ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 129/ मन्त्र 7
ऋषिः - प्रजापतिः परमेष्ठी
देवता - भाववृत्तम्
छन्दः - पादनिचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
इ॒यं विसृ॑ष्टि॒र्यत॑ आब॒भूव॒ यदि॑ वा द॒धे यदि॑ वा॒ न । यो अ॒स्याध्य॑क्षः पर॒मे व्यो॑म॒न्त्सो अ॒ङ्ग वे॑द॒ यदि॑ वा॒ न वेद॑ ॥
स्वर सहित पद पाठइ॒यम् । विऽसृ॑ष्टिः । यतः॑ । आ॒ऽब॒भूव॑ । यदि॑ । वा॒ । द॒धे । यदि॑ । वा॒ । न । यः । अ॒स्य॒ । अधि॑ऽअक्षः । प॒र॒मे । विऽओ॑मन् । सः । अ॒ङ्ग । वे॒द॒ । यदि॑ । वा॒ । न । वेद॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
इयं विसृष्टिर्यत आबभूव यदि वा दधे यदि वा न । यो अस्याध्यक्षः परमे व्योमन्त्सो अङ्ग वेद यदि वा न वेद ॥
स्वर रहित पद पाठइयम् । विऽसृष्टिः । यतः । आऽबभूव । यदि । वा । दधे । यदि । वा । न । यः । अस्य । अधिऽअक्षः । परमे । विऽओमन् । सः । अङ्ग । वेद । यदि । वा । न । वेद ॥ १०.१२९.७
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 129; मन्त्र » 7
अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 17; मन्त्र » 7
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अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 17; मन्त्र » 7
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
पदार्थ
(इयं विसृष्टिः) यह विविध सृष्टि (यतः-आबभूव) जिस उपादान से उत्पन्न हुई है (अस्य यः-अध्यक्षः) इस उपादान का जो अध्यक्ष है (परमे व्योमन्) महान् आकाश में वर्त्तमान है (अङ्ग) हे जिज्ञासु ! (सः) वह परमात्मा (यदि वा दधे) यदि तो चाहे तो न धारण करे अर्थात् संहार कर दे (यदि वेद) यदि उपादान कारण को जाने, अपने विज्ञान में लक्षित करे, सृष्टिरूप में परिणत करे (यदि वा न वेद) यदि न जाने-स्वज्ञान में लक्षित न करे सृष्टिरूप में परिणत न करे, इस प्रकार सृष्टि और प्रलय उस परमात्मा के अधीन हैं ॥७॥
भावार्थ
यह विविध सृष्टि जिस उपादान-कारण से उत्पन्न होती है, उस उपादान कारण अव्यक्त प्रकृति का वह परमात्मा स्वामी-अध्यक्ष है, वह उससे सृष्टि को उत्पन्न करता है और उसका संहार भी करता है। प्रकृति को जब लक्ष्य करता है, तो उसे सृष्टि के रूप में ले आता है, नहीं लक्ष्य करता है, तो प्रलय बनी रहती है, इस प्रकार सृष्टि और प्रलय परमात्मा के अधीन हैं ॥७॥
विषय
मूल तत्त्व को जानने वाला एकमात्र परमेश्वर
पदार्थ
(इयं विसृष्टिः) = यह विविध प्रकार की सृष्टि (यतः आ बभूव) = जिस मूल तत्त्व से प्रकट हुई है, (यदि वा दधे) = जो इस जगत् को धारण कर रहा है, या यदि कोई (यदि वा न) = इसे नहीं भी धारण कर रहा । (यः अस्य अध्यक्षः) = जो इसका अध्यक्ष (परमे व्योमन्) = परम पद में विद्यमान है, (सः अङ्ग वेद) = हे विद्वन् ! वह सब तत्त्व जानता है । (यदि वा न वेद) = चाहे और कोई भले ही न जाने ।
भावार्थ
भावार्थ- जो इस सृष्टि का संचालक है जो धारण कर रहा है वही सब तत्त्व को जानता है ।
विषय
मूल तत्त्व को जानने वाला है तो एकमात्र परमेश्वर ही है।
भावार्थ
(इयं विसृष्टिः) यह विविध प्रकार की सृष्टि (यतः आ बभूव) जिस मूल तत्त्व से प्रकट हुई है (यदि वा दधे) और जो वह इस जगत् को धारण कर रहा है (यदि वा न) और जो नहीं धारण करता (यः अस्य अध्यक्षः) जो इसका अध्यक्ष वह प्रभु (परमे व्योमन्) परम पद में विद्यमान है। (सः अङ्ग वेद) हे विद्वन् ! वह सब तत्त्व जानता है (यदि वा न वेद) चाहे और कोई भले ही न जाने। इति सप्तदशो वर्गः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः प्रजापतिः परमेष्ठी। देवता—भाववृत्तम्॥ छन्दः–१–३ निचृत् त्रिष्टुप्। ४—६ त्रिष्टुप्। ७ पादनिचृत् त्रिष्टुप्॥ सप्तर्चं सूक्तम्॥
मन्त्रार्थ
(इयं विसृष्टिः-यतः-आबभूव) यह विविध सृष्टि जिस उपादान कारण से प्रादुर्भूत हुई- समस्त रूप से व्यक्त हुई। (अस्य यः-अध्यक्षः परमे व्योमन्) इस उपादान कारण अव्यक्त प्रकृति का जो अध्यक्ष महान् आकाश में वर्तमान है (अङ्ग) हे जिज्ञासु ! (सः) वह अध्यक्ष परमात्मा (यदि वा दधें यदि वान) चाहे तो इस विविध सृष्टि को धारण करे सृष्टि के रूप में रखे चाहे तो न धारण करे संहार कर दे यह उसके अधिकार में है और वह अध्यक्ष परमात्मा (वे यदि वा न वेद) इसके उपादान कारण को चाहे तो जाने अपने ज्ञान में रखे चाहे तो न जाने न ज्ञान में रखे ज्ञान में रखना सर्जन की ओर नम्र कर देना सृष्टि का प्रारम्भ कर देना, न ज्ञान में रखना इसका कुछ न बनाना मूलरूप में उपादानरूप में पडे रहने देना प्रलय स्थिति को बनाए रखना, इस प्रकार उत्पत्ति और प्रलय पर भी उसका अधिकार है ॥७॥
टिप्पणी
“अभिशवो वै रश्मयः” (शत० ५|४३|१४) "तिरस्तीर्णो भवति (निरु० ३।२०) “विसर्जनात्। विभक्ति व्यत्ययेन तृतीया। मन्त्र में ‘अस्य अध्यक्षः' में 'अन्य' यह शब्द 'यतः अत्रभूव' के कथन में आवभूव क्रिया से सम्बन्ध रखने वाले उपादान कारण अव्यक के लिए आया है जिसको कि उक्त क्रियानुसार मन्त्र ३ में 'प्रभु' नाम दिया है।
विशेष
ऋषिः–प्रजापतिः परमेष्ठी (सृष्टि से पूर्व स्वस्वरूप में वर्तमान विश्वराट विश्वर चीयता परमात्मा, उपाधिरूप में भाववृत्त का ज्ञाता एवं प्रचारक भी प्रजापतिरूप में प्रसिद्धि प्राप्त विद्वान्) देवता- भाववृत्तम् (वस्तुओं का उत्पत्तिवृत)
संस्कृत (1)
पदार्थः
(इयं विसृष्टिः-यतः-आबभूव) एषा विविधा सृष्टिर्यत उपादानात् प्रादुर्भूता (अस्य यः-अध्यक्षः परमे व्योमन्) अस्योपादानस्य योऽध्यक्षः महति खल्वाकाशे वर्त्तते (अङ्ग) हे जिज्ञासो ! (सः) सोऽध्यक्षः परमात्मा (यदि वा दधे यदि वा न) यदि च सृष्टिं धारयेत् सृष्टिरूपे यदि च न धारयेत् सृष्टिरूपे-संहरेत् (यदि वेद यदि वा न वेद) यदि चोपादानकारणं जानीयात् स्वज्ञाने लक्षयेत् सृष्टिरूपे परिणयेत्, यदि च न जानीयात् स्वज्ञाने न लक्षयेत् सृष्टिरूपे न परिणयेत्-एवं सृष्टिप्रलयौ तस्य परमात्मनोऽधीनौ स्तः ॥७॥
इंग्लिश (1)
Meaning
O dear seeker, whence this multitudinous variety of existence arises, who holds and sustains it, or whether He doesn’t hold and sustain it while He terminates it, only He knows who is the presiding power of it at the highest heavenly level of mystery. Only He knows and pervades it, and He only knows when he doesn’t pervade it while it subsists in Him as in the state of Pralaya.
मराठी (1)
भावार्थ
ही विविध सृष्टी ज्या उपादान कारणाने उत्पन्न होते. त्या उपादान कारण अव्यक्त प्रकृतीचा परमात्मा स्वामी-अध्यक्ष आहे. त्याद्वारे तो सृष्टी उत्पन्न करतो व तिचा संहारही करतो. प्रकृतीला जेव्हा लक्ष्य करतो तेव्हा त्याला सृष्टीच्या रूपात घेऊन येतो. लक्ष्य न केल्यास प्रलय रुपात असते. या प्रकारे सृष्टी व प्रलय परमात्म्याच्या अधीन आहे. ॥७॥
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