ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 123/ मन्त्र 3
स॒मा॒नं पू॒र्वीर॒भि वा॑वशा॒नास्तिष्ठ॑न्व॒त्सस्य॑ मा॒तर॒: सनी॑ळाः । ऋ॒तस्य॒ साना॒वधि॑ चक्रमा॒णा रि॒हन्ति॒ मध्वो॑ अ॒मृत॑स्य॒ वाणी॑: ॥
स्वर सहित पद पाठस॒मा॒नम् । पू॒र्वीः । अ॒भि । व॒व॒शा॒नाः । तिष्ठ॑न् । व॒त्सस्य॑ । मा॒तरः॑ । सऽनी॑ळाः । ऋ॒तस्य॑ । सानौ॑ । अधि॑ । च॒क्र॒मा॒णाः । रि॒हन्ति॑ । मध्वः॑ । अ॒मृत॑स्य । वाणीः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
समानं पूर्वीरभि वावशानास्तिष्ठन्वत्सस्य मातर: सनीळाः । ऋतस्य सानावधि चक्रमाणा रिहन्ति मध्वो अमृतस्य वाणी: ॥
स्वर रहित पद पाठसमानम् । पूर्वीः । अभि । ववशानाः । तिष्ठन् । वत्सस्य । मातरः । सऽनीळाः । ऋतस्य । सानौ । अधि । चक्रमाणाः । रिहन्ति । मध्वः । अमृतस्य । वाणीः ॥ १०.१२३.३
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 123; मन्त्र » 3
अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 7; मन्त्र » 3
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अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 7; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(पूर्वीः) पूर्ववर्ती शाश्वती (वाणीः) वेदवाणियाँ (समानम्) एक परमात्मा को (अभि वावशानाः) वर्णन करती हुई (तिष्ठन्) वर्तमान हैं (वत्सस्य) उस वेदवक्ता परमात्मा के (सानौ) सुख देनेवाले में (चक्रमाणाः) विचरती हुई (अमृतस्य) अमृत (मध्वः) मधुर परमात्मा का (रिहन्ति) स्वाद देती हैं ॥३॥
भावार्थ
वेदवाणियाँ शाश्वत हैं, नित्य हैं, सब एक परमात्मा का वर्णन करती हैं, उस अमृतस्वरूप मधुर परमात्मा का आनन्द चखाती हैं, अतः परमात्मा के ज्ञानार्थ वेदवाणी का अध्ययन आवश्यक है ॥३॥
विषय
मधुरता - अमृतता
पदार्थ
[१] (पूर्वी:) = अपना पालन व पूरण करनेवाली प्रजाएँ (समानम्) = [सम्यग् आनयति] उस प्राणित करनेवाले प्रभु को (अभिवावशाना:) = लक्ष्य करके स्तुति वचनों का उच्चारण करती हुई, (वत्सस्य) = सृष्टि के प्रारम्भ में वेदज्ञान का उच्चारण करनेवाले [ वदति इति] प्रभु का (मातरः) = अपने हृदयों में ज्ञान प्राप्त करनेवाले [= निर्माण करनेवाले] (सनीडा:) = उस समान प्रभु रूप नीड [गृह] में निवास करनेवाले ये स्तोता (ऋतस्य सानौ) = ऋत के शिखर पर (अधि चक्रमाणाः) = गति करते हुए, अर्थात् अपने सब कार्यों को ऋतपूर्वक करते हुए (मध्वः अमृतस्य) = अत्यन्त मधुर अमृत की (वाणी:) = वाणियों को (रिहन्ति) = आस्वादित करते हैं । [२] वेदवाणियाँ - ज्ञान की वाणियाँ जीवन को मधुर बनानेवाली हैं, ये नीरोगता को देनेवाली हैं। इनमें उपदिष्ट मार्ग पर आक्रमण करने से जीवन मधुर व नीरोग बनता है। जो मेधावी पुरुष होते हैं वे [क] प्रभु का स्तवन करते हैं, [ख] हृदयों में प्रभु के प्रकाश को देखने के लिए यत्नशील होते हैं, [ग] प्रभु को सब प्राणियों के निवास- स्थान के रूप में देखते हुए परस्पर बन्धुत्व को अनुभव करते हैं, [घ] इनके सब कार्य नियमित गति से होते हैं, [ङ] ये ज्ञान की वाणियों में आनन्द का अनुभव करते हैं । ये वाणियाँ इनके जीवन को मधुर व नीरोग बनाती हैं।
भावार्थ
भावार्थ - मेधावी पुरुषों का जीवन प्रभु स्मरण व ज्ञानग्रहण में प्रवृत्त रहता है, वे मधुर व नीरोग जीवनवाले होते हैं।
विषय
वेदवाणियों का परमप्रतिपाद्य प्रभु।
भावार्थ
(पूर्वीः) पूर्व विद्यमान, ज्ञान में पूर्ण, एवं अनादि (वाणीः) वाणियां (समानम्) अनुरूप गुणशाली का (अभि वावशानाः) वर्णन करती हुई, (वत्सस्य) स्तुत्य, वन्दनीय प्रभु की (मातरः) ज्ञान कराने वाली, (ऋतस्य सानौ) ऋत, अव्यक्त जगत् कर्मफल एवं परम प्राप्य ज्ञान, बल, यज्ञ, तेज के सर्वोन्नत पद में (चक्रमाणाः) गति करती हुई (वाणीः) वाणियां, वा सेवन करने वाली, प्रजाएं उसी (अमृतस्य मध्वः) अमृतस्वरूप, मधुर, आनन्द प्रभु का (रिहन्ति) स्पर्श करती हैं, उसी तक पहुंचती हैं, उसी का वर्णन करती हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिर्वेनः॥ वेनो देवता॥ छन्दः—१, ५, ७ निचृत् त्रिष्टुप्। २— ४, ६, ८ त्रिष्टुप्। अष्टर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(पूर्वीः-वाणीः) प्राक्तन्यो वेदवाचः “वाणी वाङ्नाम” [निघ० १।११] (समानम्-अभि वावशानाः तिष्ठन्) समानमेकं परमात्मानं वर्णयन्त्यस्तिष्ठन्ति (वत्सस्य सनीळाः-मातरः) वेदवक्तुः परमात्मनः समानाश्रयाः-मानकर्त्र्योः ज्ञापयन्त्याः (ऋतस्य सानौ) ज्ञानस्य दातरि (चक्रमाणाः) क्रामयन्त्यः (अमृतस्य मध्वः-रिहन्ति) तममृतस्वरूपं मधुरं परमात्मानम् “द्वितीयार्थे षष्ठी” आस्वादयन्ति अन्तर्गतो णिजर्थः ॥३॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Equal and abundant, shining and thundering currents of natural energy, mother generators of clouds of rain, abiding together with vapours and sun rays in the skies, also active on top of nature’s dynamics, inspire the honey sweets of sage’s immortal songs of divine celebration.
मराठी (1)
भावार्थ
वेदवाणी शाश्वत आहे, नित्य आहे. एका परमेश्वराचे वर्णन करते. त्या अमृतस्वरूप मधुर परमात्म्याच्या आनंदाचा स्वाद घेता येतो. त्यामुळे परमात्म्याच्या ज्ञानासाठी वेदवाणीचे अध्ययन आवश्यक आहे. ॥३॥
बंगाली (1)
পদার্থ
যঃ প্রাণতো নিমিষতো মহিত্বৈক ইদ্রাজা জগতো বভূব।
য ঈশে অস্য দ্বিপদশ্চতুষ্পদঃ কস্মৈ দেবায় হবিষা বিধেম।।৪৩।।
(ঋগ্বেদ ১০।১২১।৩)
পদার্থঃ (যঃ) যিনি (মহিত্বা) নিজের অনন্ত মহিমা দ্বারা (প্রাণতঃ) শ্বাস গ্রহণকারী (নিমিষতঃ) প্রাণীরূপ (জগতঃ) সমগ্র জগতের (এক ইৎ) একমাত্র (রাজা) বিরাজমান রাজা (বভূব) হিসেবে অধিষ্ঠিত, (যঃ) যিনি (অস্য দ্বিপদঃ) এই দ্বিপদ যুক্ত শরীর এবং (চতুষ্পদঃ) গো আদি চতুষ্পদীয় শরীরের (ঈশে) রচনা করে তাদের শাসনকর্তা; (কস্মৈ) সুখস্বরূপ, সুখদায়ক (দেবায়) কামনার যোগ্য সেই পরমব্রহ্মের প্রাপ্তির জন্য (হবিষা) সকল সামর্থ্য দ্বারা (বিধেম) বিশেষ ভক্তি করি।
ভাবার্থ
ভাবার্থঃ হে পরমাত্মা! তুমি এই জীব ও জড় জগতের একমাত্র রাজাধিরাজ, সমস্ত জগতের উৎপন্নকর্তা, সকল ঐশ্বর্যযুক্ত মহাত্মা ন্যায়াধীশ তুমিই। হে জগৎপতি! তোমার উপাসনা দ্বারাই ধর্ম-অর্থ-কাম ও মোক্ষ এই চার পুরুষার্থ প্রাপ্ত হওয়া সম্ভব, অন্য কারো উপাসনা দ্বারা কখনোই নয়।।৪৩।।
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