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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 134 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 134/ मन्त्र 2
    ऋषिः - मान्धाता यौवनाश्वः देवता - इन्द्र: छन्दः - महापङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    अव॑ स्म दुर्हणाय॒तो मर्त॑स्य तनुहि स्थि॒रम् । अ॒ध॒स्प॒दं तमीं॑ कृधि॒ यो अ॒स्माँ आ॒दिदे॑शति दे॒वी जनि॑त्र्यजीजनद्भ॒द्रा जनि॑त्र्यजीजनत् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अव॑ । स्म॒ । दुः॒ऽह॒ना॒य॒तः । मर्त॑स्य । त॒नु॒हि॒ । स्थि॒रम् । अ॒धः॒ऽप॒दम् । तम् । ई॒म् । कृ॒धि॒ । यः । अ॒स्मान् । आ॒ऽदिदे॑शति । दे॒वी । जनि॑त्री । अ॒जी॒ज॒न॒त् । भ॒द्रा । जनि॑त्री । अ॒जी॒ज॒न॒त् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अव स्म दुर्हणायतो मर्तस्य तनुहि स्थिरम् । अधस्पदं तमीं कृधि यो अस्माँ आदिदेशति देवी जनित्र्यजीजनद्भद्रा जनित्र्यजीजनत् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अव । स्म । दुःऽहनायतः । मर्तस्य । तनुहि । स्थिरम् । अधःऽपदम् । तम् । ईम् । कृधि । यः । अस्मान् । आऽदिदेशति । देवी । जनित्री । अजीजनत् । भद्रा । जनित्री । अजीजनत् ॥ १०.१३४.२

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 134; मन्त्र » 2
    अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 22; मन्त्र » 2
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (दुर्हणायतः) दुःख से हनन करते हुए (मर्तस्य) मनुष्य के (स्थिरम्-अव तनुहि) दृढ़बल को नीचे-कर (तम्-ईम्) उसको (अधस्पदं कृधि) पैरों के नीचे कुचल (यः-अस्मान्) जो हमें (आदिदेशति) हम पर शस्त्र फेंकता है, इसलिए (जनित्री देवी०) पूर्ववत् ॥२॥

    भावार्थ

    दुःख देकर मारनेवाले मनुष्य के बल को नीचे करना चाहिए और उसे पैरों के नीचे कुचल देना चाहिए, जो शस्त्रास्त्रों से आक्रमण करता है॥२।

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    विषय

    शत्रु-शातन प्रभु

    पदार्थ

    [१] (दुर्हणायतः) = बुरी तरह से घातपात करनेवाले (मर्तस्य) = मनुष्य के (स्थिरम्) = स्थिर शक्ति को (अवतनुहि स्म) = निश्चय से तितर-बितर कर दीजिये । (तम्) = उस शत्रु को (ईम्) = निश्चय से (अधस्पदं कृधि) = पादाक्रान्त करिये (यः) = जो (अस्मान्) = हमें (आदिदेशति) = [जिघांसति] नष्ट करना चाहता है, हमें लक्ष्य करके घातक अस्त्रों का अतिसर्जन करता है । [२] इस प्रकार प्रभु आस्तिक व्यक्तियों का रक्षण करते हैं, और इन घातपात की वृत्तिवालों का विनाश करते हैं । यह देवी (जनित्री) = व्यवहार साधिका जन्मदात्री प्रकृति प्रभु की महिमा को (अजीजनत्) = प्रकट करती हैं । (भद्रा) = यह कल्याण व सुख को प्राप्त करानेवाली (जनित्री) = उत्पादक प्रकृति (अजीजनत्) = एक-एक पदार्थ में प्रभु की महिमा को व्यक्त कर रही है। 'सम्पूर्ण संसार में किस प्रकार अत्याचार करनेवाला स्वयं उन अत्याचारों का शिकार हो जाता है' यह देखकर उस प्रभु की महिमा विचित्र ही प्रतीत होती है।

    भावार्थ

    भावार्थ - अत्याचारियों का विनाश प्रभु ही करते हैं ।

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    विषय

    दुष्टों के दण्ड करने की प्रार्थना।

    भावार्थ

    (दुः-हनायतः मर्त्तस्य) दुःखदायी रूप से हिंसा करने वाले दुष्ट पुरुष के (स्थिरम्) दृढ़ बल को (अव तनुहि) नीचे गिरा। और (यः अस्मान् आदिदेशति) जो हम पर हुक्म चलाता हो, (तम् ईम्) उस दुष्ट पुरुष को भी (अधः पदम् कृधि) हमारे चरणों के नीचे कर। (देवी जनित्री० इत्यादि) पूर्ववत्।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः मान्धाता यौवनाश्वः। ६, ७ गोधा॥ इन्द्रो देवता॥ छन्द:—१—६ महापंक्तिः। ७ पंक्तिः॥ सप्तर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (दुर्हणायतः-मर्तस्य स्थिरम्-अव-तनुहि) दुःखेन हननं कुर्वतो मनुष्यस्य दृढं बलमवतारय नीचीनं कुरु नाशय (तम्-ईम्-अधस्पदं कृधि) तं हि पादयोरधः कुरु नीचैर्निपातय (यः-अस्मान्-आदिदेशति) योऽस्मान् प्रति शस्त्रास्त्राणि प्रेरयति, एतदर्थमेव (जनित्री देवी०) पूर्ववत् ॥२॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Strike down the adamantine stubbornness of the mortal enemy who wickedly injures the law and order of the system. Crush him down to naught who suppresses us and enslaves us. The divine mother create you, the gracious mother elevates you in glory as the great ruler.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जो शस्त्रास्त्रांनी आक्रमण करतो त्याला पायाखाली तुडविले पाहिजे. दु:ख देणाऱ्या माणसाचे बळ कमी केले पाहिजे. ॥२॥

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