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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 134 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 134/ मन्त्र 7
    ऋषिः - गोधा देवता - इन्द्र: छन्दः - पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः

    नकि॑र्देवा मिनीमसि॒ नकि॒रा यो॑पयामसि मन्त्र॒श्रुत्यं॑ चरामसि । प॒क्षेभि॑रपिक॒क्षेभि॒रत्रा॒भि सं र॑भामहे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    नकिः॑ । दे॒वाः॒ । मि॒नी॒म॒सि॒ । नकिः॑ । आ । यो॒प॒या॒म॒सि॒ । म॒न्त्र॒ऽश्रुत्य॑म् । च॒रा॒म॒सि॒ । प॒क्षेभिः॑ । अ॒पि॒ऽक॒क्षेभिः॑ । अत्र॑ । अ॒भि । सम् । र॒भा॒म॒हे॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    नकिर्देवा मिनीमसि नकिरा योपयामसि मन्त्रश्रुत्यं चरामसि । पक्षेभिरपिकक्षेभिरत्राभि सं रभामहे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    नकिः । देवाः । मिनीमसि । नकिः । आ । योपयामसि । मन्त्रऽश्रुत्यम् । चरामसि । पक्षेभिः । अपिऽकक्षेभिः । अत्र । अभि । सम् । रभामहे ॥ १०.१३४.७

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 134; मन्त्र » 7
    अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 22; मन्त्र » 7
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    हिन्दी (4)

    पदार्थ

    (देवाः) विद्वान् जन ! (नकिः) नहीं (मिनीमसि) हिंसित करते हैं (आ) और (नकिः-योपयामसि) नहीं धर्मकृत्य का लोप करते हैं (मन्त्रश्रुत्यं चरामसि) मन्त्रों से जो सुना, वैसा आचरण करते हैं (पक्षेभिः) अपने सहयोगियों द्वारा तथा (अपि कक्षेभिः) और कक्षगत पुत्रादियों के साथ (अत्र) इस राष्ट्र में (अभि संरभामहे) हम कर्तव्यसंलग्न रहते हैं  ॥७॥

    भावार्थ

    राष्ट्रवासी जन राष्ट्र के अन्दर रहते हुए-किसी की हिंसा न करें, न वैदिक आचरणों का लोप करें, किन्तु साथियों और पुत्रादि के सहित राष्ट्र में कर्तव्यसंलग्न रहें, राष्ट्र की सुख शान्ति के लिए ॥७॥

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    विषय

    वैदिक शिक्षाओं के अनुसार आचरण

    शब्दार्थ

    ( देवा:) हे दिव्यगुणयुक्त विद्वानो ! हम लोग (नकि: ) न तो (मिनीमसि ) हिंसा करते हैं (नकि:) और न ही (आ, योपयामसि) फूट डालते है, अथवा किसीको प्रलोभन देते हैं। हम तो (मन्त्रश्रुत्यम् ) वेद-मन्त्रों के श्रवणानुसार (चरामसि) आचरण करते हैं (अत्र) इस लोक में (कक्षेभिः) तिनके के समान तुच्छ (पक्षेभिः) साथियों के साथ (अपि) भी (अभि,सं,रभामहे) प्रेम से मिलकर उद्योग करें, करते हैं ।

    भावार्थ

    वेद की शिक्षाएँ अत्यन्त गहन, गम्भीर और उदात्त हैं । वेदाध्ययन करनेवाले का जीवन वेद के अनुसार होना चाहिए । कैसा हो वह जीवन ? १. वेदाध्ययन करनेवाले किसीकी हिंसा नहीं करते । मन, वचन और कर्म से किसी भी प्राणी के प्रति वैर की भावना नहीं रखते। २. वैदिकधर्मी फूट नही डालते और न ही किसी व्यक्ति को मोहित करके प्रलोभनों में फँसाते हैं । ३. वेदभक्त मन्त्रों के अनुसार, वैदिक शिक्षाओं के अनुसार अपने जीवन का निर्माण करते हैं । वे वेद के विधि और निषेधों का पूर्णरूपेण पालन करते हैं । ४. वेदभक्त तुच्छ सहायकों के साथ भी प्रेम और समता का व्यवहार करते हैं । ५. वैदिकधर्मी आलसी नहीं होता अपितु, वह सदा-सर्वदा उद्योग करता रहता है ।

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    विषय

    मन्त्रश्रुत्यं चरामसि

    पदार्थ

    [१] गत मन्त्र के अनुसार (यम) = नियन्ता बनकर (देवाः) = हे देवो ! हम (नकिः मिनीमसि) = नाममात्र भी कर्तव्य को हिंसित नहीं करते हैं। (नकिः) = ना ही (आयोपयामसि) = [obliterate, blot out ] प्रमादवश किसी कर्त्तव्य को विस्मृत करते हैं । (मन्त्रश्रुत्यम्) = मन्त्रों में सुने गये अपने कर्त्तव्यों का (चरामसि) = पालन करते हैं । [२] (पक्षेभिः) = ज्ञानों के परिग्रहों से, अधिक से अधिक ज्ञान के ग्रहण के द्वारा (अपिकक्षेभिः) = कटिबद्धताओं के द्वारा, कर्त्तव्यों को करने के लिए कमर को कसने के द्वारा (अत्र) = यहाँ जीवन में (अभिसंरभामहे) = हम अभ्युदय व निःश्रेयस दोनों के दृष्टिकोणों से [अभि] कार्यों का प्रारम्भ करते हैं। ज्ञान व दृढ़ निश्चय से किये गये कार्य अवश्य सफल होते ही हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ - अपना नियमन करते हुए हम कर्त्तव्यों का पालन करते हैं। श्रुति के प्रतिकूल हमारा आचरण नहीं होता। ज्ञान व दृढ़निश्चय के साथ हम ऐहिक व आमुष्मिक धर्म का पालन करते हैं । सूक्त की संक्षेप में भावना यह है कि यदि हम अपने आचरण को अच्छा बनायेंगे तो प्रकृति का एक-एक पिण्ड हमारे लिए उस प्रभु की महिमा को व्यक्त करेगा । सो हमें यम, यम ही क्या 'यामायन' [यमस्य अपत्यम्] बनना चाहिए। यह यामायन 'कुमार' होता है । सब बुराइयों को मारनेवाला बनता है। यह 'यामायन कुमार' ही अगले सूक्त का ऋषि है। इस यम का वर्णन करते हुए कहते हैं कि-

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    विषय

    विधि विधानानुसार यज्ञादि कार्य करने का आदेश।

    भावार्थ

    गोधानाम्नी ब्रह्मवादिनी, ऋषिः। हे (देवाः) विद्वान् पुरुषो ! (नकिः मिनीमसि) हम किसी की हिंसा न करें। (नकिः आयोपयामसि) हम किसी बात की गड़बड़ न करें। (पक्षेभिः अपिकक्षेभिः) पक्षों, ग्रहण करने योग्य अपनों, वा स्ववेद शाखा-प्रशाखाध्यायियों और कक्षों, सहयोगियों सहित (अत्र अभि संरभामहे) इस लोक में प्रेम से समस्त कार्य करें और उत्तम फल प्राप्त करें। इति द्वाविंशो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः मान्धाता यौवनाश्वः। ६, ७ गोधा॥ इन्द्रो देवता॥ छन्द:—१—६ महापंक्तिः। ७ पंक्तिः॥ सप्तर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (देवाः) हे विद्वांसः ! (नकिः-मिनीमसि) न हि वयं हिंस्मः (आ) अथ च ‘आकारः समुच्चयार्थः’ “एतस्मिन्नेवार्थे समुच्चये-आकारः” [निरु० १।५] (नकिः-योपयामसि) नैव धर्मकृत्यं लोपयामः (मन्त्रश्रुत्यं-चरामसि) मन्त्रैर्यत् खलु श्रुतं तदनुरूपं कर्माचरामः (पक्षेभिः-अपिकक्षेभिः) स्वसहयोगिभिः सह तथा कक्षगतैः पुत्रादिभिः सह (अत्र) अस्मिन् राष्ट्रे (अभि सं रभामहे) कर्त्तव्यसंरताः स्मः ॥७॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    O devas, divinities of nature and nobilities of humanity, we never transgress the law, never frustrate any plan, never violate the order, never act surrep titiously. (We are an open minded people), we follow the law, and act according to the divine mantra, tradition and mantric declaration of the principles and policies of the order. In matters of the social order we love and cooperate with all parties of our view as well as with others whether they are rivals or people on the periphery.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    राष्ट्रवासी लोकांनी राष्ट्रात कुणाची हिंसा करू नये. वैदिक आचरणाचा लोप करू नये. राष्ट्राच्या सुखशांतीसाठी मित्र व पुत्र इत्यादी सहित राष्ट्रात कर्तव्य संलग्न असावे. ॥७॥

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