ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 139/ मन्त्र 4
ऋषिः - विश्वावसुर्देवगन्धर्वः
देवता - सविता
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
वि॒श्वाव॑सुं सोम गन्ध॒र्वमापो॑ ददृ॒शुषी॒स्तदृ॒तेना॒ व्या॑यन् । तद॒न्ववै॒दिन्द्रो॑ रारहा॒ण आ॑सां॒ परि॒ सूर्य॑स्य परि॒धीँर॑पश्यत् ॥
स्वर सहित पद पाठवि॒श्वऽव॑सुम् । सो॒म॒ । ग॒न्ध॒र्वम् । आपः॑ । द॒दृ॒शुषीः॑ । तत् । ऋ॒तेन॑ । वि । आ॒य॒न् । तत् । अ॒नु॒ऽअवै॑त् । इन्द्रः॑ । र॒र॒हा॒णः । आ॒सा॒म् । परि॑ । सूर्य॑स्य । प॒रि॒ऽधीन् । अ॒प॒श्य॒त् ॥
स्वर रहित मन्त्र
विश्वावसुं सोम गन्धर्वमापो ददृशुषीस्तदृतेना व्यायन् । तदन्ववैदिन्द्रो रारहाण आसां परि सूर्यस्य परिधीँरपश्यत् ॥
स्वर रहित पद पाठविश्वऽवसुम् । सोम । गन्धर्वम् । आपः । ददृशुषीः । तत् । ऋतेन । वि । आयन् । तत् । अनुऽअवैत् । इन्द्रः । ररहाणः । आसाम् । परि । सूर्यस्य । परिऽधीन् । अपश्यत् ॥ १०.१३९.४
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 139; मन्त्र » 4
अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 27; मन्त्र » 4
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अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 27; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(सोम) हे सोमस्वभाव जिज्ञासु ! (विश्वावसुं गन्धर्वम्) विश्व को बसानेवाले या विश्व में बसनेवाले, वेदवाणी या पृथिवी को धारण करनेवाले परमात्मा को (आपः-ददृशुषीः) आप्तप्रजाएँ दर्शनशक्तिवाली परमात्मा को देखती हैं (तत्-ऋतेन-वि-आयन्) उस दर्शन को अध्यात्मयज्ञ से विशिष्टरूप में प्राप्त करते हैं (तत्-इन्द्रः-अन्ववैत्) उसे आत्मा अनुभव करता है (आसां रारहाणः) जो इन आप्त प्रजाओं के मध्य में विषयभोग का त्याग करनेवाला होता है, (सूर्यस्य परिधीन् परि-अपश्यत्) वह सूर्य की सब ओर से धारण करने योग्य रश्मियों को देखता है, सूर्य की रश्मियों द्वारा अमृत पुरुष के पास जाता है ॥४॥
भावार्थ
परमात्मा विश्व में बसा हुआ व्यापक पृथिवी आदि लोकों का धारण करनेवाला है, उसे आप्त प्रजाएँ देखती हैं, साक्षात् करती हैं और जो उनमें से विषयभोगों से विरक्त हो जाता है, उसे अपने अन्दर अनुभव करता है, वह सूर्यकिरणों द्वारा परमात्मा के पास पहुँचता है ॥४॥
विषय
ऋत के मार्ग से चलना
पदार्थ
[१] (आप:) = प्रजाएँ जब (विश्वावसुम्) = सब वसुओंवाले, सब वसुओं के स्वामी सोम (गन्धर्वम्) = सोम [वीर्य] शक्ति तथा [ गां धारयति] वेदवाणी के धारण करनेवाले प्रभु को (ददृशुषी:) = देखनेवाली होती हैं (तद्) = तब (ऋतेन) = ऋत से, सत्य से (व्यायन्) = विविध गतियोंवाली होती है । प्रभु-दर्शन करनेवाली प्रजाएँ अनृत से गति कर ही कैसे सकती हैं ? ये प्रजाएँ प्रभु को सब वसुओं [धनों] के स्वामी के रूप में देखती हैं । और ये समझती हैं कि प्रभु ही हमारे में सोम शक्ति व वेदज्ञान को स्थापित करते हैं । एवं प्रभु ही हमें वीर्यवान् [शक्तिशाली] व ज्ञानी बनाते हैं। [२] (आसाम्) = इन प्रजाओं में (तद्) = उस प्रभु को (रारहाण:) = खूब ही त्याग करता हुआ (इन्द्रः) = जितेन्द्रिय पुरुष (अनु अवैत्) = त्याग व जितेन्द्रियता के अनुपात में जान पाता है। प्रभु के ज्ञान के लिये संसार की वस्तुओं का त्याग आवश्यक है, त्याग के लिए जितेन्द्रियता की आवश्यकता है । यह त्यागी जितेन्द्रिय पुरुष (सूर्यस्य परिधीन्) = ज्ञानसूर्य की परिधियों को पर्यपश्यत् देखता है, अर्थात् इसका ज्ञान चरमसीमा तक पहुँच जाता है, अधिक से अधिक ज्ञानवाला यह होता है ।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभु को सब धनों के स्वामी तथा शक्ति व ज्ञान के स्थापक के रूप में देखता हुआ ज्ञानी ऋत के मार्ग से ही चलता है। प्रभु ज्ञान के लिए त्याग व जितेन्द्रियता आवश्यक हैं। यह त्यागी जितेन्द्रिय पुरुष ऊँचा ज्ञानी बनता है ।
विषय
सूर्य के प्रति जाते हुए वाष्पमय जलों के तुल्य प्रभु के प्रति जाते हुए उपासकों का वर्णन। सूर्यानुसारी वायु के समान प्रभु का देवानुगमन।
भावार्थ
हे (सोम) विद्वन् ! (विश्वावसुम्) समस्त लोकों को वसाने वाले, सब में बसने वाले, (गन्धर्वम्) वाणी, ध्वनि, गर्जना को वा पृथिवी को धारण करने वाले सूर्य की ओर जिस प्रकार (आपः ऋतेन वि आयन्) जल के परमाणु उसके तेज के बल से जाते हैं उसी प्रकार (तत्) उस परम प्रभु को (ददृशुषीः आपः) साक्षात् करने वाले आप्त जन (ऋतेन) सत्य ज्ञान के बल से उसे ही (चि आयन्) विविध उपायों से प्राप्त होते हैं। और जिस प्रकार (रारहाणः इन्द्रः तत् अनु अवैत्) वेग से गति करने वाला वायु उस सूर्य के ही अनुकूल चलता है और (सूर्यस्य परि आसाम् परिधीन् अपश्यत्) सूर्य के चारों ओर इन जलों के परिधियों, परिमण्डलों को दिखाता है उसी प्रकार (ररहाणः इन्द्रः) समस्त भोग विलासादि को त्यागने वाला आत्मा, सर्वस्व त्यागी होकर (तत् अनु अवैत्) उसी का अनुसरण करता, उसी का ज्ञान करता है और (आसाम् परि) इन समस्त प्रजाओं के भी ऊपर (सूर्यस्य परिधीन्) तू उस सूर्य, सर्वसञ्चालक प्रभु के धारक बलों का (अपश्यत्) दर्शन करता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः विश्वावसुर्देवगन्धर्वः॥ देवता—१—३ सविता। ४-६ विश्वावसुः॥ छन्दः–१, २, ४–६ त्रिष्टुप्। ३ विराट् त्रिष्टुप्॥ षडृच सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(सोम) हे सोम्यस्वभाव जिज्ञासो ! (विश्वावसुं गन्धर्वम्) विश्वं वासयति-विश्वस्मिन् वसति वा यस्तम् “विश्वावसुः-विश्वं वासयति यः सः” [यजु० २।३ दयानन्दः] गां वेदवाचं पृथिवीं वा धरति धारयति यस्तं परमात्मानम् (आपः-ददृशुषीः) आप्तप्रजाः “मनुष्या वा-आपश्चन्द्राः” [श० ७।३।१।२०] दृष्टवत्यः-दर्शनं शक्तिमत्यः पश्यन्ति “दृशधातोर्लिटि क्वसु स्त्रियां ङीप्” “उगितश्च” [अष्टा० ४।१।६] (तत्-ऋतेन वि-आयन्) तद्दर्शनमध्यात्मयज्ञेन-विशिष्टं प्राप्नुवन्ति (तत्-इन्द्रः-अन्ववैत्) तस्मात्-तथा-आत्माऽनुभवति (आसां रारहाणः) य आसामाप्तप्रजानां मध्ये विषयभोगस्य त्यक्ता भवति “रारहाणाः-त्यक्तारः” [ऋ० १।१६४।११ दयानन्दः] (सूर्यस्य परिधीन् परि-अपश्यत्) सः सूर्यस्य परितो धीयमानान् रश्मीन् परिपश्यति “सूर्यद्वारेण ते विरजाः प्रयान्ति यत्रामृतः स पुरुषोऽव्ययात्मा” [मुण्ड० १।२।११] ॥४॥
इंग्लिश (1)
Meaning
O Soma, blessed seeker, just as vapours of water rise up by the heat of yajna and reach the sun, sustainer of the earth and life giver of the world, similarly self- realising souls by meditative yajna rise to the cosmic soul, and just as dynamic wind energy moves in consonance with the sun to the vaporous halo round the sun, similarly self-realising souls watch the cosmic halo round divinity, and the exceptional soul, having stayed existential complexities, reaches the divine presence at the centre of the halo.
मराठी (1)
भावार्थ
परमात्मा विश्वात व्यापक पृथ्वी इत्यादी लोकांना धारण करणारा आहे. त्याला आप्त प्रजा पाहते, साक्षात करते. त्यांच्यामधून जो विषयभोगातून विरक्त होतो. त्याला तो आपल्यामध्ये अनुभूत करतो. तो सूर्य किरणांद्वारे परमात्म्याजवळ पोचतो. ॥४॥
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