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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 2 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 2/ मन्त्र 4
    ऋषिः - त्रितः देवता - अग्निः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    यद्वो॑ व॒यं प्र॑मि॒नाम॑ व्र॒तानि॑ वि॒दुषां॑ देवा॒ अवि॑दुष्टरासः । अ॒ग्निष्टद्विश्व॒मा पृ॑णाति वि॒द्वान्येभि॑र्दे॒वाँ ऋ॒तुभि॑: क॒ल्पया॑ति ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तत् । वः॒ । व॒यम् । प्र॒ऽमि॒नाम॑ । व्र॒तानि॑ । वि॒दुषा॑म् । दे॒वाः॒ । अवि॑दुःऽतरासः । अ॒ग्निः । तत् । विश्व॑म् । आ । पृ॒णा॒ति॒ । वि॒द्वान् । येभिः॑ । दे॒वान् । ऋ॒तुऽभिः॑ । क॒ल्पया॑ति ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यद्वो वयं प्रमिनाम व्रतानि विदुषां देवा अविदुष्टरासः । अग्निष्टद्विश्वमा पृणाति विद्वान्येभिर्देवाँ ऋतुभि: कल्पयाति ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तत् । वः । वयम् । प्रऽमिनाम । व्रतानि । विदुषाम् । देवाः । अविदुःऽतरासः । अग्निः । तत् । विश्वम् । आ । पृणाति । विद्वान् । येभिः । देवान् । ऋतुऽभिः । कल्पयाति ॥ १०.२.४

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 2; मन्त्र » 4
    अष्टक » 7; अध्याय » 5; वर्ग » 30; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (देवाः) हे द्युस्थान के ग्रहों ! (वयम्-अविदुष्टरासः) हम ज्योतिर्विद्या में सर्वथा अज्ञानी (वः-विदुषाम्) तुम ज्योतिर्विद्या के ज्ञाननिमित्तों के (यत्-व्रतानि-प्रमिनाम) जिन कर्मों-नियमों को हिंसित करते हैं-तोड़ते हैं, भूल करते हैं (अग्निः-विद्वान्) सूर्य अग्नि ज्ञान का निमित्त हुआ (तत्-विश्वम्-आपृणाति) उस सब को पूरा कर देता है (येभिः-ऋतुभिः-देवान् कल्पयाति) जिन काल क्रियाओं द्वारा वह ग्रहों को अपने सौरमण्डल के गतिमार्ग में गति करने को समर्थ बनाता है ॥४॥

    भावार्थ

    ग्रहों के ज्ञान में अनभिज्ञ जन जो भूल कर देते हैं, सूर्य को ठीक-ठीक समझने पर वह भूल दूर हो जाती है। कारण कि सूर्य ही कालक्रम से ग्रहों को सर्व गति-मार्गों में चलाता है। विद्वानों के शिक्षण में कहीं अपनी अयोग्यता से भूल या भ्रान्ति प्रतीत हो, तो विद्यासूर्य महा विद्वान् से पूर्ति करनी चाहिये ॥४॥

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    विषय

    व्रतभंग दोष परिहार

    पदार्थ

    हे (देवाः) = देवो! (विदुषां वः) = ज्ञान सम्पन्न आप लोगों के (व्रतानि) = व्रतों को (अविदुष्टरास:) = अज्ञानी से बने हुए (वयम्) = हम (यत्) = जो (प्रमिनाम) = हिंसित करते हैं (तद् विश्वम्) = उस सब को विद्वान् समझदार (अग्निः) = प्रगतिशील व्यक्ति (अपृणाति) = सब प्रकार से पूरित करता है। ज्ञानी लोगों के कुछ व्रत होते हैं। ये ही व्रत योगदर्शन के शब्दों में 'यम-नियम' के रूप में कहे गये हैं । वेद में ये ही व्रत 'ऋत व सत्य' हैं। विद्वान् लोग वैयक्तिक व सामाजिक हित के दृष्टिकोण से इन व्रतों का पालन करते हैं । परन्तु एक नासमझ व्यक्ति क्षणिक आनन्द को महत्त्व देता हुआ इन व्रतों को अपनी अदूरदर्शिता से तोड़ बैठता है। पर जो व्यक्ति समझदार व प्रगतिशील होता है वह एक बार गिर जाने पर भी उठ खड़ा होता है, और प्रायश्चितादि के द्वारा उस व्रतभंग दोष को समाप्त करने के लिये प्रयत्न करता है और उस व्रत में आयी कमी को दूर करता है । ये व्रत में आयी कमी को दूर करने के प्रयत्न वे होते हैं (येभिः) = जिनसे (ऋतुभिः) = नियमित गतियों के द्वारा यह अग्नि अपने जीवन में (देवान्) = दिव्यगुणों को (कल्पयाति) = उत्पन्न करता है अथवा दैवी वृत्तियों को फिर से शक्तिशाली बनाता है । हमारी हृदयस्थली में देवों व असुरों का संग्राम तो निरन्तर चलता है। एक समझदार 'विद्वान्' व्यक्ति ऋतुओं की तरह नियमित गतियों से देवों को शक्तिशाली बनाता है और इस प्रकार आसुरवृत्तियों को पराजित करता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम मूर्खता से विद्वानों से पालन किये जानेवाले व्रतों को तोड़ बैठते हैं। हम 'विद्वान् व अग्नि' बनकर उन व्रतभंग दोषों को दूर करें और मर्यादित आचरण से [ऋतुभिः] दिव्यवृत्तियों को प्रबलता प्राप्त कराएँ ।

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    विषय

    राजा और विद्वान् हमारी अज्ञान द्वारा हुई त्रुटियों को पूर्ण करें।

    भावार्थ

    हे (देवाः) विद्वान् लोगो ! (विदुषां वः यद् व्रतानि) आप विद्वान् जनों के जो कर्म, व्रत-नियमादि (वयं) हम (अविदुस्तरासः) अत्यन्त अज्ञानी होकर भंग करें, विद्वान् तेजस्वी पुरुष (येभिः ऋतुभिः) जिन ऋतुओं, सत्य बलों से (देवान् कल्पयाति) विद्वानों को कार्य करने और फल प्राप्त करने में समर्थ करता है उनही से वह हमारे (तत् विश्वम्) उस सब को (आ पृणाति) पूर्ण करे।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    त्रित ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्द:- १ पादनिचृत्त्रिष्टुप्। २, ५ निचृत्त्रिष्टुप्। ३, ४, ६, ७ त्रिष्टुप्॥ सप्तर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (देवाः) हे द्युस्थानिनो ग्रहास्तद्वेत्तारो वा ! (वयम्-अविदुष्टरासः) वयं ज्योतिर्विद्यायां सर्वथाऽज्ञानिनः (वः-विदुषाम्) युष्माकं वेद्यानां विदुषां वा (यत्-व्रतानि-प्रमिनाम) यत् खलु कर्म नियमेन हिंस्मः-उल्लङ्घयेम (अग्निः-विद्वान् तत्-विश्वम्-आपृणाति) स सूर्यो ज्ञाननिमित्तः सन् तत् सर्वमापूरयति पूर्णं करोति (येभिः-ऋतुभिः-देवान् कल्पयाति) यैः कालैर्द्युस्थानान् ग्रहादीन् स स्वकीयसौरमण्डलस्थे मार्गे गमनाय समर्थान् करोति ॥४॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    And if we, being ignorant and deficient, neglect or transgress or overstep the laws and disciplines of those who know, then, O divinities, Agni, the sun, the sage, being abundant and graciously fulfilling, makes all that up and saves us by those very powers and actions in time and seasons by which it keeps the sages and divinities in the systemic order.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    ग्रहाच्या ज्ञानात अनभिज्ञ लोक जी चूक करतात ती सूर्याला ठीक-ठीक जाणल्यावर दूर होते. कारण सूर्यच कालक्रमाने ग्रहांना सर्व गति मार्गात चालवितो. विद्वानांच्या शिकविण्यात आपल्या अयोग्यतेमुळे कुठे चूक किंवा भ्रांती झाल्यास विद्यासूर्य महान विद्वानाकडून समजून घेतले पाहिजे. ॥४॥

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