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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 2 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 2/ मन्त्र 3
    ऋषिः - त्रितः देवता - अग्निः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    आ दे॒वाना॒मपि॒ पन्था॑मगन्म॒ यच्छ॒क्नवा॑म॒ तदनु॒ प्रवो॑ळ्हुम् । अ॒ग्निर्वि॒द्वान्त्स य॑जा॒त्सेदु॒ होता॒ सो अ॑ध्व॒रान्त्स ऋ॒तून्क॑ल्पयाति ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । दे॒वाना॑म् । अपि॑ । पन्था॑म् । अ॒ग॒न्म॒ । यत् । श॒क्नवा॑म । तत् । अनु॑ । प्रऽवो॑ळ्हुम् । अ॒ग्निः । वि॒द्वान् । सः । य॒ज॒त् । सः । इत् । ऊँ॒ इति॑ । होता॑ । सः । अ॒ध्व॒रान् । सः । ऋ॒तून् । क॒ल्प॒याति ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ देवानामपि पन्थामगन्म यच्छक्नवाम तदनु प्रवोळ्हुम् । अग्निर्विद्वान्त्स यजात्सेदु होता सो अध्वरान्त्स ऋतून्कल्पयाति ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ । देवानाम् । अपि । पन्थाम् । अगन्म । यत् । शक्नवाम । तत् । अनु । प्रऽवोळ्हुम् । अग्निः । विद्वान् । सः । यजत् । सः । इत् । ऊँ इति । होता । सः । अध्वरान् । सः । ऋतून् । कल्पयाति ॥ १०.२.३

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 2; मन्त्र » 3
    अष्टक » 7; अध्याय » 5; वर्ग » 30; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    पदार्थ

    (देवानाम्-अपि पन्थाम्) द्युस्थानी ग्रहों के भी मार्ग-गतिक्रम को (आ-आगन्म) हम जान लें (यत्-शक्नवाम) जिससे कि जानने में समर्थ होवें (तत्-अनु प्रवोढुम्) उसके अनुसार प्रचार अनुष्ठान करने का आरम्भ कर सकें (सः-अग्निः-विद्वान्) वह सूर्य अग्नि ग्रहों के मार्ग को जनाता हुआ (सः-यजात्) हमें ज्योतिर्विद्या में जोड़ देता है (स-इत्) वह ही (होता) ज्योतिर्विज्ञान का सम्पादक य निमित्त है (सः-अध्वरान् सः-ऋतून् कल्पयाति) वह समस्त जीवों में प्राणों का और समस्त स्थानों में ऋतुओं का सञ्चार करता है ॥३॥

    भावार्थ

    सूर्य का ज्ञान मानव के लिये अत्यन्त आवश्यक है। आकाश में गृह तारों के गतिमार्गों के ज्ञान का निमित्त, ज्योतिर्विद्या का आधार तथा जीवों में प्राणों का प्रेरक एवं लोकों पर ऋतु सञ्चार का कारण वही सूर्य है। विद्यासूर्य विद्वान् से दिव्य जीवन के मार्ग को जानना चाहिये और प्राणविद्या तथा काल-ज्ञान को ग्रहण करना चाहिये ॥३॥

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    Bhajan

    आज का वैदिक भजन 🙏 1130
    ओ३म् आ दे॒वाना॒मपि॒ पन्था॑मगन्म॒ यच्छ॒क्नवा॑म॒ तदनु॒ प्रवो॑ळ्हुम् ।
    अ॒ग्निर्वि॒द्वान्त्स य॑जा॒त्सेदु॒ होता॒ सो अ॑ध्व॒रान्त्स ऋ॒तून्क॑ल्पयाति ॥
    ऋग्वेद 10/2/3

    यज्ञ के तन्तु से बन्धे ही रहना 
    देवों का मार्ग है प्यारा
    देखो यह सूर्य चन्द्र, अग्नि, पृथ्वी
    सम्वत्सर कर रहे यज्ञ उजियारा
    आओ देवों का यह मार्ग सदा 
    रखें हम उघारा 
    यज्ञ के तन्तु से बन्धे ही रहना 

    इन सारे देवों के यज्ञ-पालन में 
    होता नहीं है व्यतिक्रम 
    ऐसे ही मन बुद्धि प्राणेन्द्रियों में 
    करें देव यज्ञ का शिव सङ्गठन 
    देवों का देव परमात्मा महादेव 
    करता ब्रह्माण्ड यज्ञ सारा 
    यज्ञ के तन्तु से बन्धे ही रहना 
    देवों का मार्ग है प्यारा

    इस मार्ग पर यदि चलने का 
    मन है शक्ति को अपनी तोलो 
    इस पर भी यदि तुम स्थिर रह सकोगे 
    तब मार्ग चलने की सोचो
    आत्मा है अग्रणी तेजपुंज 'अध्वरी' 
    यज्ञ बिन ना उसका गुजारा
    यज्ञ के तन्तु से बन्धे ही रहना 
    देवों का मार्ग है प्यारा

    विद्वान् आत्मा है देव मार्ग-राही 
    ज्ञाता है सारे यज्ञों का 
    यज्ञ निष्पादन में उसकी कुशलता 
    उसको बना देती 'होता'
    भद्र जनों को ना हानि पहुँचाता 
    ऐसा अहिन्सक वो न्यारा
    यज्ञ के तन्तु से बन्धे ही रहना 
    देवों का मार्ग है प्यारा

    अध्वर यज्ञ रचाये शिवात्मा 
    हर ऋतु में कालानुसार
    काल-अकाल विचारित यज्ञ ही
    होता है भली प्रकार 
    आओ बने  पथिप्रज्ञ इस यज्ञ के
    जीवन सफल हो यज्ञ द्वारा 
    यज्ञ के तन्तु से बन्धे ही रहना 
    देवों का मार्ग है प्यारा

    रचनाकार व स्वर :- पूज्य श्री ललित मोहन साहनी जी – मुम्बई
    रचना दिनाँक :-  ५.१२.२००९ २३.१५ pm
    राग :- सुर मल्हार
    गायन समय मध्यान्ह, ताल दादरा 6 मात्रा
                          
    शीर्षक :- आओ देवों के मार्ग पर चलें         
    *तर्ज :- *
    00127-727 

    तन्तु = बुनने वाला धागा (वंश परम्परागत)
    उघारा = खुला हुआ 
    व्यतिक्रम = उल्टापुल्टा अव्यवस्थित 
    शिव = कल्याणकारी 
    अग्रणी = आगे ले जाने वाला 
    अध्वर = हिंसा रहित यज्ञ 
    निष्पादन = प्रस्तुत करना
    'होता' = यजमान, यज्ञ करने वाला 
    शिवात्मा = कल्याणकारी आत्मा 
    पथिप्रज्ञ = विद्वता के मार्ग पर चलने वाला

    Vyakhya

    प्रस्तुत भजन से सम्बन्धित पूज्य श्री ललित साहनी जी का सन्देश :-- 👇👇

    आओ देवों के मार्ग पर चलें

    आओ हम देवों के मार्ग पर चलें। यज्ञ के तन्तु(बुनने का धागा) से बंधे रहना ही देवों का मार्ग है। देखो यह सूर्य, चंद्र, अग्नि पृथ्वी, ऋतु,संवत्सर आदि देव कैसे यज्ञ के मार्ग पर चल रहे हैं। कभी उनके यज्ञ पालन में व्यतिक्रम (उलटफेर) नहीं होता। शरीर में भी मन बुद्धि प्राण इन्द्रिय आदि देव कैसे संगठित हो देवयान का अवलम्बन कर शरीर यज्ञ को चला रहे हैं। समाज में भी 'देव' पदवी को पाए हुए महापुरुष यज्ञ के ही पथ पर चल रहे हैं। और सबसे बड़ा देवों का देव परमात्मा भी निरन्तर देव मार्ग पर चलता हुआ इस ब्रह्माण्ड यज्ञ का संपादन कर रहा है। कुछ तो हम चाहते हैं कि हम भी इस देव मार्ग के पथिक बनें।क्या तुम कहते हो कि इस मार्ग पर चलना अति कठिन है?तलवार की धार पर चलने के समान है अतः पहले अपनी शक्ति को  तो तोलो कि तुम इस पर स्थिर रह भी सकोगे या कि नहीं, उसके पश्चात इस मार्ग पर पग बढ़ाना
     सुनो हमने अपने सामर्थ्य को भली-भांति परख लिया है। हमारा आत्मा अग्नि है, अग्रणी है, तेज का पुञ्ज है, ज्योतियों की ज्योति है ।वह  विद्वान है देवों की राह पर चलना और चलाना जानता है।अतः हमें देव-प्रदर्शित यज्ञ-मार्ग से भटक जाने का कोई भय नहीं है। कुछ तो हम निश्चिंत होकर उसके हाथों में अपनी यज्ञ की पतवार सौंप रहे हैं। वह 'होता' है यज्ञ- निष्पादन में कुशल है, संस्कृत हवि का होम करने में निष्णात है। वह जानता है
     कि यज्ञ को अध्वर अर्थात् हिंसा-रहित ही होना चाहिए।भद्र जनों को हानि पहुंचाने के उद्देश्य से किया गया यज्ञ, यज्ञ नहीं है।  हमारा आत्मा 'अध्वर'यज्ञों को रचाए और वही यह भी देखे कि किस यज्ञ के लिए कौन सी ऋतु? कौन सा समय उपयुक्त है। क्योंकि काल-अकाल का विचार किए बिना प्रारम्भ किया गया यज्ञ सफल नहीं होता। आओ हम देव-पथ के पथिक बनें।

    🕉🧘‍♂️ईश भक्ति भजन 
    भगवान ग्रुप द्वारा 🎧🙏
    वैदिक श्रोताओं को हार्दिक शुभकामनाएं❗🌹 🙏

     

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    विषय

    देव-यान

    पदार्थ

    गतमन्त्रों के अन्तिम शब्दों के अनुसार देवों के साथ हमारा संग हो । उनकी ज्ञानचर्चाओं से हम विवेक को प्राप्त करें, धर्माधर्म को जानें। तथा (देवानाम्) = उन देवों के (पन्थाम्) = मार्ग को (आ अगन्म अपि) = चलने का भी प्रयत्न करें। देवताओं के मार्ग का अनुसरण करें । (यत् शक्नवाम) = जितना भी कर सकें (तदनु) = उन देवताओं के अनुसार ही (प्रवोढुम्) = कार्यभार को वहन करने के लिये यत्नशील हों । अर्थात् यथाशक्ति हम देवों के मार्ग से ही चलें। उनसे किये जाते हुए कार्यों को ही करें। इस प्रकार देवानुसरण करनेवाला व्यक्ति ही (अग्निः) = अग्रेणी- अपने को अग्रस्थान में प्राप्त करानेवाला होता है। यही (विद्वान्) = ज्ञानी बनता है । (स) = वह (यजात्) = यज्ञशील होता है, (उ) = और (स) = वह (इत्) = निश्चय से (होता) = दानपूर्वक अदन करता है, (सः) = वह (अध्वरान्) = सदा हिंसा रहित कर्मों को कल्पयाति तथा इन हिंसारहित कर्मों को करनेवाला यह (ऋतून्) = ऋतुओं को (कल्पयाति) = शक्तिशाली बनाता है। इसके लिये सारे समय सामर्थ्य को देनेवाले होते हैं। अहिंसा के अनुपात में ही इसकी शक्ति बढ़ जाती है ।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम देवों के मार्ग पर चलें । यथाशक्ति उनके कर्मों का अनुसरण करें। उन्नतिशील ज्ञानी यज्ञशील व होता बनें। हिंसारहित कर्मों को करते हुए अपने लिये सब कालों को शक्ति सम्पन्न बनाएँ।

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    विषय

    उत्तम विद्वान् के कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    हम (देवानाम् अधि) विद्वान् लोगों के (पन्थाम् अगन्म) मार्ग पर अवश्य चलें। (यत् शक्तवाम) जो कार्य हम कर सकें (तत्) उसे (अनु) पश्चात् क्रम से (प्रवोढुम्) अच्छी प्रकार धारण, समाप्त भी कर सकें। (विद्वान्) ज्ञानवान् पुरुष (अग्निः) अग्नि के समान प्रकाशक होता है। (सः यजात्) वही यज्ञ करता, दान देता है, (स इत् उ होता) वही (होता) ग्रहण करने वाला है। (सः अध्वरान् कल्पयाति) वही हिंसा रहित कर्मों को करता है और (ऋतून् कल्पयाति) वही ऋतुओं को अपने २ उत्तम फलोत्पादन में समर्थ करता है।

    टिप्पणी

    ‘पन्थाम्’ - वैदिकमार्गम् इति सायणः॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    त्रित ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्द:- १ पादनिचृत्त्रिष्टुप्। २, ५ निचृत्त्रिष्टुप्। ३, ४, ६, ७ त्रिष्टुप्॥ सप्तर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (देवानाम्-अपि पन्थाम्) द्युस्थानभवानां चन्द्रादिग्रहोपग्रहाणां खल्वपि “देवः-द्युस्थानो भवतीति वा” [निरु० ७।१६] पन्थानं मार्गं गगनक्रमं पन्थानमिति स्थाने पन्थामिति छान्दसः प्रयोगः (आ-आगन्म) जानीयाम (यत्-शक्नवाम) यतो ज्ञातुं समर्था भवेम (तत्-अनु प्रवोढुम्) तदनुसरन्तः प्रवाहयितुं प्रचारयितुं कार्येऽनुष्ठातुमारभेमहि-इत्यर्थः (सः-अग्निः-विद्वान्) स एव सूर्योऽग्निर्वेदयन्-द्युस्थानानां ग्रहाणां मार्गं ज्ञापयन् सन् (यजात्) ज्योतिर्विद्यायां सङ्गमयेत्-‘अन्तर्गतणिजर्थः (स-इत्) सः “सुपां सुलुक्०” [अष्टा० ७।१।३९] इति सोर्लुक्, एव (होता) ज्योतिर्विज्ञानस्य सम्पादननिमित्तीभूतः (सः-अध्वरान् सः-ऋतून् कल्पयाति) सः प्राणान् “प्राणोऽध्वरः” [श० ७।३।१।५] ऋतूंश्च सम्पादयति ॥३॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Let us follow the path of the divinities, sagely scholars, stars and planets as far as we can and do that in proper order so that we may be able to continue: Agni knows, the scholar knows, the sun is the base of knowledge in relation to its systemic position, that is the high priest of the solar system, that controls the harmonious movements of the planets, that ordains the pattern of the seasons.$(Let the sun be the base of our knowledge of the stars and planets in our pursuit of yajnic astronomy. Similarly let the sagely scholar who knows the science of yajna be our guide in our studies and our actions.)

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    सूर्याचे ज्ञान मानवासाठी अत्यंत आवश्यक आहे. आकाशात ग्रहताऱ्यांच्या गतिमार्गाच्या ज्ञानाचे निमित्त, ज्योतिर्विद्येचा आधार व जीवांमध्ये प्राणांचा प्रेरक व लोकांवर ऋतुसंचाराचे कारण तोच सूर्य आहे. विद्यासूर्य विद्वानाकडून दिव्य जीवनाच्या मार्गाला जाणले पाहिजे व प्राणविद्या तसेच कालज्ञान ग्रहण केले पाहिजे. ॥३॥

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