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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 137 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 137/ मन्त्र 3
    ऋषिः - सप्त ऋषय एकर्चाः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - निचृदनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    आ वा॑त वाहि भेष॒जं वि वा॑त वाहि॒ यद्रप॑: । त्वं हि वि॒श्वभे॑षजो दे॒वानां॑ दू॒त ईय॑से ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । वा॒त॒ । वा॒हि॒ । भे॒ष॒जम् । वि । वा॒त॒ । वा॒हि॒ । यत् । रपः॑ । त्वम् । हि । वि॒श्वऽभे॑षजः । दे॒वाना॑म् । दू॒तः । ईय॑से ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ वात वाहि भेषजं वि वात वाहि यद्रप: । त्वं हि विश्वभेषजो देवानां दूत ईयसे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ । वात । वाहि । भेषजम् । वि । वात । वाहि । यत् । रपः । त्वम् । हि । विश्वऽभेषजः । देवानाम् । दूतः । ईयसे ॥ १०.१३७.३

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 137; मन्त्र » 3
    अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 25; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (वात भेषजम्-आ वाहि) हे वायु स्वास्थ्यप्रद औषधरूप गुण को ला (वात यत्-रपः-वि वाहि) हे वायु ! जो दुःख रोग है, उसे परे कर अलग कर (त्वं हि-सर्वभेषजः) तू ही सर्व ओषधिवाला है (देवानां दूतः-ईयसे) दिव्यगुणों का दूत जैसे तू गति करता है ॥३॥

    भावार्थ

    शरीर के अन्दर रहनेवाला वायु स्वास्थ्यप्रद गुण को लाता है और शरीर से बाहर निकलनेवाला रोग को बाहर ले जाता है, इस प्रकार वायु ही सब-ओषधवाला दिव्य-गुणों का लानेवाला है ॥३॥

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    विषय

    भेषज प्रापक 'वात'

    पदार्थ

    [१] (वात) = प्राणायाम के द्वारा अन्दर प्राप्त कराये जानेवाली वायु ! तू (भेषजं आवाहि) = रोगों के औषध को हमें प्राप्त करा । और हे (वात) = बाहर फेंके जानीवाली वायु ! तू (यद्रपः) = जो भी दोष है, उसे (वि वाहि) = बाहर ले जा । [२] हे वायो ! (त्वम्) = तू (हि) = ही (भेषजः) = सब रोगों की औषध है । वस्तुतः (देवानां दूतः) = सब देवों का दूत बनकर हे वायो ! तू (ईयसे) = गति करती है। वायु सब देवों की अधिष्ठान को ठीक बना देती है और अधिष्ठानों के ठीक होने से देवों का वहाँ उपस्थान होता है। इस प्रकार यह वायु देवों का दूत बनती है। वह आती है, सब स्थानों को ठीक कर देती है और सब देव ठीक से अपने-अपने स्थान पर आकर सुशोभित होते हैं । यही पूर्ण स्वास्थ्य है ।

    भावार्थ

    भावार्थ- वायु प्राणायाम के द्वारा शरीर में कार्य करती हुई उसे निर्दोष बनाती है ।

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    विषय

    रोगनाशक वायु का वर्णन।

    भावार्थ

    हे (वात) वायो ! तू (भेषजं आ वाहि) व्याधि शान्त करने वाला बल प्रदान कर, (यत् रपः) जो रोगकारी मल हो उसको (वि वाहि) विविध प्रकार से निकाल। (त्वं) तू (विश्व-भेषजः) समस्त रोगों को दूर करने वाला, (देवानां दूतः) सब उत्तम तेजों या गुणों, सुखों को प्राप्त कराने वाला है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः सप्त ऋषय एकर्चाः॥ विश्वेदेवा देवताः॥ छन्द:- १, ४, ६ अनुष्टुप्। २, ३, ५, ७ निचृदनुष्टुप्॥ सप्तर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (वात भेषजम्-आ वाहि) हे वायो ! भेषजं स्वास्थ्यप्रदमौषधं गुणं वा-आनय (वात यत्-रपः-वि वाहि) हे वायो ! यद्दुःखं रोगकरं तत् पृथक् नय (त्वं हि विश्वभेषजः) त्वं हि सर्वौषधवान् (देवानां दूतः-ईयसे) देवानां दिव्यगुणानां दूत इव गच्छसि ॥३॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    O breeze of fresh life, bring in the healing balm, blow out whatever is sinful and polluted. You blow as the divine breath of life and freshness, and you alone bring in the universal sanative.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    शरीरात राहणारा वायू स्वास्थ्यप्रद गुण आणतो व शरीरातून बाहेर निघणारा रोग बाहेर घेऊन जातो. या प्रकारे वायूच सर्व औषधीयुक्त दिव्य गुण आणणारा आहे. ॥३॥

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