ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 134/ मन्त्र 4
ऋषिः - मान्धाता यौवनाश्वः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - महापङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
अव॒ यत्त्वं श॑तक्रत॒विन्द्र॒ विश्वा॑नि धूनु॒षे । र॒यिं न सु॑न्व॒ते सचा॑ सह॒स्रिणी॑भिरू॒तिभि॑र्दे॒वी जनि॑त्र्यजीजनद्भ॒द्रा जनि॑त्र्यजीजनत् ॥
स्वर सहित पद पाठअव॑ । यत् । त्वम् । श॒त॒ऽक्र॒तो॒ इति॑ शतऽक्रतो । इन्द्र॑ । विश्वा॑नि । धू॒नु॒षे । र॒यिम् । न । सु॒न्व॒ते । सचा॑ । स॒ह॒स्रिणी॑भिः । ऊ॒तिऽभिः॑ । दे॒वी । जनि॑त्री । अ॒जी॒ज॒न॒त् । भ॒द्रा । जनि॑त्री । अ॒जी॒ज॒न॒त् ॥
स्वर रहित मन्त्र
अव यत्त्वं शतक्रतविन्द्र विश्वानि धूनुषे । रयिं न सुन्वते सचा सहस्रिणीभिरूतिभिर्देवी जनित्र्यजीजनद्भद्रा जनित्र्यजीजनत् ॥
स्वर रहित पद पाठअव । यत् । त्वम् । शतऽक्रतो इति शतऽक्रतो । इन्द्र । विश्वानि । धूनुषे । रयिम् । न । सुन्वते । सचा । सहस्रिणीभिः । ऊतिऽभिः । देवी । जनित्री । अजीजनत् । भद्रा । जनित्री । अजीजनत् ॥ १०.१३४.४
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 134; मन्त्र » 4
अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 22; मन्त्र » 4
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अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 22; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(शतक्रतो-इन्द्र) हे असंख्य कर्मवाले राजन् ! (त्वं यत्) तू जो (विश्वानि) सब धनों को (अव धूनुषे) स्वाधीन करता है, तो (सुन्वते रयिं न) राज्य शुल्क को देने के लिए (सहस्रिणीभिः-ऊतिभिः) असंख्य रक्षाओं से (सचा) भाग्यधन दे (देवी०) पूर्ववत् ॥४॥
भावार्थ
बहुत कर्मशक्तिवाला राजा समस्त धनों को अपने अधीन करे, राज्यशुल्क देनेवाले के लिए धन का भाग देवे ॥४॥
विषय
दाता प्रभु
पदार्थ
[१] हे (शतक्रतो) = अनन्त शक्ति व प्रज्ञानवाले प्रभो ! (इन्द्र) = शत्रु विद्रावक प्रभो ! (यत्) = जब (त्वम्) = आप (विश्वानि) = हमारे न चाहते हुए भी हमारे अन्दर आ जानेवाली इन [दुरितानि] बुराइयों को (अवधूनुषे) = कम्पित करके दूर करते हैं। (नः च) = और (सुन्वते) = यज्ञशील पुरुष के लिए (सहस्रिणीभिः ऊतिभिः) = हजारों रक्षणों के (सचा) = साथ (रयिम्) = धन को प्राप्त कराते हैं । [२] तो उन सब बुराइयों को दूर करने के कार्यों में रक्षण व्यवस्थाओं में, धनों के दान में यह (देवी) = व्यवहार-साधिका जनित्री उत्पादिका प्रकृति (अजीजनत्) = आपकी महिमा को प्रकट करती है । (भद्रा) = यह कल्याण करनेवाली (जनित्री) = उत्पादिका प्रकृति (अजीजनत्) = आपकी महिमा को व्यक्त करती है।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभु शत्रु - विद्रावक हैं, रक्षक हैं, सब धनों के दाता हैं।
विषय
ऐश्वर्य की प्रार्थना।
भावार्थ
हे (शत-क्रतो) सैकड़ों कर्म बल, ज्ञान सामर्थ्यों वाले ! हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन् ! तू (विश्वानि) सब तत्वों को (अव धूनुषे) सञ्चालित करता है, और (सहस्र-णीभिः ऊतिभिः) सहस्रों सुखों को प्राप्त कराने वाली रक्षाओं से (सुन्वते) अपने उपासक को (रयिं न अव सुन्वते) ऐश्वर्य भी प्रदान करता है। (देवी जनित्री०) इत्यादि पूर्ववत् ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः मान्धाता यौवनाश्वः। ६, ७ गोधा॥ इन्द्रो देवता॥ छन्द:—१—६ महापंक्तिः। ७ पंक्तिः॥ सप्तर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(शतक्रतो-इन्द्र) हे असङ्ख्य-कर्मवन् राजन् ! (त्वं यत्-विश्वानि-अव धूनुषे) त्वं यतः सर्वाणि धनानि स्वाधीनीकरोषि ततः (सुन्वते रयिं न) राज्यं शुल्कं सुन्वति-प्रयच्छति तस्मै सम्प्रति ‘नकारः-सम्प्रत्यर्थे’ (सहस्रिणीभिः-ऊतिभिः-सचा) बह्वीभी रक्षाभिः सह भाग्यधनं प्रयच्छसीति शेषः (देवी०) पूर्ववत् ॥४॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Indra, lord of a hundred powers, actions and achievements, when you move and exploit the resources of the world’s possibilities by thousands of protective and regenerative techniques and grant the benefits of wealth to the creative partners in the developmental yajna, then the divine mother elevates you to honour, the gracious mother exalts you to glory.
मराठी (1)
भावार्थ
अत्यंत कर्मशील राजाने संपूर्ण धन आपल्या अधीन ठेवावे. राज्यशुल्क देणाऱ्यासाठी धनाचा भाग द्यावा. ॥४॥
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