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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 129 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 129/ मन्त्र 4
    ऋषिः - प्रजापतिः परमेष्ठी देवता - भाववृत्तम् छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    काम॒स्तदग्रे॒ सम॑वर्त॒ताधि॒ मन॑सो॒ रेत॑: प्रथ॒मं यदासी॑त् । स॒तो बन्धु॒मस॑ति॒ निर॑विन्दन्हृ॒दि प्र॒तीष्या॑ क॒वयो॑ मनी॒षा ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    कामः॑ । तत् । अग्रे॑ । सम् । अ॒व॒र्त॒त॒ । अधि॑ । मन॑सः । रेतः॑ । प्र॒थ॒मम् । यत् । आसी॑त् । स॒तः । बन्धु॑म् । अस॑ति । निः । अ॒वि॒न्द॒न् । हृ॒दि । प्र॒तीष्या॑ । क॒वयः॑ । म॒नी॒षा ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    कामस्तदग्रे समवर्तताधि मनसो रेत: प्रथमं यदासीत् । सतो बन्धुमसति निरविन्दन्हृदि प्रतीष्या कवयो मनीषा ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    कामः । तत् । अग्रे । सम् । अवर्तत । अधि । मनसः । रेतः । प्रथमम् । यत् । आसीत् । सतः । बन्धुम् । असति । निः । अविन्दन् । हृदि । प्रतीष्या । कवयः । मनीषा ॥ १०.१२९.४

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 129; मन्त्र » 4
    अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 17; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    पदार्थ

    (अग्रे कामः) आरम्भ सृष्टि में काम अर्थात् अभिलाष-इच्छाभाव (तत्-यत्) वह जो (मनसः-अधि) मन के अन्दर (समवर्तत) वर्त्तमान होता है (प्रथमं रेतः) प्रथम प्राणी का बीज (आसीत्) है (कवयः) क्रान्तदर्शी विद्वान् (असति) अशरीर चेतन आत्मा में (सतः) शरीर के निमित्त (बन्धुम्) बाँधनेवाले उस रेतः-मानवबीजशक्ति को (मनीषा) विवेचनशील बुद्धि से (प्रतीष्य) प्रतीत करके निश्चित करके (हृदि) हृदय में (निः-अविन्दन्) निर्विण्ण हो जाते हैं, वैराग्य को प्राप्त हो जाते हैं ॥४॥

    भावार्थ

    आरम्भ सृष्टि में भोगों के लिए कामभाव वर्त्तमान होता है, जो मानव की बीजशक्तिरूप में प्रकट होता है, क्रान्तदर्शी विद्वान् आत्मा के अन्दर शरीर का बाँधनेवाला है, उसे समझ कर वैराग्य को प्राप्त होते हैं ॥४॥

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    विषय

    संकल्प रूप

    पदार्थ

    (अग्रे) = सृष्टि के पूर्व (तत्) = वह (मनसः अधि) = मन से उत्पन्न होनेवाली (कामः) = इच्छा के समान एक कामना ही (सम् अवर्तत) = सर्वत्र विद्यमान थी, (यत् प्रथमम् रेतः आसीत्) = जो सबसे प्रथम इस जगत् का प्रारम्भिक बीजवत् थी । (कवयः) = क्रान्तदर्शी पुरुष (हृदि प्रति इष्य) = हृदय में पुनः-पुनः विचार कर (असति) = अप्रकट तत्त्व में ही (सतः बन्धुम्) = सत् रूप प्रकट तत्त्व को बाँधनेवाला बल (निर् अविन्दन्) = प्राप्त करते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ- सृष्टि से पूर्व मनोकामना ही थी ।

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    विषय

    ईश्वरीय जगत् सर्ग, संकल्प रूप।

    भावार्थ

    (अग्रे) सृष्टि के पूर्व में (तत्) वह (मनसः अधि) मन से उत्पन्न होने वाली (कामः) इच्छा के समान एक कामना ही, (सम् अवर्तत) सर्वत्र विद्यमान थी, (यत् प्रथमम् रेतः आसीत्) जो सबसे प्रथम इस जगत् का प्रारम्भिक बीजवत् था। (कवयः) क्रान्तदर्शी तत्वज्ञानी पुरुष (हृदि प्रति इष्य) हृदय में पुनः २ विचार कर (असति) अप्रकट तत्त्व में ही (सतः बन्धुम्) सत् रूप प्रकट तत्त्व को बांधने वाला बल (निर् अविन्दन्) प्राप्त करते हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः प्रजापतिः परमेष्ठी। देवता—भाववृत्तम्॥ छन्दः–१–३ निचृत् त्रिष्टुप्। ४—६ त्रिष्टुप्। ७ पादनिचृत् त्रिष्टुप्॥ सप्तर्चं सूक्तम्॥

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    मन्त्रार्थ

    (काम:-तत् अग्रे समवर्तत) सृष्टि से पूर्व काम अर्थात् जीवात्मा का वासनाभाव या सङ्कल्प वर्तमान था (यत्-मनसः अधिरेतः-आसीत्) जो कि मन के अन्दर शरीरधारणार्थ एक बीजरूप था (कवयः) जिसे क्रान्तदर्शी विद्वानों ने (असति सत:-बन्धुं मनीषा प्रतीष्य) अशरीरी-आत्मा में आत्मा के निमित्त शरीर के बांधने वाले को अपनी विवेचनशील बुद्धि से प्रतीत करके-निश्चय करके (हृदि निरविन्दन्) हृदय में निर्विरण हो गये-वैराग्य को प्राप्त हो गये ॥४॥

    विशेष

    ऋषिः–प्रजापतिः परमेष्ठी (सृष्टि से पूर्व स्वस्वरूप में वर्तमान विश्वराट विश्वर चीयता परमात्मा, उपाधिरूप में भाववृत्त का ज्ञाता एवं प्रचारक भी प्रजापतिरूप में प्रसिद्धि प्राप्त विद्वान्) देवता- भाववृत्तम् (वस्तुओं का उत्पत्तिवृत)

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (कामः-तत्-अग्रे) आरम्भसृष्टौ-अग्रे कामोऽभिलाषः (यत्-मनसः-अधि सम् अवर्तत) यत् खलु मनसोऽभ्यन्तरे प्रसिद्धो जातः (प्रथमं रेतः-आसीत्) यत् प्रथमं प्राणिबीजमासीत् “रेतः पुरुषस्य प्रथमं सम्भवतः सम्भवति” [ऐ० ३।२] (कवयः) क्रान्तदर्शिनो विद्वांसः (असति सतः-बन्धुं मनीषा प्रतीष्य) अशरीरिणि खल्वात्मनि तन्निमित्तं शरीरस्य बन्धयितारं विवेचनशीलया बुद्ध्या प्रतीत्य निश्चित्य (हृदि निः-अविन्दन्) हृदये निर्विण्णा अभवन् वैराग्यं प्राप्नुवन् ॥४॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    There is love and desire before the creation at the heart of Brahma which is the first, original and ultimate seed of the world of existence that comes into being. Sages blest with vision, by divine inspiration and mind in meditation, realise the world of existence from the tangible upto the intangible state implicit in the seed state of Prakrti subsisting in the divine mind.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    सृष्टीच्या आरंभी भोगासाठी कामभाव वर्तमान असतो. जो मानवाच्या बीज शक्तिरूपात प्रकट होतो. क्रांतदर्शी विद्वान आत्म्यामध्ये शरीराला बांधणारा असतो. ते समजून वैराग्य प्राप्त केले जाते. ॥४॥

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