ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 123/ मन्त्र 2
स॒मु॒द्रादू॒र्मिमुदि॑यर्ति वे॒नो न॑भो॒जाः पृ॒ष्ठं ह॑र्य॒तस्य॑ दर्शि । ऋ॒तस्य॒ साना॒वधि॑ वि॒ष्टपि॒ भ्राट् स॑मा॒नं योनि॑म॒भ्य॑नूषत॒ व्राः ॥
स्वर सहित पद पाठस॒मु॒द्रात् । ऊ॒र्मिम् । उत् । इ॒य॒र्ति॒ । वे॒नः । न॒भः॒ऽजाः । पृ॒ष्ठम् । ह॒र्य॒तस्य॑ । द॒र्शि॒ । ऋ॒तस्य॑ । सानौ॑ । अधि॑ । वि॒ष्टपि॑ । भ्राट् । स॒मा॒नम् । योनि॑म् । अ॒भि । अ॒नू॒ष॒त॒ । व्राः ॥
स्वर रहित मन्त्र
समुद्रादूर्मिमुदियर्ति वेनो नभोजाः पृष्ठं हर्यतस्य दर्शि । ऋतस्य सानावधि विष्टपि भ्राट् समानं योनिमभ्यनूषत व्राः ॥
स्वर रहित पद पाठसमुद्रात् । ऊर्मिम् । उत् । इयर्ति । वेनः । नभःऽजाः । पृष्ठम् । हर्यतस्य । दर्शि । ऋतस्य । सानौ । अधि । विष्टपि । भ्राट् । समानम् । योनिम् । अभि । अनूषत । व्राः ॥ १०.१२३.२
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 123; मन्त्र » 2
अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 7; मन्त्र » 2
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अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 7; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(वेनः) कमनीय परमात्मा या विद्युत् देव (समुद्रात्) वेदसमुद्र से (ऊर्मिम्) ज्ञान से (उदियर्ति) उभारता है, बाहिर प्रकट करता है, (नभोजाः) जो द्युलोक पृथिवीलोक के मध्य वर्तमान जगत् में उत्पन्न जीवात्मा वह (हर्यतस्य) कमनीय परमात्मा के (पृष्ठम्) अभीष्ट ज्ञानस्वरूप को (दर्शि) देखता है (ऋतस्य) ज्ञान के या जल के (सानौ) दाता परमात्मा में या मेघ में (भ्राट्) प्रकाशमान में (समानं योनिम्-अनु) समान स्थान को लक्ष्य लक्षित करके (व्राः) परमात्मा के प्रति व्रजन करते हैं-गति करते हैं (अधि-अनूषत) साधिकार स्तुत करते हैं ॥२॥
भावार्थ
कमनीय परमात्मा ने जीवात्मा के लिये वेद का ज्ञान दिया, जीवात्मा परमात्मा के स्वरूप को हृदय में देखता है और अन्य जन उसकी स्तुति करते हैं, एवं विद्युत्-चमकनेवाली अच्छी लगती है, वह जल देती है, जल मेघ में होता है, जल बरस जाने पर जन उसकी प्रशंसा करते हैं ॥२॥
विषय
तारों में प्रभु का प्रकाश
पदार्थ
[१] (वेनः) = मेधावी पुरुष समुद्रात् ज्ञान के समुद्र इस वेद से [रायः समुद्राँश्चतुर: ० ] (ऊर्मिं उदियर्ति) = [ऊर्मि = light] ज्ञान के प्रकाश को अपने में उद्गत करता है। (नभोजा:) = [नभ आदित्यः नेताभासां नि० २।१४ ] ज्ञान सूर्य में निवास करनेवाला यह वेन (हर्यतस्य) = उस कान्त, सब से जाने योग्य [हर्य गतिकान्त्योः] प्रभु के (पृष्ठम्) = पृष्ठ को (दर्शि) = देखता है। 'पृष्ठं दर्शि' शब्दों से यह स्पष्ट है कि ज्ञानी भी प्रभु को इस रूप में देखता है कि 'वह है'। उस प्रभु का पूरा-पूरा जान लेना तो सम्भव ही नहीं वस्तुतः प्रभु की सत्ता का ज्ञान ही मनुष्य के जीवन के निर्मलीकरण के लिए पर्याप्त है । [२] अब यह वेन देखता है कि वे प्रभु ऋतस्य सानौ ऋत के शिखर पर अधिविष्टपि = सम्पूर्ण भुवन के ऊपर भ्राट् देदीप्यमान हैं। इस प्राकृतिक संसार का एक-एक पिण्ड बड़ी नियमित गति से चल रहा है, 'ऋत' का पालन कर रहा है, सूर्य-चन्द्र-तारे बड़े ठीक [ऋत = right] समय पर उदय होते हैं इस 'ऋत' का जन्मदाता वह प्रभु ही है। प्रभु के भय से ही सब कार्य ऋतपूर्वक हो रहा है। सारे ब्रह्माण्ड के अध्यक्ष वे प्रभु ही हैं। [३] साथ ही वेन को ऐसा प्रतीत होता है कि (व्राः) = आकाश को आच्छादित करनेवाले ये तारे उस (समानं योनिम्) = सारे लोक-लोकान्तरों के समानरूप से निवास स्थानभूत उस ब्रह्म को [यस्मिन् भवत्येकनीडम्] (अभ्यनूषत) = स्तुत कर रहे हैं। चमकते हुए इन तारों में भी तो उस प्रभु की ही महिमा दिखती है ।
भावार्थ
भावार्थ - मेधावी पुरुष वेद से प्रकाश को प्राप्त करता है, प्रभु की सत्ता का अनुभव करता है । उसे सब पिण्डों की नियमित गति में [ऋत में] प्रभु का दर्शन होता है, तारे उसे प्रभु का स्तवन करते प्रतीत होते हैं।
विषय
समुद्र से तरंग, सूर्य से उषा आदि दृष्टान्तों से प्रभु से ज्ञानप्राप्ति का वर्णन।
भावार्थ
(वेनः समुद्रात् ऊर्मिम् उत् इयर्त्ति) सूर्य जिस प्रकार जल को समुद्र से ऊपर उठाता है, वा सूर्य जिस प्रकार (समुद्रात्) आकाश से उषा को ऊपर उठाता है। उसी प्रकार ज्ञानी, विचारवान् पुरुष (समुद्रात्) समुद्र के समान अपार ज्ञान-भण्डार प्रभु से (उर्मिम्) उत्तम ज्ञान को प्राप्त करता है, (नभोः-जाः हर्यतस्य पृष्ठम् दर्शि) और जिस प्रकार आकाश में उत्पन्न मेघ उस कान्तिमान् सूर्य के बल को प्राप्त कर दिखाई देता है उसी प्रकार (नभोः-जाः) आकाशवत् महान् उस प्रभु के बीच में उत्पन्न ब्रह्मज्ञ पुरुष उस (हर्यतस्य) कान्तिमान् सुन्दर, शिव प्रभु के (पृष्ठम्) स्वरूप को (दर्शि) साक्षात् करता है। वह (ऋतस्य सानौ) ज्ञान के देने वाले (विष्टपि अधि) संताप-रहित मुखमय लोक में (भ्राट्) सूर्यवत् देदीप्यमान है। (समानं योनिम् अनु) एक समान आश्रययोग्य गृहवत् शरणप्रद उस प्रभु को लक्ष्य करके (व्राः अभि अनूषत) वरण करने वाले भक्त जन और वर्णन करने वाली वेद-वाणियां उसकी साक्षात् स्तुति करती हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिर्वेनः॥ वेनो देवता॥ छन्दः—१, ५, ७ निचृत् त्रिष्टुप्। २— ४, ६, ८ त्रिष्टुप्। अष्टर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(वेनः) कमनीयः परमात्मा यद्वा विद्युत् देवः (समुद्रात्) सर्वज्ञानसागराद् वेदात् अन्तरिक्षाद्वा (ऊर्मिम्) ज्ञानम् “ऊर्मि बोधम्” [यजु० १७।९९ दयानन्दः] यद्वा जलसमूहम् “ऊर्मिः-जलसमूहः” [यजु० ४।५८ दयानन्दः] (उत् इयर्ति) उद्गमति (नभोजाः) द्यावापृथिव्योर्मध्ये-द्यावापृथिवीमये जगति जातो जीवात्मा (हर्यतस्य) कमनीयस्य परमात्मनः “हर्यति कान्तिकर्मा” [निघ० २।६] (पृष्ठम्-दर्शि) ज्ञातमिष्टं स्वरूपम् “पृष्ठं ज्ञीप्सितम्” [यजु० १७।६५ दयानन्दः] पश्यति (ऋतस्य सानौ) ज्ञानस्य दातरि (विष्टपि-अधि) व्यापके परमात्मनि तदन्तरे तदाश्रये प्रसृते मेघे वा (भ्राट्) प्रकाशमाने “सुपां सुलुक्” [अष्टा० ७।१।३] इति सप्तम्या लुक् (समानं योनिम्-अनु) समानं स्थानमनुलक्ष्य (व्राः-अधि-अनूषत) परमात्मानं प्रति व्रजन्ति ये ते स्तोतारः “व्राः ये व्रजन्ति ते-व्रज धातोर्बाहुलकादौणादिको डः प्रत्ययः” [ऋ० १।१२६।५ दयानन्दः] अधि स्तुवीध्वम् ॥२॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Rising from the skies, the sun radiates its waves of light, draws waves of mist from the ocean, energises clouds of mist from the ocean of space, the vault of glorious heaven across the skies is seen, the glory shines on top of the high heaven of nature’s yajna, and the sages celebrate both dawn and the vault of heaven together.
मराठी (1)
भावार्थ
कमनीय परमात्म्याने जीवात्म्यासाठी वेदाचे ज्ञान दिले. जीवात्मा, परमात्म्याच्या स्वरूपाला हृदयात पाहतो व इतर लोक त्याची स्तुती करतात व चमचमणारी विद्युत चांगली वाटते. ती जल देते. जल मेघात असते. जलवर्षाव झाल्यावर लोक विद्युतची प्रशंसा करतात. ॥२॥
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