ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 2/ मन्त्र 5
यत्पा॑क॒त्रा मन॑सा दी॒नद॑क्षा॒ न य॒ज्ञस्य॑ मन्व॒ते मर्त्या॑सः । अ॒ग्निष्टद्धोता॑ क्रतु॒विद्वि॑जा॒नन्यजि॑ष्ठो दे॒वाँ ऋ॑तु॒शो य॑जाति ॥
स्वर सहित पद पाठयत् । पा॒क॒ऽत्रा । मन॑सा । दी॒नऽद॑क्षाः । न । य॒ज्ञस्य॑ । म॒न्व॒ते । मर्त्या॑सः । अ॒ग्निः । तत् । होता॑ । क्र॒तु॒ऽवित् । वि॒ऽजा॒नन् । यजि॑ष्ठः । दे॒वान् । ऋ॒तु॒ऽशः । य॒जा॒ति॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
यत्पाकत्रा मनसा दीनदक्षा न यज्ञस्य मन्वते मर्त्यासः । अग्निष्टद्धोता क्रतुविद्विजानन्यजिष्ठो देवाँ ऋतुशो यजाति ॥
स्वर रहित पद पाठयत् । पाकऽत्रा । मनसा । दीनऽदक्षाः । न । यज्ञस्य । मन्वते । मर्त्यासः । अग्निः । तत् । होता । क्रतुऽवित् । विऽजानन् । यजिष्ठः । देवान् । ऋतुऽशः । यजाति ॥ १०.२.५
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 2; मन्त्र » 5
अष्टक » 7; अध्याय » 5; वर्ग » 30; मन्त्र » 5
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अष्टक » 7; अध्याय » 5; वर्ग » 30; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(पाकत्रा-मनसा) पकने योग्य-न पके अल्पज्ञानवाले मन से (दीनदक्षाः) क्षीण ज्ञानबलवाले या क्षीण आत्मबलवाले (मर्त्यासः) मनुष्य (यज्ञस्य न मन्वते) द्युमण्डलरूप यज्ञ को नहीं समझते हैं, (यत्-होता-क्रतुवित्-अग्निः-तत्-विजानन्) कि स्वाश्रय में ग्रहों को ग्रहण-स्थापन करनेवाला, कियावाले गतिशीलग्रह आदि को अपने आश्रय में लेनेवाला महान् अग्नि सूर्य विज्ञान में आया हुआ (यजिष्ठः) अत्यन्त संयुक्त होनेवाला प्रेरक (ऋतुशः-देवान् यजाति) समयानुसार-कालव्यवस्था से-कालक्रम से ग्रहों को उनकी गति से युक्त करता है ॥५॥
भावार्थ
जनसाधारण अल्पज्ञान के कारण नहीं जानते कि द्युमण्डल में ग्रह तारों को सूर्य अपने आश्रय में रखकर, उनका आकर्षण बल से कालक्रम में गतिप्रेरक है, यह ज्योतिर्वित् ही जानते हैं। अल्पज्ञान के कारण जो मनुष्य पदार्थों को समझने में असमर्थ हों और उनके प्रयोग को न जान सकें, तो उन्हें ज्योतिर्विद्वानों से जानना चाहिये ॥५॥
विषय
अजानन्व विजानन् का अन्तर
पदार्थ
(यत्) = जब (मर्त्यासः) = संसार के विषयों के ही पीछे मरनेवाले अथवा मरा-सा जीवन बितानेवाले (पाकत्रा) = [पक्तव्येन] परिपक्व करने के योग्य मनसा मन से युक्त अर्थात् हीन ज्ञान वाले नासमझ तथा (दीनदक्षा:) = आर्थिक शैथिल्य व शरीर की निर्बलता के कारण हीन उत्साह वाले पुरुष होते हैं तो वे यज्ञस्य न मन्वते यज्ञ का विचार नहीं करते। अज्ञानी व क्षीणसामर्थ्य मरे से पुरुषों में यज्ञों की भावना का उदय नहीं होता। उत्तम कर्मों व यज्ञादि का विचार तभी उत्पन्न होता है जब कि मनुष्य परिपक्व बुद्धि व यज्ञादि के लाभों को समझनेवाला होता है तथा आर्थिक व शारीरिक स्थिति के ठीक होने से पूर्ण उत्साह से युक्त होता है । (तत्) = [ then ] तब (अग्नि:) = प्रगतिशील पुरुष (होता) = सदा देकर यज्ञशेष को खाने की मनोवृत्ति वाला, (क्रतुविद्) = यज्ञों के महत्त्व को समझनेवाला, (विजानन्) = विशिष्ट ज्ञानवाला पुरुष (यजिष्ठ:) = अधिक से अधिक यज्ञशील होता है और (ऋतुश:) = [ऋतौ] ऋतु ऋतु में, सदा (देवान् यजाति) = देवयज्ञ करनेवाला होता है आधिदैविक क्षेत्र में यह देवयज्ञ 'अग्निहोत्र' है, अग्नि में डाली हुई आहुति सूर्य तक पहुँचकर सारे देवों को प्राप्त होती है, सम्पूर्ण वायुमण्डल शुद्ध होकर ठीक समय पर वर्षादि के होने से रोगों व अकाल का भय नहीं रहता । आधिभौतिक क्षेत्र में यह देवयज्ञ - विद्वानों का संग व सेवा है। इससे मनुष्य के ज्ञान का वर्धन होता है और जीवन उत्तम बनता है। अध्यात्म में यह देवयज्ञ, 'हृदयस्थ प्रभु के साथ मेल' है । इस मेल से मनुष्य पवित्र व शान्त बनता है। मनुष्य के अन्दर इस देवयज्ञ से एक अतिमानव शक्ति का उद्गम होता है।
भावार्थ
भावार्थ- ' अजानन्' पुरुष यज्ञों में प्रवृत्त नहीं होता, इस अप्रवृति का कारण आर्थिक दुर्बलता व उत्साह की कमी भी है। विजानन् पुरुष सदा यज्ञशील होता है।
विषय
यज्ञ का उपदेश
भावार्थ
(दीनदक्षाः) हीन-बल (मर्त्यासः) मनुष्य (यत्) जब (पाकत्रा मनसा) अपने न्यून ज्ञान से (यज्ञस्य) यज्ञ के अर्थात् दान, पूजा सत्संग आदि सत्कर्म के विषय में (न मन्वते) नहीं जानें (तत्) तब (क्रतु-वित्) यज्ञकर्मों का जानने वाला (विद्वान् अग्निः) ज्ञानवान्, ज्ञानप्रकाशक पुरुष, (होता) आहुति करने वा ज्ञान देनेवाला, (यजिष्ठः) उत्युत्तम यज्ञशील और दानशील होकर (देवान् ऋतुशः यजाति) देवों, विद्वानों वा काम्य फलों को चाहने वाले जनों को ऋतु अनुसार (यजाति) यज्ञ करे, उनको ज्ञान आदि प्रदान करे।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
त्रित ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्द:- १ पादनिचृत्त्रिष्टुप्। २, ५ निचृत्त्रिष्टुप्। ३, ४, ६, ७ त्रिष्टुप्॥ सप्तर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(पाकत्रा-मनसा) पक्तव्येनार्थादविपक्वेन “पाकः पक्तव्यः” [निरु० ६।१२] “देव....द्वितीयासप्तम्योर्बहुलम्” [अष्टा० ५।४।५६] बहुलग्रहणात् तृतीयायां वा प्रत्ययः, मनसा (दीनदक्षाः) क्षीणज्ञानबलाः (मर्त्यासः) मनुष्याः (यज्ञस्य न मन्वते) यज्ञं भुवनज्येष्ठं द्युमण्डलम् “यज्ञो वै भुवनज्येष्ठः” [कौ० २५।११] “यज्ञो वै भुवनम्” [तै० ३।३।७।५] द्वितीयार्थे षष्ठी व्यत्ययेन, न खलु जानन्ति (यत्-होता-क्रतुवित्-अग्निः-तत्-विजानन्) यत् ग्रहीता स्वाश्रये स्थापयिता, क्रियावन्तं ग्रहादिकं स्वाश्रये लब्धा प्रापयिता महान्-अग्निः-सूर्यो विज्ञायमानः, “कर्मणि कर्त्तृप्रत्ययः” (यजिष्ठः) अतिशयेन सर्वैः सह सङ्गतः (ऋतुशः-देवान् यजाति) कालशो यथाकालं ग्रहान् तद्गत्यां सङ्गमयति संयोजयति ॥५॥
इंग्लिश (1)
Meaning
And if we mortals, either because of immature mind or poor faith and want of expertise, do not know and do not understand and appreciate the way the divine solar yajna is going on, even so Agni, the high priest of that yajna, knowing, ordering and conducting that yajna, the most adorable pervasive all reaching partner, carries on the yajna of heavenly bodies in order according to the time and seasons.
मराठी (1)
भावार्थ
सामान्य लोक अल्पज्ञानामुळे हे जाणत नाहीत, की द्युमंडलात ग्रह ताऱ्यांना सूर्य आपल्या आश्रयाने, आकर्षण बलाने कालक्रमात, गतीने प्रेरणा देणारा आहे. हे ज्योतिषी जाणतात. अल्पज्ञानामुळे जी माणसे पदार्थांना समजण्यात असमर्थ असतील त्यांनी ज्योतिर्विद्वानाकडून जाणले पाहिजे. ॥५॥
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