ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 2/ मन्त्र 6
विश्वे॑षां॒ ह्य॑ध्व॒राणा॒मनी॑कं चि॒त्रं के॒तुं जनि॑ता त्वा ज॒जान॑ । स आ य॑जस्व नृ॒वती॒रनु॒ क्षा स्पा॒र्हा इष॑: क्षु॒मती॑र्वि॒श्वज॑न्याः ॥
स्वर सहित पद पाठविश्वे॑षाम् । हि । अ॒ध्व॒राणा॑म् । अनी॑कम् । चि॒त्रम् । के॒तुम् । जनि॑ता । त्वा॒ । ज॒जान॑ । सः । आ । य॒ज॒स्व॒ । नृ॒ऽवतीः॑ । अनु॑ । क्षाः । स्पा॒र्हाः । इषः॑ । क्षु॒ऽमतीः॑ । वि॒स्वऽज॑न्याः ॥
स्वर रहित मन्त्र
विश्वेषां ह्यध्वराणामनीकं चित्रं केतुं जनिता त्वा जजान । स आ यजस्व नृवतीरनु क्षा स्पार्हा इष: क्षुमतीर्विश्वजन्याः ॥
स्वर रहित पद पाठविश्वेषाम् । हि । अध्वराणाम् । अनीकम् । चित्रम् । केतुम् । जनिता । त्वा । जजान । सः । आ । यजस्व । नृऽवतीः । अनु । क्षाः । स्पार्हाः । इषः । क्षुऽमतीः । विस्वऽजन्याः ॥ १०.२.६
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 2; मन्त्र » 6
अष्टक » 7; अध्याय » 5; वर्ग » 30; मन्त्र » 6
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अष्टक » 7; अध्याय » 5; वर्ग » 30; मन्त्र » 6
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(विश्वेषाम्-अध्वराणाम्) समस्त मार्ग में रमण करनेवाले या मार्गवाले ग्रह-तारों के (अनीकम्) मुख-प्रमुख सेनाओं के सेनानी के समान (चित्रम्) दर्शनीय (केतुम्) दर्शक (त्वा) तुझ सूर्य को (जनिता जजान) उत्पादक परमात्मा ने उत्पन्न किया है, (सः) वह तू (नृवतीः क्षाः) मनुष्यादी प्रजावाली पृथिवियों, तथा (स्पार्हाः क्षुमतीः-विश्वजन्याः-इषः-यजस्व) चाहने योग्य, कमनीय अन्नवाली और सबको उत्पन्न करनेवाली या सब उत्पन्न होनेवाले प्राणियों के योग्य वर्षा से संयुक्त करा-प्राप्त करा ॥६॥
भावार्थ
द्युमण्डल में मार्गवाले य मार्ग में चलनेवाले ग्रहों का नेता तथा दर्शक सूर्य है और उसका परमात्मा उत्पादक है, सूर्य स्वतः नहीं। प्राणियोंवाली पृथिवियों और कमनीय अन्न उत्पन्न करनेवाला सबको योग्य वर्षाओं का प्राप्त करानेवाला सूर्य है। विद्यासूर्य विद्वान् को परमात्मा बनाता है। वह विद्यासूर्य विद्वान् राष्ट्रभूमि को सुख शान्ति व जीवनरक्षा की अमृतवर्षा से सिञ्चित करे ॥६॥
विषय
स्पृहणीय अन्न
पदार्थ
(जनिता) = प्रभु ने (त्वा) = तुझे (जजान) = प्रादुर्भूत किया ? किस रूप में ? (विश्वेषाम्) = सब (अध्वराणां) = यज्ञों के (हि) = निश्चय से (अनीकम्) = बल के रूप में । अर्थात् तेरे में सब यज्ञों के करने का सामर्थ्य था । अब संसार के विषयों से आकृष्ट होकर हम उस शक्ति को क्षीण कर लेते हैं और हमारे में यज्ञों के करने का सामर्थ्य नहीं रह जाता । (चित्रम्) = [चिती ज्ञाने] प्रभु ने तुझे संज्ञानवाला किया। परन्तु यहाँ संसार में कामवासना ने तेरे उस ज्ञान पर परदा-सा डाल दिया । (केतुम्) = [कित निवासे रोगापनयने च] प्रभु ने तुझे इस मानव शरीर में उत्तम निवास वाला किया और तुझे रोगशून्य जीवनवाला ही उद्भूत किया। परन्तु जीव ने यहाँ विषयों की ओर झुककर अपनी आर्थिक स्थिति को भी क्षीण कर लिया और अपने शरीर को रोगों का घर बना लिया। एवं प्रभु ने तो यज्ञों की शक्ति दी थी, ज्ञान तथा उत्तम निवास तथा रोगशून्य शरीर दिया था । मनुष्य ने अपनी गलतियों से अपने जीवन से यज्ञों को विलुप्त कर दिया, अपने ज्ञान पर कामरूप परदे को पड़ने दिया, भोगों में धन का दुरुपयोग करके क्षीण धन हो गया तथा विविध रोगों का शिकार बन गया। प्रभु जीव से कहते हैं कि (स) = वह तू अपने जीवन में कमी न आने देने के लिये (इषः) = उन अन्नों को (आ यजस्व) = सब प्रकार से अपने साथ संगत कर । जो अन्न कि (नृवती:) = उत्तम नरों वाले हैं अर्थात् मनुष्यों को बड़ा उन्नत करनेवाले हैं [नृ नये], जिन अन्नों के सेवन से मनुष्य नर बनता है, अपने को उन्नतिपथ पर आगे ले चलनेवाला । (अनु क्षा:) = [क्षि निवासगत्योः ] जो अन्न उत्तम निवास वाले गतिशील व्यक्तियों के अनुकूल हैं अर्थात् जिन अन्नों के सेवन से मनुष्य उत्तम निवास वाला तथा क्रियाशील जीवनवाला बनता है। (स्पार्हा:) = जो अन्न मनुष्य को उन्नति शिखर पर आरूढ़ होने की स्पृहा देनेवाले हैं। (क्षुमती:) = [क्षु शके] जो अन्न मनुष्य को प्रभु के नामोच्चारण व स्तवन की ओर प्रेरित करते हैं। तथा जो अन्न (विश्वजन्याः) = सब उन्नतियों के लिये हितकर हैं, हमारी सब शक्तियों के विकास के लिये उत्तम हैं। मनुष्य की सब उन्नति व अवनति इस अन्न पर ही निर्भर करती है। तामस अन्न हमें अधोगति की ओर ले जाता है तो सात्त्विक अन्न ही हमारी सब उन्नतियों का कारण बनता है। ' आहार शुद्धौ सत्त्वशुद्धिः ' आहार की शुद्धि पर ही अन्तःकरण की शुद्धि आश्रय करती है। अन्तःकरण की शुद्धि ही हमें अन्ततः प्रभु दर्शन के भी योग्य बनाती है । एवं प्रस्तुत मन्त्र में उस सात्त्विक अन्न का चित्रण करते हुए कहा गया है कि तुम्हारा अन्न तुम्हें नर बनानेवाला उत्तम निवास व गतिशीलता के अनुकूल स्पृहणीय प्रभुस्तवन की ओर प्रवण करनेवाला तथा सब शक्तियों के विकास के लिये हितकर हो। इस प्रकार के अन्न के सेवन से हमारा वह मूल का शुद्ध रूप बना रहेगा। अर्थात् हम यज्ञशील ज्ञानी उत्तम निवास वाले व नीरोग बने रहेंगे ।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु ने जीव को यज्ञों के बल वाला ज्ञानी व उत्तम निवास वाला तथा नीरोग बनाया है। यदि हम उत्तम ही अन्नों का सेवन करेंगे तो हमारा यह स्वरूप मलिन न होगा।
विषय
गुरु के पास विद्वान् होकर अन्यों को ज्ञान दे।
भावार्थ
(विश्वेषाम्) समस्त (अध्वराणाम्) यज्ञों का (अनीकं) प्रमुख, (चित्रं केतुम्) आश्चर्यकारक ज्ञाता (त्वा) तुझको (जनिता) तेरे गुरु वा पिता ने (जजान) उत्पन्न किया है। (सः) वह तू (नृवतीः क्षाः अनु) मनुष्यों से बसी, भूमियों में (स्पार्हाः) सबसे चाहने योग्य, (क्षुमतीः) अन्नों से परिपूर्ण, (विश्व-जन्याः) सब हितकारिणी, (इषः) नाना वृष्टियों के तुल्य ज्ञानवृष्टियों को (आ यजस्व) प्रदान कर।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
त्रित ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्द:- १ पादनिचृत्त्रिष्टुप्। २, ५ निचृत्त्रिष्टुप्। ३, ४, ६, ७ त्रिष्टुप्॥ सप्तर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(विश्वेषाम्-अध्वराणां हि) सर्वेषां खल्वध्वानि रममाणानाम्, अध्वनि रमते-इति ‘डः’ प्रत्ययः “सप्तम्यां जनेर्डः” [अष्टा० ३।२।९७] “अन्येभ्योऽपि दृश्यते” [वा० अष्टा० ३।२।१०१] यद्वा-अध्ववतां ग्रहाणाम्-अध्वशब्दात् र प्रत्ययो मत्वर्थीयश्छान्दसः (अनीकम्) मुखं प्रमुखं यथा सेनायाः सेनानीरनीकं भवति “सेनायाः सेनानीरनीकम्” [श० ५।३।८।१] (चित्रम्) चायनीयम्-दर्शनीयम् (केतुम्) दर्शकं सूर्यम् (त्वा जनिता जजान) त्वां सूर्यं जनयिता परमात्मा उत्पादितवान् (सः-आ) त्वं सूर्यः (नृवतीः क्षाः) मनुष्यादिप्रजावतीः “प्रजा वै नरः” [ऐ० २।४] पृथिवीः, तथा (स्पार्हाः क्षुमतीः-विश्वजन्याः-इषः-यजस्व) स्पृहणीया अन्नवतीः सर्वप्राणिजननयोग्याः-वृष्टीः “वृष्ट्यै तदाह यदाहेषे” [श० १४।२।२।१७] सङ्गमय ॥६॥
इंग्लिश (1)
Meaning
The creator of all the stars and planets of the universe moving in their orbits created you too, O Agni, O sun, wonderful pioneer and commander of the solar system. Pray come, join us and give us lands and earths blest with noble people, and bring us cherished foods, energies and knowledges, and let there be showers of rain giving us abundance of food and fertility for the life species of the world.
मराठी (1)
भावार्थ
द्युमंडळात पथमार्गी किंवा मार्गात चालणाऱ्या ग्रहांचा नेता व दर्शक सूर्य आहे व त्याचा उत्पादक परमात्मा आहे. सूर्य स्वत: नाही. प्राणीयुक्त असणारी व इच्छित अन्न उत्पन्न करणारी पृथ्वी यांच्यावर पर्जन्यवृष्टी करविणारा सूर्य आहे. विद्यासूर्य विद्वानालाही परमात्मा उत्पन्न करतो. त्या विद्यासूर्य विद्वानाने राष्ट्रभूमीला सुख, शांती व जीवन रक्षणाच्या अमृतवृष्टीने सिंचित करावे. ॥६॥
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