustibly good for the purpose of consumption and irrigation.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    शेतीचे सिंचन करण्यासाठी जलस्थान बनविणे, त्यांचे जल रोखण्यासाठी चहूकडे बांध बांधणे व असे जलकूप बनविणे ज्यांचे जल वर यावे, कमी होता कामा नये, अशा साधनांनी शेतात सिंचन करावे. ॥५॥

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