ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 139/ मन्त्र 6
ऋषिः - विश्वावसुर्देवगन्धर्वः
देवता - सविता
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
सस्नि॑मविन्द॒च्चर॑णे न॒दीना॒मपा॑वृणो॒द्दुरो॒ अश्म॑व्रजानाम् । प्रासां॑ गन्ध॒र्वो अ॒मृता॑नि वोच॒दिन्द्रो॒ दक्षं॒ परि॑ जानाद॒हीना॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठसस्नि॑म् । अ॒वि॒न्द॒त् । चर॑णे । न॒दीना॑म् । अप॑ । अ॒वृ॒णो॒त् । दु॒रः॑ । अश्म॑ऽव्रजानाम् । प्र । आ॒सा॒म् । ग॒न्ध॒र्वः । अ॒मृता॑नि । वो॒च॒त् । इन्द्रः॑ । दक्ष॑म् । परि॑ । जा॒ना॒त् । अ॒हीना॑म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
सस्निमविन्दच्चरणे नदीनामपावृणोद्दुरो अश्मव्रजानाम् । प्रासां गन्धर्वो अमृतानि वोचदिन्द्रो दक्षं परि जानादहीनाम् ॥
स्वर रहित पद पाठसस्निम् । अविन्दत् । चरणे । नदीनाम् । अप । अवृणोत् । दुरः । अश्मऽव्रजानाम् । प्र । आसाम् । गन्धर्वः । अमृतानि । वोचत् । इन्द्रः । दक्षम् । परि । जानात् । अहीनाम् ॥ १०.१३९.६
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 139; मन्त्र » 6
अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 27; मन्त्र » 6
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अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 27; मन्त्र » 6
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(गन्धर्वः-इन्द्रः) वाक्पति परमात्मा (नदीनां चरणे) शब्द करती हुई वाणियों के प्रचार के निमित्त (सस्निम्) ज्ञानामृत भरे हुए वेद को (अविन्दत्) प्राप्त किये हुए है (अश्मव्रजानाम्) व्यापक परमात्मा वज्र-आश्रय जिनका है, उन वेदवाणियों के (दुरः-अप आवृणोत्) द्वारों को खोल देता है (आसाम्-अमृतानि) उनके ज्ञानामृतों का (प्र वोचत्) प्रवचन करता है (अहीनाम्) आहन्तव्य भलीभाँति हनन करने योग्य विविध अज्ञानों-पापों के लिए (दक्षं परि जानात्) अपने बल को पूर्णरूप से लगाता है, उन्हें बल से नष्ट करता है ॥६॥
भावार्थ
परमात्मा ज्ञानों से भरे वेद को धारण करता है और उपदेश द्वारा द्वारों को खोलता है, इन मन्त्रवाणियों के ज्ञानामृतों का प्रवचन करता है, अज्ञान या पापों को मिटाने के लिए मनुष्य को बल प्राप्त करना चाहिये ॥६॥
विषय
वह शोधक प्रभु
पदार्थ
[१] (नदीनाम्) = [नदिः - स्तोता ] स्तोताओं के (चरणे) = चरण में (सस्त्रिम्) = उस शुद्ध करनेवाले प्रभु को (अविन्दत्) = प्राप्त करता है। स्तोताओं के समीप विनीतता से बैठकर, प्रभु की चर्चा करने पर हम भी प्रभु का कुछ आभास पानेवाले बनते हैं। इस प्रभु की ओर झुकाव के कारण हमारे जीवन शुद्ध होते हैं। वे प्रभु 'सस्त्रि' हैं, हमारे जीवनों को स्नात कर देते हैं। जैसे स्नान से सब स्वेदमल दूर हो जाता है, इसी प्रकार प्रभु ध्यान में स्नान करने से वासनारूप मल धुल जाते हैं [२] यह (अश्मव्रजानाम्) = [अश्माभवतु न स्तनूः] पाषाणतुल्य दृढ़ शरीररूप बाड़ेवाली, अर्थात् इधर-उधर न भटककर शरीर में स्थित होनेवाली इन्द्रियों के (दुर:) = द्वारों को (अपावृणोत्) = अपावृत करता है । उनको अपने वश में करता हुआ उन्हें अपने-अपने कार्यों में सुचारुरूपेण प्रवृत्त करता है। कर्मेन्द्रियों के द्वारा इसमें शक्ति का वर्धन होता है, तो ज्ञानेन्द्रियों के द्वारा यह ज्ञान का वर्धन करनेवाला बनता है। [३] यह व्यक्ति (गन्धर्वः) = ज्ञान की वाणियों का धारण करनेवाला बनता हुआ (आसाम्) = इन वेदवाणियों के अमृतानि अमृत वचनों का (प्रवोचत्) = प्रकर्षेण उच्चारण करता है। यह इस उच्चारण को इसलिए करता है कि यह (इन्द्रः) = जितेन्द्रिय पुरुष (अहीनाम्) = [आहन्ति] इन आक्रमण करनेवाली वासनाओं के (दक्षम्) = बल को (परिजानात्) = अच्छी प्रकार जानता है। इनके प्रबल आक्रमण से बचने के लिए ज्ञान की वाणियों का उच्चारण आवश्यक ही है।
भावार्थ
भावार्थ- हमें उपासकों का सम्पर्क प्राप्त हो । इन्द्रियों को अपने वश में करके इनको हम स्वकार्यरत रखें। वेदवाणियों का उच्चारण करें और वासनाओं के आक्रमण से बचें। सूक्त का मूलभाव यही है कि हम शक्ति व ज्ञान का संचय करते हुए इस संसार में आसक्त न हों। प्रभु का उपासन करते हुए अपने जीवनों को पवित्र बनाएँ। यह अपने को पवित्र बनानेवाला ही 'पावक:' है, उन्नतिपथ पर चलने के कारण 'अग्निः ' है । इसकी प्रार्थना का स्वरूप यह है-
विषय
विद्वान् गन्धर्व का वर्णन। ज्ञान- प्रवचन, उसका कर्त्तव्य। पक्षान्तर में मेघ सूर्यादि का वर्णन।
भावार्थ
(गन्धर्वः) वेदवाणी का धारण करने वाला विद्वान् (आसाम्) इन (नदीनाम्) ज्ञान का उपदेश करने वाली वाणियों के (चरणे) ऊहापोह, या विचार-विस्तार में ही (सस्निम्) उस शुद्ध प्रभु के रूप को (अविन्दत्) प्राप्त कर लेता है, और (अश्म व्रजानां) व्यापक प्रभु को लक्ष्य करके जाने वाली (आसाम्) इन वाणियों के नाना (दुर: अप आवृणोत्) द्वारों को खोलता है। और वह इनके (अमृतानि) अमृत, अविनाशी नित्य ज्ञानों को (प्र अवोचत्) अच्छी प्रकार प्रवचन करता है। वह (इन्द्रः) सत्य ज्ञान का दर्शन करने वाला ही (अहीनाम्) संमुख आये तत्त्वों के (दक्षं) बल या स्वरूप को भलीभांति जान लेता है। मेघ सूर्यादि पक्ष में—सूर्य इन ध्वनि करती जल-धाराओं के चलाने में सबको स्नान कराने वाले मेघ को प्राप्त करता है, मेघ में प्राप्त जल के द्वार खोल देता है, जलों को नीचे बहा देता है। इन्द्रः बिजुली, मेघों के (दक्षं) जल को (परि जानात्) सब ओर उत्पन्न करता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः विश्वावसुर्देवगन्धर्वः॥ देवता—१—३ सविता। ४-६ विश्वावसुः॥ छन्दः–१, २, ४–६ त्रिष्टुप्। ३ विराट् त्रिष्टुप्॥ षडृच सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(गन्धर्वः-इन्द्रः) गां वाचं-धरति स वाक्पतिः परमात्मा (नदीनां चरणे) नदन्तीनां वाचां तन्निमित्तं (सस्निम्) संस्नातं मेघं मेघवत् खलु ज्ञानामृतपूर्णं वेदं (अविन्दत्) प्राप्तवानस्ति (अश्मव्रजानाम्) व्यापकः परमात्मा वज्रः-आश्रयो यासां वेदवाचां (दुरः अप अवृणोत्) द्वाराणि-अपावृणोति उद्घाटयति सर्वेभ्यः (आसाम्-अमृतानि प्र वोचत्) आसां वेदवाचाममृतरूपज्ञानानि प्रवदति पुनः (अहीनाम्) अहिभ्यः “चतुर्थ्यर्थे बहुलं छन्दसि” [अष्टा० २।३।६२] आहन्तव्येभ्यो-विविधाज्ञानेभ्यः पापेभ्यः (दक्षं परि जानात्) स्वकीयं बलं परितः प्रयुङ्क्ते ॥६॥
इंग्लिश (1)
Meaning
May Gandharva, eternal lord sustainer of the universe, knowledge and speech, abiding deep at the centre and on the circumference of the fluent streams and rolling oceans of speech and knowledge, open up for us the doors of knowledge locked in adamantine mystery and release the nectar streams of these mysteries in speech and vision. Indra, lord omnipotent and omniscient, alone knows in full the depth and far outreach of these mysteries.
मराठी (1)
भावार्थ
परमात्मा ज्ञानयुक्त वेद धारण करतो व उपदेशाद्वारे दरवाजे उघडतो. या मंत्रवाणीच्या ज्ञानामृताचा उपदेश करतो. अज्ञान किंवा पाप नाहीसे करण्यासाठी माणसाने बल प्राप्त केले पाहिजे. ॥६॥
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