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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 129 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 129/ मन्त्र 5
    ऋषिः - प्रजापतिः परमेष्ठी देवता - भाववृत्तम् छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    ति॒र॒श्चीनो॒ वित॑तो र॒श्मिरे॑षाम॒धः स्वि॑दा॒सी३दु॒परि॑ स्विदासी३त् । रे॒तो॒धा आ॑सन्महि॒मान॑ आसन्त्स्व॒धा अ॒वस्ता॒त्प्रय॑तिः प॒रस्ता॑त् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ति॒र॒श्चीनः॑ । विऽत॑तः । र॒श्मिः । ए॒षा॒म् । अ॒धः । स्वि॑त् । आ॒सी॒३त् । उ॒परि॑ । स्वित् । आ॒सी॒३त् । रे॒तः॒ऽधाः । आ॒स॒न् । म॒हि॒मानः॑ । आ॒स॒न् । स्व॒धा । अ॒वस्ता॑त् । प्रऽय॑तिः । प॒रस्ता॑त् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तिरश्चीनो विततो रश्मिरेषामधः स्विदासी३दुपरि स्विदासी३त् । रेतोधा आसन्महिमान आसन्त्स्वधा अवस्तात्प्रयतिः परस्तात् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तिरश्चीनः । विऽततः । रश्मिः । एषाम् । अधः । स्वित् । आसी३त् । उपरि । स्वित् । आसी३त् । रेतःऽधाः । आसन् । महिमानः । आसन् । स्वधा । अवस्तात् । प्रऽयतिः । परस्तात् ॥ १०.१२९.५

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 129; मन्त्र » 5
    अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 17; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    पदार्थ

    (रेतोधाः) प्राणी सृष्टि से पूर्व शरीर की बीजशक्ति कामभाव रेत नाम से कही है, उस रेत अर्थात् मानवबीजशक्ति को धारण करनेवाले आत्माएँ (आसन्) थे (महिमानः-आसन्) वे महान्-अर्थात् असंख्यात थे (एषां-रश्मिः) इनकी बन्धनडोरी या लगाम पूर्वजन्म में किये कर्मों का संस्कार है (तिरश्चीनः-विततः) वह संस्कार विस्तृत फैला हुआ है, जो कि (अधः स्वित्-आसीत्) निकृष्ट योनि में जन्म देने का हेतु है तथा (उपरि स्वित्-आसीत्) उत्कृष्ट योनि में जन्म देने का हेतु है (अवस्तात् स्वधा) शरीर के अवर भाग में स्वधारणा जन्मग्रहण करना (परस्तात् प्रयतिः) और शरीर के पर भाग में मृत्यु है ॥५॥

    भावार्थ

    भोगों की कामनारूप मानवबीजशक्ति को धारण करनेवाले आत्मा सृष्टि से पहले थे और वे असंख्यात थे, इनका पूर्वकर्मकृत संस्कार डोरी या लगाम के समान शरीर में खींच कर लाता है, वह निकृष्टयोनिसम्बन्धी और उत्कृष्टयोनिसम्बन्धी होता है, शरीर के अवरभाग में जन्म है और परभाग में प्रयाण मृत्यु है ॥५॥

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    विषय

    प्रभु की स्वधा शक्ति

    पदार्थ

    (एषाम्) = इन पूर्वोक्त तत्त्वों की रश्मि (रश्मिः) = सूर्यरश्मि के समान (तिरः चित् विततः) = बहुत दूर-दूर तक व्याप्त हुई, (अधः स्वित् आसीत्) = नीचे भी और (उपरिस्वित् आसीत्) = ऊपर भी (रेतः-धाः आसन्) = 'रेतस' को धारण करनेवाले तत्त्व भी थे। (महिमानः आसन्) = वे महान् सामर्थ्यवाले थे। (अवस्तात् स्वधा) = 'स्वधा' अर्थात् प्रकृति नीची बनाई गई है और (परस्तात् प्रयतिः) = उससे ऊँची शक्ति प्रयत्नवाला आत्मा है।

    भावार्थ

    भावार्थ - एक आत्मतत्त्व विद्यमान था ।

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    विषय

    असत् अम्भस् सलिलादि का विस्तार, उसमें अन्य शक्तियां और प्रभु की स्वधा शक्ति।

    भावार्थ

    (एषाम्) इन पूर्वोक असत्, अम्भस, सलिल अर्थात् तपस् और काम, रेतस अर्थात् रजस और सत् इन तीनों का (रश्मिः) सूर्यरश्मि के समान रश्मि (तिरः चित् विततः) बहुत दूर २ तक व्याप्त हुआ। (अधः स्वित् आसीत्) नीचे भी रहा और (उपरिस्वित् आसीत्) ऊपर भी था। (रेतः-धाः आसन्) उक्त ‘रेतस्’ को धारण करने वाले तत्व भी थे। (महिमानः आसन्) वे महान् सामर्थ्य वाले थे। (अवस्तात् स्वधा) नीचे ‘स्वधा’ और (परस्तात् प्रयतिः) उससे परे वह उत्कृष्ट यत्न आश्रय रूप था।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः प्रजापतिः परमेष्ठी। देवता—भाववृत्तम्॥ छन्दः–१–३ निचृत् त्रिष्टुप्। ४—६ त्रिष्टुप्। ७ पादनिचृत् त्रिष्टुप्॥ सप्तर्चं सूक्तम्॥

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    मन्त्रार्थ

    (रेतोधा:-आसन्) सृष्टि से पूर्व रेतोधाः थे अर्थात् रेतः-शरीर की बीज शक्ति जो पूर्व मन्त्र में काम भाव-वासना भाव कहा गया है उसे धारण करने वाले जीवात्मा थे (महिमानः-आसन्) वे महान् थे- असंख्य थे। (एषां रश्मिः) इनका बन्धन या इनकी बन्धनरस्सी लगाम अदृष्ट-पूर्वकृत कर्म संस्कार (तिरश्चीनः-विततः) विस्तृत फैला हुआ था जो (अधः स्वित्-आसीत् उपरिस्वित्-आसीत्) नीचे भी था- नीचयोनि वाला भी था और ऊपर भी थी- उत्कृष्ट योनि वाला भी था। उसके (अवस्तात् स्वधा परास्तात् प्रयतिः) इधर-शरीर के पूर्व भाग में स्वधा अर्थात् 'स्व-धा' अपने को शरीर में धरना-जन्म पाना है और उधर-शरीर के पर भाग में प्रयति-प्रयाण अर्थात् शरीर को छोड कर चल देना-मृत्यु है ॥५॥

    टिप्पणी

    "रेतः पुरुषस्य प्रथमं सम्भवतः सम्भवति” (ऐ० ३२) महत्-इमनिच्। इमनिच् स्वार्थे। तथा च सायणः स्वार्थं-इमनिच (सायणः)

    विशेष

    ऋषिः–प्रजापतिः परमेष्ठी (सृष्टि से पूर्व स्वस्वरूप में वर्तमान विश्वराट विश्वर चीयता परमात्मा, उपाधिरूप में भाववृत्त का ज्ञाता एवं प्रचारक भी प्रजापतिरूप में प्रसिद्धि प्राप्त विद्वान्) देवता- भाववृत्तम् (वस्तुओं का उत्पत्तिवृत)

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (रेतोधाः-आसन्) प्राणिसृष्टेः पूर्वं शरीरस्य बीजशक्तिः-काम उक्तो रेत इति नामतः, रेतसो धारयितार आत्मान आसन् (महिमानः-आसन्) ते महान्तोऽसङ्ख्याताः खल्वासन् (एषां रश्मिः) एतेषां बन्धनरश्मिर्यद्वा बन्धनप्रग्रहः “अभिशवो वै रश्मयः” [श० ५।४।३।१४] पूर्वकर्मकृतसंस्कारः (तिरश्चीनः-विततः) विस्तृतः “तिरस्तीर्णो भवति” [निरु० ३।२०] तथा प्रसृतः-आसीत् (अधः स्वित् आसीत्-उपरि स्वित्-आसीत्) निकृष्टयोनिजन्म हेतुरप्यासीदुत्कृष्टयोनिजन्महेतुः खल्वप्यासीत् (अवस्तात् स्वधा परस्तात् प्रयतिः) शरीरस्यावरभागे स्वधारणा जन्मग्रहणं परभागे प्रयाणं मृत्युर्भवति ॥५॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    The waves and vibrations of these causal potentials of divine Prakrti extend in time and space all round, up, down and transverse. There are the individual souls also, seedlings great and yearning for emergence into life. In all this process of creation and evolution, the divine will is supreme, and the divine potential, Prakrti, the seeding souls, and potential evolutions, are all subservient and subordinate to the divine will.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    भोगांच्या कामनारूपी मानव बीजशक्तीला धारण करणारे आत्मे सृष्टीपूर्वी असंख्य होते. यापूर्वीचे त्यांचे पूर्व कर्म कृत-संस्कार दोरी किंवा लगामाप्रमाणे शरीरात ओढून आणतात. ते निकृष्ट योनीसंबंधी व उत्कृष्ट योनीसंबंधी असतात. शरीराच्या अवर भागात (पूर्वी) जन्म होतो व परभागात (नंतर) प्रयाण मृत्यू असतो. ॥५॥

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