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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 108 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 108/ मन्त्र 6
    ऋषिः - सरमा देवशुनी देवता - प्रणयः छन्दः - पादनिचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    अ॒से॒न्या व॑: पणयो॒ वचां॑स्यनिष॒व्यास्त॒न्व॑: सन्तु पा॒पीः । अधृ॑ष्टो व॒ एत॒वा अ॑स्तु॒ पन्था॒ बृह॒स्पति॑र्व उभ॒या न मृ॑ळात् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒से॒न्याः । वः॒ । प॒ण॒यः॒ । वचाँ॑म्सि । अ॒नि॒ष॒व्याः । त॒न्वः॑ । स॒न्तु॒ । पा॒पीः । अधृ॑ष्टः । वः॒ । एत॒वै । अ॒स्तु॒ । पन्थाः॑ । बृह॒स्पतिः॑ । वः॒ । उ॒भ॒या । न । मृ॒ळा॒त् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    असेन्या व: पणयो वचांस्यनिषव्यास्तन्व: सन्तु पापीः । अधृष्टो व एतवा अस्तु पन्था बृहस्पतिर्व उभया न मृळात् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    असेन्याः । वः । पणयः । वचाँम्सि । अनिषव्याः । तन्वः । सन्तु । पापीः । अधृष्टः । वः । एतवै । अस्तु । पन्थाः । बृहस्पतिः । वः । उभया । न । मृळात् ॥ १०.१०८.६

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 108; मन्त्र » 6
    अष्टक » 8; अध्याय » 6; वर्ग » 6; मन्त्र » 1
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (पणयः-वः) हे रश्मियों जलों के रक्षक मेघों ! तुम्हारे (वचांसि-असेन्या) वचन सेनाबलरहित कथनमात्र हैं (अनिषव्याः) इषुरहित, बाणरहित, शस्त्ररहित (पापीः-तन्वः सन्तु) चोर्यकर्म से पापी शरीर है (वः-पन्थाः) तुम्हारा मार्ग (एतवै-अधृष्टः) जाने को भागने को दृढ़ नहीं है, (बृहस्पतिः) वाक् शक्ति का स्वामी परमात्मा (वः-उभया न मृळात्) तुम्हारे दोनों वचनों और शरीरों को सुखयुक्त नहीं करता है ॥६॥ आध्यात्मिकयोजना−विषयव्यवहार में प्रवर्तमान इन्द्रिय प्राणों ! तुम्हारे वचन निर्बल और निरस्त्र हैं तथा शरीर पापमय है, मार्ग भी जाने के अयोग्य है, इसलिए मुझे चेतना का पालक परमात्मा मेरे बिना तुम्हें सुखी नहीं कर सकता ॥६॥

    भावार्थ

    सेना शस्त्र आदि बल से रहित वचन विजय प्राप्त नहीं कराते हैं। विशेषतः अपरहण करनेवाले पापी जनों को बचाने य भागने का कोई मार्ग नहीं, परमात्मा इनके वचन व  शरीर को निःसत्त्व कर देता है ॥६॥

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    विषय

    प्रभु प्रेरणा के अभाव में पाप

    पदार्थ

    [१] सरमा पणियों से कहती है कि हे (पणयः) = व्यवहारी लोगो ! (वः वचांसि) = तुम्हारे ये वचन कि 'हमारे पर जिनका आघात होता है वे अस्त्र-शस्त्र बड़े तेज हैं' (असेन्याः) = ये सेना के योग्य नहीं हैं। प्रभु हमारे सेनापति हैं, हम तो प्रभु की सेना हैं, हमें प्रभु पर विश्वास रखते हुए अपने शत्रुओं से युद्ध करना है। हम इस युद्ध में हारेंगे क्यों ? जो (अनिषव्याः) = [इषु + य = इषव्य] इषुओं के, प्रभु प्रेरणाओं के योग्य नहीं होते वे ही (तन्व:) = शरीर (पापीः सन्तु) = पापमय होते हैं। जो प्रभु प्रेरणाओं को सुननेवाले हैं, उनके पास तो ये प्रभु प्रेरणाएँ इषुओं-बाणों के रूप में होती हैं, इन बाणों से वे शत्रुओं का संहार कर पाते हैं । [२] इस प्रकार प्रभु प्रेरणारूप बाणों से सन्नद्ध होने पर (वः पन्थः) = तुम्हारा मार्ग (अधृष्टः) = शत्रुओं से धर्षित न हुए-हुए (एतवै अस्तु) = लक्ष्य स्थान की ओर चलने के लिए हो। क्या (बृहस्पतिः) = सम्पूर्ण ज्ञानों के स्वामी वे प्रभु (वः) = तुम्हारी (उभया) = दोनों ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों को (न मृळात्) = सुखी नहीं करते ? बृहस्पति की कृपा के होने पर ज्ञानेन्द्रियाँ व कर्मेन्द्रियाँ वासनाओं का शिकार नहीं होती और हम ठीक मार्ग पर आगे बढ़ पाते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु की कृपा के होने पर हम वासनारूप शत्रु सैन्य को क्यों न जीत पाएँगे ?

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    विषय

    उन पर भी चेतना और इच्छाशक्ति का प्रबल अधिकार।

    भावार्थ

    हे (पणयः) व्यवहार में मन इन्द्रियगण ! (वः) आप लोगों के (वचांसि) सब वचन (असेन्या) सेना अर्थात् उत्तम स्वामी से युक्त शक्ति से सम्पन्न पुरुष के वचनों के समान नहीं हैं। इसीलिये (अनिषव्याः) बाण के समान स्वतन्त्र इच्छा शक्ति से रहित (तन्वः) ये सब देह (पापीः सन्तु) पापिष्ठ अर्थात् मृत शव के तुल्य हो जानी सम्भव हैं। (वः पन्थाः) आप लोगों का मार्ग (एतवै) जाने के लिये (अधृष्टः अस्तु) असमर्थ, अयोग्य हो जाता यदि (बृहस्पतिः) वाणी महती शक्ति का पालक आत्मा, (वः उभया न मृडयात्) आपके ज्ञानेन्द्रिय और कर्मेन्द्रिय दोनों वर्गों को सुखी न कर सके ?

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः पणयोऽसुराः। २, ४, ६, ८, १०, ११ सरमा देवशुनी॥ देवता—१, ३, ५, ७, ९ सरमा। २, ४, ६, ८, १०, ११ पण्यः॥ छन्दः—१ विराट् त्रिष्टुप्। २, १० त्रिष्टुपू। ३–५, ७-९, ११ निचृत् त्रिष्टुप्। ६ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। एकादशर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (पणयः-वः) हे रश्मीनां जलानां रक्षका मेघाः ! युष्माकं (वचांसि-असेन्या) वचनानि सेना बलरहितानि बलाभावेन कथनानि हि (अनिषव्याः-पापीः-तन्वः सन्तु) शरीराणि सन्तीषु रहितानि शस्त्रधारणायोग्यानि, यतः पापानि चोर्यकर्मणा (वः पन्थाः-एतवै-अधृष्टः) युष्माकं मार्गो, गन्तुं प्लायितुं दृढो नास्ति “लडर्थे लोट्” (बृहस्पतिः-वः-उभया न मृळात्) स च वाक्शक्तेः-स्वामी परमात्मा युष्माकमुभयानि वचनानि शरीराणि च न सुखयति ॥६॥ आध्यात्मिकयोजना−विषयव्यवहारे प्रवर्त्तमाना इन्द्रियप्राणाः ! युष्माकं वचनानि निर्बलानि निरस्त्राणि पापमयानि च, मार्गश्च गन्तुमशक्यः, तस्मात्-चेतनायाः पालकः परमात्मा न मया विना युष्मान् सुखयेत् ॥६॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Sarama: O Panis, clouds of vapour, mind and sense vibrations, your words are not worthy of fight, your bodies are too tenuous for the arrows, your path of motion too is not strong enough for any campaign. And even Brhaspati, lord of speech and space, himself would not be too indulgent toward you. You are too lost in the dust around to be free from sin.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    सेना, शस्त्र इत्यादी बळ नसताना केवळ वचनाने विजय प्राप्त करता येत नाही. विशेषत: अपहरण करणाऱ्या पापी लोकांना बचाव करण्याचा किंवा पलायन करण्याचा कोणताही मार्ग नसतो. परमात्मा त्यांचे वचन व शरीर नि:सत्त्व करून टाकतो. ॥६॥

    टिप्पणी

    मंत्र ६ - विषय व्यवहारे प्रवर्तमाना इन्द्रिय प्राणा: । युष्माकं वचनानि निर्बलानि निरस्त्राणि पापमयानिच मार्गश्च गन्तुम शक्य: तस्मात् चेतनाया: पालक: परमात्मा न मया विना युष्मान् सुखयेत् ॥६॥ $ भाषा - विषय व्यवहारात प्रवर्तमान इंद्रिय प्राणांनो! तुमचे वचन निर्बल व निरस्त्र आहेत, तसेच शरीर पापमय आहे. जाण्याचा मार्गही अयोग्य आहे. त्यासाठी चेतनेचा पालक परमात्मा माझ्याशिवाय तुम्हाला सुखी करू शकत नाही. ॥६॥

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