ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 173/ मन्त्र 2
ऋषिः - ध्रुवः
देवता - राज्ञःस्तुतिः
छन्दः - भुरिगनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
इ॒हैवैधि॒ माप॑ च्योष्ठा॒: पर्व॑त इ॒वावि॑चाचलिः । इन्द्र॑ इवे॒ह ध्रु॒वस्ति॑ष्ठे॒ह रा॒ष्ट्रमु॑ धारय ॥
स्वर सहित पद पाठइ॒ह । ए॒व । ए॒धि॒ । मा । अप॑ । च्यो॒ष्ठाः॒ । पर्व॑तःऽइव । अवि॑ऽचाचलिः । इन्द्र॑ऽइव । इ॒ह । ध्रु॒वः । ति॒ष्ठ॒ । इ॒ह । रा॒ष्ट्रम् । ऊँ॒ इति॑ । धा॒र॒य॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
इहैवैधि माप च्योष्ठा: पर्वत इवाविचाचलिः । इन्द्र इवेह ध्रुवस्तिष्ठेह राष्ट्रमु धारय ॥
स्वर रहित पद पाठइह । एव । एधि । मा । अप । च्योष्ठाः । पर्वतःऽइव । अविऽचाचलिः । इन्द्रऽइव । इह । ध्रुवः । तिष्ठ । इह । राष्ट्रम् । ऊँ इति । धारय ॥ १०.१७३.२
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 173; मन्त्र » 2
अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 31; मन्त्र » 2
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अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 31; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
पदार्थ
(इह-एव) इस राष्ट्र में ही (एधि) स्वामी होकर हे राजन् ! वर्त्तमान हो (मा-अप च्योष्ठाः) तू राजपद से च्युत नहीं होगा (पर्वतः-इव) पर्वत के समान (अविचाचलिः) अत्यन्त अविचलित हो (इन्द्रः-इव) ऐश्वर्यवान् परमेश्वर के समान (इह ध्रुवः तिष्ठ) यहाँ-इस राष्ट्र में स्थिर रह (इह राष्ट्रम्-उ धारय) इस राजसूययज्ञ के अवसर पर प्रजाजनों के समक्ष राष्ट्र को धारण कर ॥२॥
भावार्थ
राजा को चाहिये कि वह राष्ट्र को दृढ़ता से सँभाले, पर्वत के समान दृढ़ अविचलित रहे, प्रजा का कल्याण सिद्ध करे ॥२॥
विषय
इन्द्रासन पर बैठते समय राजा को उपदेश
शब्दार्थ
(इह एव ऐधि) तू यहाँ ही रह अर्थात् अपने कर्तव्य पर दृढ़ रह (मा अप च्योष्टा ) तु कभी पतन की ओर मत जा (पर्वत इव अविचाचलिः) पर्वत के समान अविचल और (इन्द्र इव ध्रुव:) इन्द्र के समान स्थिर होकर (इह तिष्ठ) यहाँ, अपने व्रत में स्थिर रह (उ) और (राष्ट्रम् धारय) राष्ट्र को धारण कर ।
भावार्थ
उपर्युक्त मन्त्र में निम्न राजनैतिक मन्तव्यों पर प्रकाश डाला गया है - १. राजा का चुनाव होना चाहिए । २. राजा को इस प्रकार शासन करना चाहिए कि सभी लोग राजा को प्रेम एव स्नेह की दृष्टि से देखें । ३. राजा को चञ्चल न होकर पर्वत के समान दृढ़, अटल एवं निश्चल होना चाहिए । ४. उससे राज्य में राष्ट्र की हर प्रकार से उन्नति एवं समृद्धि होनी चाहिए ।
विषय
'मर्यादा-पालक' राजा
पदार्थ
[१] हे राजन् ! (इह एव एधि) = तू यहाँ राज्यसिंहासन पर ही हो। (मा अपच्योष्ठाः) = इस आसन से तू च्युत न हो। अन्याय्य दण्ड आदि के कारण प्रजा के असन्तोष से तुझे इस सिंहासन को छोड़ना न पड़े। इसीलिए तूने (पर्वतः इव) = पर्वत की तरह (अविचाचलिः) = अपने राजधर्म में स्थिर रहनेवाला होना । [२] (इन्द्रः इव) = जैसे प्रभु संसार के शासक हैं, उसी प्रकार तूने भी [ इन्द्रः ] जितेन्द्रिय बनकर (इह) = इस शासन कार्य में (ध्रुवः तिष्ठ) = ध्रुव होकर स्थित होना, मर्यादा का कभी उल्लंघन करनेवाला न बनना। इस प्रकार मर्यादा में सब को स्थापित करनेवाला होकर (इह) = यहाँ (उ) = निश्चय से (राष्ट्रं धारय) = राष्ट्र का धारण करनेवाला हो। 'राजा चतुरो वर्णान् स्वधर्मे स्थापयेत्'-राजा चारों वर्णों को स्वधर्म में स्थापित करनेवाला हो । वस्तुतः राष्ट्र के समुचित धारण का प्रकार यही है कि सब वर्ण अपना-अपना कार्य समुचितरूपेण कर रहे हों ।
भावार्थ
भावार्थ - राजा स्वयं जितेन्द्रिय बनकर [ इन्द्र इव] मर्यादा में चलता हुआ सभी को मर्यादा में स्थापित करे और इस प्रकार राष्ट्र का समुचित धारण करे ।
विषय
राजा का सर्वत्र भ्रमण, उसकी स्थापना उसका द्रढीकरण। राजा को स्थिर, दृढ़ होने का उपदेश।
भावार्थ
(इह एव एधि) तू यहां ही रह। (मा अप च्योष्ठाः) तू भाग मत, पद से पतित मत हो। तू (पर्वतः इव अविचाचलिः) पर्वत के समान अविचल होकर (इन्द्रः इव) तेजस्वी, आत्मा वा बलवान् पुरुष के समान, (ध्रुवः) धारण समर्थ, धृतिमान् होकर खड़ा रह। (इह राष्ट्रम् धारय उ) यहां राष्ट्र वा दीप्तियुक्त पद को धारण कर।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिध्रुवः॥ देवता—राज्ञः स्तुतिः॥ छन्दः—१ , ३–५ अनुष्टुप्। २ भुरिगनुष्टुप्। ६ निचृदनुष्टुप्॥ षडृचं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(इह-एव-एधि) अस्मिन् राष्ट्रे हि स्वामित्वेन वर्तमानो भव (मा-अपच्योष्ठाः) न त्वं राजपदादपच्युतो भविष्यतीति-आश्वासनम् (पर्वतः-इव-अविचाचलिः) पर्वत इवातिशयेनाविचलो भव-भविष्यति (इन्द्रः-इव-इह ध्रुवः-तिष्ठ) ऐश्वर्यवान् परमेश्वर इवास्मिन् राष्ट्रे ध्रुवः स्थिरो भव (इह राष्ट्रम्-उ धारय) अस्मिन् राजसूयप्रसङ्गे प्रजानां समक्षे राष्ट्रं खलु धारय ॥२॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Here only, on this seat, Indra, be firm as a rock, never vascillate. Here as the one supreme, pole star of the nation, stay, rule and sustain the Rashtra, one organismic, self-governing, well governed common wealth, brilliant, glorious.
मराठी (1)
भावार्थ
राजाने राष्ट्राला दृढतेने सांभाळावे. पर्वतासारखे दृढ अविचलित राहावे, प्रजेचे कल्याण करावे. ॥२॥
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