ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 123/ मन्त्र 8
द्र॒प्सः स॑मु॒द्रम॒भि यज्जिगा॑ति॒ पश्य॒न्गृध्र॑स्य॒ चक्ष॑सा॒ विध॑र्मन् । भा॒नुः शु॒क्रेण॑ शो॒चिषा॑ चका॒नस्तृ॒तीये॑ चक्रे॒ रज॑सि प्रि॒याणि॑ ॥
स्वर सहित पद पाठद्र॒प्सः । स॒मु॒द्रम् । अ॒भि । यत् । जिगा॑ति । पश्य॑न् । गृध्र॑स्य । चक्ष॑सा । विऽध॑र्मन् । भा॒नुः । शु॒क्रेण॑ । शो॒चिषा॑ । च॒का॒नः । तृ॒तीये॑ । च॒क्रे॒ । रज॑सि । प्रि॒याणि॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
द्रप्सः समुद्रमभि यज्जिगाति पश्यन्गृध्रस्य चक्षसा विधर्मन् । भानुः शुक्रेण शोचिषा चकानस्तृतीये चक्रे रजसि प्रियाणि ॥
स्वर रहित पद पाठद्रप्सः । समुद्रम् । अभि । यत् । जिगाति । पश्यन् । गृध्रस्य । चक्षसा । विऽधर्मन् । भानुः । शुक्रेण । शोचिषा । चकानः । तृतीये । चक्रे । रजसि । प्रियाणि ॥ १०.१२३.८
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 123; मन्त्र » 8
अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 8; मन्त्र » 3
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अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 8; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(द्रप्सः) हर्षकारी परमात्मा (समुद्रम्) हृदय आकाश को (यत्) जब (जिगाति) प्राप्त होता है (विधर्मन्) विशेषतः धारण-ध्यान में (गृध्रस्य) आकाङ्क्षी की दर्शनशक्ति से (पश्यन्) उपासक को देखता हुआ (भानुः शुक्रेण शोचिषा चकानः) ज्ञानप्रकाशक परमात्मा शुभ्र ज्योति से स्तुतिकर्मा को चाहता हुआ (तृतीये रजसि) तीसरे लोक मोक्षधाम में (प्रियाणि चक्रे) प्रिय सुख करता है-देता है ॥८॥
भावार्थ
परमात्मा उपासक के हृदय में प्राप्त होता है। जब वो उसे विशेष ध्यान में संलग्न देखता, अपनी ज्ञानप्रज्योति से मोक्ष में प्रिय सुख देता है ॥८॥
विषय
द्रप्सः समुद्रम्
पदार्थ
[१] गत मन्त्र के अनुसार जीवन को बनानेवाला बहुत कुछ प्रभु जैसा बनता है। प्रभु समुद्र हैं, तो यह उस समुद्र का जलकण होता है । (द्रप्सः) = प्रभु रूप समुद्र का जलकण बना हुआ (यत्) = जब (समुद्रं अभि) = [स- मुद्] उस आनन्द के सागर प्रभु की ओर (जिगाति) = जाता है, तो गृध्रस्य (चक्षसा) = गीध की दृष्टि से, अति तीव्र दृष्टि से (विधर्मन्) = उस विशेषरूप से धारण करनेवाले प्रभु में (पश्यन्) = अपने को देखता है। अपने चारों ओर यह उस प्रभु का अनुभव करता है । [२] (भानुः) = ज्ञान से दीप्त हुआ हुआ यह (शुक्रेण शोचिषा) = दीप्त शुचिता से पवित्रता से (चकान:) = चमकता हुआ (तृतीये रजसि) = तमोगुण व रजोगुण से ऊपर उठकर तृतीय सत्त्वगुण में अवस्थित हुआ-हुआ अथवा प्रकृति व जीव से ऊपर उठकर परमात्मा में स्थित हुआ हुआ (प्रियाणि चक्रे) = सदा प्रभु के प्रिय कर्मों को ही करता है । प्रभु को धारणात्मक कर्म प्रिय हैं । यह भी धारणात्मक कर्मों को करनेवाला होता है ।
भावार्थ
भावार्थ - दीप्त व पवित्र जीवनवाले बनते हुए, सदा सत्त्वगुण में अवस्थित होकर प्रभु के प्रिय कर्मों को ही करनेवाले हों । सूक्त का भाव यही है कि वेन मेधावी पुरुष वही है जो प्रभु की ओर चलता है, प्रकृति में फँस नहीं जाता। प्रकृति में न फँसने के कारण ही यह अग्नि-आगे बढ़नेवाला बनता है। इस उन्नतिपथ में आनेवाले विघ्नों का निवारण करनेवाला 'वरुण' बनता है। उन्नत होकर भी 'सोम' विनीत बना रहता है। ' अग्नि वरुण सोम' का पुकारनेवाला [निहव] 'अग्निवरुणसोमानां निहव: ' ही अगले सूक्त का ऋषि है। प्रार्थना है कि-
विषय
आत्मा का तेजोमय प्रभु में प्रवेश।
भावार्थ
(द्रप्सः) द्रुत गति से जाने वाला, सूर्यवत् कान्तिमान् आत्मा, (यत्) जो (समुद्रम् अभि) समुद्रवत् रसों के सागर प्रभु को लक्ष्य कर (गृध्रस्य) रसों के आकांक्षी सूर्य के (चक्षसा) तेज से (पश्यन्) देखता हुआ उसी को (जिगाति) प्राप्त हो जाता है। और (वि धर्मणि) विविध लोकों को धारण करने वाले (रजसि) (तेजोमय उस प्रभु में (शुक्रेण शोचिषा चकानः) अति शुद्ध कान्ति से चमकता हुआ, (तृतीये रजसि) सर्वश्रेष्ठ लोक में (प्रियाणि चक्रे) प्रिय सुखों को प्राप्त करता है। इत्यष्टमो वर्गः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिर्वेनः॥ वेनो देवता॥ छन्दः—१, ५, ७ निचृत् त्रिष्टुप्। २— ४, ६, ८ त्रिष्टुप्। अष्टर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(द्रप्सः) हर्षकरः परमात्मा “द्रप्सः हर्षकर्ता” “दृप हर्षणमोहनयोः” ततः सः प्रत्ययः औणादिकः। “अनुदात्तस्य....” [अ० ६।१।५९] अनेनामागमः [यजु० १।२६ दयानन्दः] (समुद्रम्) हृदयाकाशं (यत्-अभि-जिगाति) यदा प्राप्नोति (विधर्मन्-गृध्रस्य) विशेषेण धारणे ध्याने (गृध्रस्य) आकाङ्क्षिणः (चक्षसा पश्यन्) दर्शनशक्त्या पश्यन् (भानुः-शुक्रेण शोचिषा चकानः) ज्ञानप्रकाशकः शुभ्रेण ज्योतिषा स्तोतारं कामयमानः (तृतीये रजसि) तृतीये धाम्नि मोक्षे (प्रियाणि चक्रे) प्रियाणि सुखानि करोति ॥८॥
इंग्लिश (1)
Meaning
When the sun in the third, highest, heaven, shining on the oceans and vapours in the skies with the light of its fervent rays reaches the clouds of vapour, then the blazing heat with pure and powerful energy catalyses the clouds and condenses the vapours into dear valuable drops that shower in rain upon the earth.
मराठी (1)
भावार्थ
परमात्मा उपासकाच्या हृदयात साक्षात् होतो. जेव्हा तो त्याला विशेष ध्यानात संलग्न पाहतो. तेव्हा आपल्या ज्ञानप्रज्योतीने उपासकाला मोक्षात परम सुख देतो. ॥८॥
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