ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 101/ मन्त्र 6
ऋषिः - बुधः सौम्यः
देवता - विश्वे देवा ऋत्विजो वा
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
इष्कृ॑ताहावमव॒तं सु॑वर॒त्रं सु॑षेच॒नम् । उ॒द्रिणं॑ सिञ्चे॒ अक्षि॑तम् ॥
स्वर सहित पद पाठइष्कृ॑तऽआहावम् । अ॒व॒तम् । सु॒ऽव॒र॒त्रम् । सु॒ऽसे॒च॒नम् । उ॒द्रिण॑म् । सि॒ञ्चे॒ । अक्षि॑तम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
इष्कृताहावमवतं सुवरत्रं सुषेचनम् । उद्रिणं सिञ्चे अक्षितम् ॥
स्वर रहित पद पाठइष्कृतऽआहावम् । अवतम् । सुऽवरत्रम् । सुऽसेचनम् । उद्रिणम् । सिञ्चे । अक्षितम् ॥ १०.१०१.६
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 101; मन्त्र » 6
अष्टक » 8; अध्याय » 5; वर्ग » 18; मन्त्र » 6
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अष्टक » 8; अध्याय » 5; वर्ग » 18; मन्त्र » 6
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(इष्कृतावाहम्) तैयार किये हुए जलाशय (सुवरत्रम्) शोभन आवरणयुक्त-पक्की बाँधवाले (सुषेचनम्) भलीभाँति सींचने के साधनवाले (उद्रिणम्) जल के ऊपर फेंकनेवाले (अक्षितम्) क्षयरहित (अवतम्) कुए को (सिञ्चे) खेत में सींचता हूँ ॥६॥
भावार्थ
प्रत्येक किसान को अपने-अपने खेत में जल सींचने के लिये अच्छे जलाशय की व्यवस्था करनी चाहिए ॥६॥
विषय
अक्षीण-जीवन
पदार्थ
[१] मैं अपने अन्दर प्रभु को (सिञ्चे) = सिक्त करता हूँ । प्रभु की भावना से अपने को ओत- प्रोत करने का प्रयत्न करता हूँ । उस प्रभु को जो (इष्कृताहावम्) = जिसकी पुकार हमारे में प्रेरणा को करनेवाली है । जब प्रभु को दयातु इस रूप में मैं पुकारता हूँ तो मुझे भी दयालु बनने की प्रेरणा प्राप्त होती है । (अवतम्) = जो प्रभु मेरा रक्षण करनेवाले हैं, मुझे वासनाओं से आक्रान्त नहीं होने देते । (सुवरत्रम्) = [शोभना वरत्रयस्य] जिनका स्मरण मुझे उत्तम व्रतों के बन्धन में बाँधनेवाला है, प्रभु- स्मरण से जीवन व्रती बना रहता है । (सुषेचनम्) = जीवन को व्रती बनाकर वे मेरे जीवन को आनन्द से सिक्त करते हैं, [२] वे प्रभु (उद्रिणम्) = ज्ञान के जलवाले हैं और (अक्षितम्) = ज्ञानजल से सिक्त करके मुझे नष्ट नहीं होने देते [अविद्यमानं क्षितं यस्मात्] । इन प्रभु को मैं अपने हृदयक्षेत्र में सिक्त करता हूँ। इनका यह स्मरण मुझे प्रेरणा देता है, इस प्रेरणा से मेरा रक्षण होता है, मेरा जीवन व्रती बनता है और आनन्द सिक्त होता है। इस हृदयस्थ प्रभु से ज्ञानजल को पाकर मैं अक्षीण जीवनवाला बनता हूँ।
भावार्थ
भावार्थ- मैं प्रभु - स्मरण करता हूँ, यह प्रभु स्मरण मुझे अक्षीण जीवनवाला बनाता है ।
विषय
उत्तम कूप और पक्षान्तर में—रस के उद्भव स्थान परमेश्वर का वर्णन।
भावार्थ
मैं (इष्कृत-आहावम्) सुन्दर जलपान के स्थान से सुसज्जित (सु-वरत्रम्) उत्तम रज्जु से युक्त, (सु-सेचनम्) उत्तम रीति से सुखपूर्वक सेचन करने वाले, (उद्रिणम्) जल वाले (अक्षितम्) अक्षय (अवतम्) कूप को प्राप्त कर (सिञ्चे) सिंचाई करूं। (२) ऐसा अक्षय, अविनाशी रस का रक्षास्थान प्रभु है। वह उत्तम वरणीय त्राता होने से ‘सुवरत्र’ है। रक्षक होने से ‘अवत’, स्तुत्य होने से ‘आहाव’ से युक्त है। मैं उसके रस से अपने आपको सीचूं। इत्यष्टादशो वर्गः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिर्बुधः सौम्यः॥ देवता—विश्वेदेवा ऋत्विजो वा॥ छन्दः– १, ११ निचृत् त्रिष्टुप्। २, ८ त्रिष्टुप्। ३, १० विराट् त्रिष्टुप्। ७ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ४, ६ गायत्री। ५ बृहती। ९ विराड् जगती। १२ निचृज्जगती॥ द्वादशर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(इष्कृताहावम्) निष्कृताहावं संस्कृतजलाशयं (सुवरत्रम्) शोभनावरणयुक्तं (सुषेचनम्) सुष्ठुसेचनसाधनं (उद्रिणम्) जलोत्क्षेपणकं (क्षितम्) क्षयरहितं (अवतम्) कूपम् (सिञ्चे) अहं सिञ्चामि ॥६॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Protect and maintain the water reservoir well connected between the source and the outlet, keep it full for drinking and irrigation purposes, let it be self- abounding and inexhaustible, let me water plants and orchards and also keep it replenished.
मराठी (1)
भावार्थ
प्रत्येक शेतकऱ्याला आपापल्या शेतात जल सिंचित करण्यासाठी चांगल्या जलाशयाची व्यवस्था केली पाहिजे. ॥६॥
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