ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 108/ मन्त्र 7
अ॒यं नि॒धिः स॑रमे॒ अद्रि॑बुध्नो॒ गोभि॒रश्वे॑भि॒र्वसु॑भि॒र्न्यृ॑ष्टः । रक्ष॑न्ति॒ तं प॒णयो॒ ये सु॑गो॒पा रेकु॑ प॒दमल॑क॒मा ज॑गन्थ ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒यम् । नि॒ऽधिः । स॒र॒मे॒ । अद्रि॑ऽबुध्नः । गोभिः॑ । अश्वे॑भिः । वसु॑ऽभिः । निऽऋ॑ष्टः । रक्ष॑न्ति । तम् । प॒णयः॑ । ये । सु॒ऽगो॒पाः । रेकु॑ । प॒दम् । अल॑कम् । आ । ज॒ग॒न्थ॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अयं निधिः सरमे अद्रिबुध्नो गोभिरश्वेभिर्वसुभिर्न्यृष्टः । रक्षन्ति तं पणयो ये सुगोपा रेकु पदमलकमा जगन्थ ॥
स्वर रहित पद पाठअयम् । निऽधिः । सरमे । अद्रिऽबुध्नः । गोभिः । अश्वेभिः । वसुऽभिः । निऽऋष्टः । रक्षन्ति । तम् । पणयः । ये । सुऽगोपाः । रेकु । पदम् । अलकम् । आ । जगन्थ ॥ १०.१०८.७
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 108; मन्त्र » 7
अष्टक » 8; अध्याय » 6; वर्ग » 6; मन्त्र » 2
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अष्टक » 8; अध्याय » 6; वर्ग » 6; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(सरमे) हे सरणशील स्तनयित्नु वाक् (अयं निधिः) यह कोष (अद्रिबुध्नः) मेघ जिसके बन्धक हैं, ऐसा है वह (गोभिः) बहुत गौवों के तुल्य (अश्वेभिः) बहुत घोड़ों के तुल्य (वसुभिः) बहुत धनों के तुल्य (न्यृष्टः) नितरां प्राप्त-अनायास प्राप्त (तं पणयः रक्षन्ति) उसकी गोरक्षक की भाँति मध्यस्थान के देव मेघ रक्षा करते हैं। (ये सुगोपाः) जो शोभन रक्षक हैं (रेकु पदम्) शङ्कित स्थान (अलकम्-आ जगन्थ) अलीक तुच्छ को प्राप्त हुई ॥७॥ आध्यात्मिकयोजना−हे सरणशील चेतना ! यह महासुखकोष बहुमूल्य है, स्तुतिकर्ता बन्धक व प्रवर्तक है, अनायास प्राप्त है, इन्द्रिय प्राण उसे रखते हैं, परन्तु नितान्त कल्याणकर है, यह शङ्कनीय है, व्यर्थ तू आई है ॥७॥
भावार्थ
मेघों के अन्दर जो जल निहित हैं, वे बहुमूल्य हैं, बहुत गौवों, घोड़ों, धनों के तुल्य अनायास प्राप्त हैं, प्राणिमात्र के लिये हितकर हैं, इनके अन्दर सदा रुके रहेंगे, ऐसी शङ्का नहीं करनी चाहिये। वृष्टिविज्ञानवेत्ता इस बात को जानते हैं और जानना चाहिए, मेघ बरसेंगे और बरसकर रहेंगे ॥७॥
विषय
आन्तर धन 'गौवों-अश्वों व वसुओं' से बना है
पदार्थ
[१] पणि कहते हैं कि हे (सरमे) = सरणशील बुद्धि ! (अयं निधिः) = यह आन्तर धन (अद्रिबुध्नः) = [अद्रिः पर्वतः बन्धको यस्य सा० ] अविद्यारूप पर्वत से बद्ध-सा हुआ पड़ा है। अर्थात् अविद्या के कारण यह हमारे उत्थान का साधन नहीं बन रहा। यह (निधि गोभिः) = अर्थ की गमक ज्ञानेन्द्रियों से (अश्वेभिः) = कर्मों में व्याप्त होनेवाली कर्मेन्द्रियों से तथा (वसुभिः) = निवास के कारणभूत प्राणों से (न्यृष्टः) = नितरां व्याप्त है। इस आन्तर निधि में 'ज्ञानेद्रिय, कर्मेन्द्रिय व प्राण' तीन मुख्य अंश हैं। [२] (तम्) = उस निधि को वे ही (पणयः) = व्यवहारी लोभ (रक्षन्ति) = रक्षित करनेवाले होते हैं (ये) = जो (सुगोपाः) = उत्तम गोप रक्षक प्रभुवाले होते हैं । वस्तुतः सब व्यक्ति गौवें के रूप में हैं तो प्रभु उनके गोप [=वाले] हैं । गोप से रक्षित व्यक्ति ही अपने धन की रक्षा करनेवाले होते हैं । अन्यथा वे स्वयं इस निधि के चोरों से अपने को बचा नहीं सकते। [३] पणि बुद्धि से कहते हैं कि हे बुद्धि ! तू भी (रेकु पदम्) = इस प्रतिक्षण शत्रु के आक्रमण के भय की आंशकावाले स्थान पर (अलकम्) = व्यर्थ ही (आजगन्थ) = आ गई है। तेरे पर भी इन वासनारूप शत्रुओं का आक्रमण हुआ तो तेरा भी सुरक्षित रहना कठिन होगा। वासनाएँ तुझे भी भ्रष्ट कर डालेंगी।
भावार्थ
भावार्थ- आन्तर धन 'ज्ञानेन्द्रिय, कर्मेन्द्रिय व प्राणों' से बना है। अविद्या इसे नष्ट करनेवाली है। प्रभु से रक्षित व्यक्ति ही इस धन की रक्षा कर पाते हैं ।
विषय
प्राणों का देह पर वश।
भावार्थ
हे (सरमे) उत्तम चेतना के तुल्य व्यापक शक्ते ! (अयं) यह (निधिः) ज्ञानों को धारण करने वाला कोष (अद्रि-बुध्नः) अन्न को खाने वाले देह वा प्राणों पर आश्रित है। और यह (गोभिः) ज्ञानेन्द्रिय, (अश्वेभिः) कर्मेन्द्रियों और (वसुभिः) आठ प्राणों से (नि ऋष्टः) व्याप्त है। (ये सु-गोपाः) जो उत्तम रक्षकवत् (पणयः) नाना व्यवहार के कारण मुख्य प्राण कान, नाक आदि उपकरण हैं वे ही (तं) उस निधि रूप देह की (रक्षन्ति) रक्षा किया करते हैं। हे चितिशक्ते ! तू (रेकु पदम्) इस शंकास्पद स्थान को (अलकम् = अलं आजगन्थ) व्यर्थ ही आई है, यहां मत आ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः पणयोऽसुराः। २, ४, ६, ८, १०, ११ सरमा देवशुनी॥ देवता—१, ३, ५, ७, ९ सरमा। २, ४, ६, ८, १०, ११ पण्यः॥ छन्दः—१ विराट् त्रिष्टुप्। २, १० त्रिष्टुपू। ३–५, ७-९, ११ निचृत् त्रिष्टुप्। ६ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। एकादशर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(सरमे) हे सरणशीले स्तनयित्नु वाक् ! (अयं-निधिः) अयं कोषः (अद्रिबुध्नः) मेघाः-बुध्नाः-बन्धका यस्य तथाभूतः “अद्रिः मेघनाम” [निघ० १।१०] “वन्धे व्रधिबुधी च नक्” [उणादि० ३।५] अस्ति (गोभिः-अश्वेभिः-वसुभिः-न्यृष्टः) गोभिः-बहुगोभिस्तुल्यः, बहुभिरश्वै-स्तुल्यः बहुधनैस्तुल्यः-नितरां प्राप्तः, अप्रयासेन प्राप्तः (तं पणयः-रक्षन्ति) तं निधिं पणयो गोरक्षका इव रक्षका मध्यस्थाना देवाः रक्षन्ति (ये सुगोपाः) ये शोभनरक्षकाः सन्ति (रेकु पदम्-अलकम्-आ जगन्थ) शङ्कितम् “रेकु शङ्कितम्” [ऋ० ४।५।१२ दयानन्दः] ‘रेकृ शङ्कायाम्’ [भ्वादि०] ‘औणादिकः उः प्रत्ययः’ पदं स्थानमलीकं तुच्छमागतवती “अल धातोः क्र्यादिभ्यो वुन्” [उणादि० ५।३५] तथा “अलीकादयश्च” [उणादि० ४।२५] ‘अल धातोरीकन्’ ॥७॥ आध्यात्मिकयोजना−हे सरणशीले चेतने ! अयं सुखकोषः बहुमूल्यः, यस्य स्तुतिकर्त्तारो बन्धकाः प्रवर्त्तकाः सन्ति, अनायासेन प्राप्तः, इन्द्रियप्राणास्तं रक्षन्ति परन्तु नितान्तं कल्याणकरमिति शङ्कनीयमस्ति, व्यर्थं त्वमागता ॥७॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Panis: O Sarama, light of lightning, spirit of life’s will, this treasure is locked in the cloud, it is vibrant with sunlight within, lustre of nature and wealths of life. And that treasure, practical possibilities guard. Wonderful guards are they. In vain have you come to this place, it is void of anything for you.
मराठी (1)
भावार्थ
मेघात जे जल आहे ते बहुमूल्य आहे. गायी, घोडे, धन यांच्याप्रमाणे अनायास प्राप्त आहे. प्राणिमात्रासाठी हितकर आहे. ते मेघातच सदैव स्थित असेल अशी शंका घेता कामा नये. वृष्टिविज्ञानवेत्ते ही गोष्ट जाणतात त्यांना माहिती असते की मेघाद्वारे वृष्टी होईल. ॥७॥
टिप्पणी
मंत्र ७ - हे सरणशीले चेतने! अयं सुखकोष: बहुमूल्य: यस्य स्तुतिकत्तारो बंधका: प्रवर्त्तका: सन्ति, अनायासेन प्राप्त: - इन्द्रिय प्राणास्तं रक्षन्ति परन्तु नितान्तं कल्याणकरमिति शङ्कनीयमस्ति व्यर्थ त्वमागता ॥७॥ $ भाषा - हे सरणशील चेतना! महासुख कोण बहुमूल्य आहे? स्तुतिकर्त्ता बंधक व प्रवर्त्तक आहे. अनायास प्राप्त आहे. इंद्रिय प्राण तिला राखतात. ती नितांत कल्याणकारी आहे. तू व्यर्थ आलेली आहेस. ॥७॥
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