ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 34/ मन्त्र 2
ऋषिः - कवष ऐलूष अक्षो वा मौजवान्
देवता - अक्षकितवनिन्दा
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
न मा॑ मिमेथ॒ न जि॑हीळ ए॒षा शि॒वा सखि॑भ्य उ॒त मह्य॑मासीत् । अ॒क्षस्या॒हमे॑कप॒रस्य॑ हे॒तोरनु॑व्रता॒मप॑ जा॒याम॑रोधम् ॥
स्वर सहित पद पाठन । मा॒ । मि॒मे॒थ॒ । न । जि॒ही॒ळे॒ ए॒षा । शि॒वा । सखि॑ऽभ्यः । उ॒त । मह्य॑म् । आ॒सी॒त् । अ॒क्षस्य॑ । अ॒हम् । ए॒क॒ऽप॒रस्य॑ । हे॒तोः । अनु॑ऽव्रताम् । अप॑ । जा॒याम् । अ॒रो॒ध॒म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
न मा मिमेथ न जिहीळ एषा शिवा सखिभ्य उत मह्यमासीत् । अक्षस्याहमेकपरस्य हेतोरनुव्रतामप जायामरोधम् ॥
स्वर रहित पद पाठन । मा । मिमेथ । न । जिहीळे एषा । शिवा । सखिऽभ्यः । उत । मह्यम् । आसीत् । अक्षस्य । अहम् । एकऽपरस्य । हेतोः । अनुऽव्रताम् । अप । जायाम् । अरोधम् ॥ १०.३४.२
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 34; मन्त्र » 2
अष्टक » 7; अध्याय » 8; वर्ग » 3; मन्त्र » 2
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अष्टक » 7; अध्याय » 8; वर्ग » 3; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(एषा) यह मेरी पत्नी (मा) मुझे (न मिमेथ) पीड़ा नहीं पहुँचाती-दुःख नहीं देती है (न जिहीळे) न अनादर करती है, तथा (सखिभ्यः-उत मह्यम्) मेरे सहयोगियों के लिये और मेरे लिये (शिवा-आसीत्) कल्याणी है-सुख देनेवाली है, परन्तु खेद है ! (अक्षस्य-एकपरस्य हेतोः) एकमात्र जुए के दोष के कारण (अहम्-अनुव्रतां जायाम्-अप-अरोधम्) मैं अनुकूल आचरण करती हुई पत्नी को न रख सका-नहीं रख सकता, वह मुझसे अलग हो जाती है या मैं स्वयं उसको नहीं रख सकता ॥२॥
भावार्थ
द्यूतदोष के कारण मनुष्य सुख देनेवाली अनुकूल पत्नी को भी अपने से अलग कर बैठता है ॥२॥
विषय
जुए से घर का बिगाड़
पदार्थ
[१] द्यूत का व्यसनी पुरुष कहता है कि (एषा) = यह मेरी पत्नी (मा न मिमेथ) = [wrangle, contradict ] मेरा कभी विरोध न करती थी, मेरे साथ कभी इसकी लड़ाई न होती थी। (न जिहीडे) = [neglect] यह मेरी कभी उपेक्षा भी न करती थी । मेरे सुख का पूरा ध्यान करती थी । (सखिभ्यः) = मेरे मित्रों के लिये (उत मह्यम्) = और मेरे लिये यह शिवा कल्याणकर (आसीत्) = थी । आये गये मेरे मित्रों का भी ध्यान करती थी । [२] परन्तु इस जूए ने एक विचित्र - सी परिस्थिति पैदा कर दी। मैंने उस (अनुव्रताम्) = अत्यन्त अनुकूल व्रतोंवाली (जायाम्) = मेरे सन्तानों को जन्म देनेवाली इस पत्नी को (एकपरस्य) = [एकः परः प्रधानं यस्य] इक्का जिसमें प्रधान है उस (अक्षस्य) = पासों से खेले जानेवाले द्यूत के (हेतोः) = कारण से (अप अरोधम्) = अपने से दूर कर दिया। न मैं जुआ खेलता, ना मेरी पत्नी मेरे से दूर होती । जुए के कारण मुझे पत्नी को भी खोना पड़ा, उस पत्नी को जो कि मेरे जीवन के सारे सुख का मूल थी ।
भावार्थ
भावार्थ- जुए से घर ही बिगड़ जाता है।
विषय
जूएख़ोर के दारिद्र्य और अधःपतन। इन्द्रिय लम्पट की बुद्धिहीनता।
भावार्थ
(एषा) यह (मा न मिमेथ) मुझे दुःख नहीं देती, (न जिहीड़े) न अनादर करती है। (सखिभ्यः उत मह्यम्) मेरे मित्रों और मेरे लिये सुखकारिणी, मंगलकारिणी (आसीत्) है, तो भी (एकपरस्य अक्षस्य) एक की प्रधानता वाले अक्ष अर्थात् जूए के (हेतोः) कारण से (अनुव्रताम् जायाम्) अनुकूल व्रत पालन करने वाली पतिव्रता स्त्री को भी (अप अरोधम्) मैं रख नहीं सकता, उसे भी हार देता हूं। (२) अध्यात्म में—बुद्धि आत्मा की विशेष शक्ति जो न हिंसा करती, न क्रोध करती है। वह सब के लिये और अपने लिये शान्तिकारक मंगलजनक होती है परन्तु एक विषय की ओर जाने वाले अक्ष अर्थात् इन्द्रिय सुख के लिये मैं पतिव्रता स्त्रीवत् उस बुद्धि को भी खो बैठता हूं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कवष ऐलुषोऽक्षो वा मौजवान् ऋषिः। देवताः- १, ७, ९, १२, १३ अक्षकृषिप्रशंसा। २–६, ८, १०, ११, १४ अक्षकितवनिन्दा। छन्द:- १, २, ८, १२, १३ त्रिष्टुप्। ३, ६, ११, १४ निचृत् त्रिष्टुप्। ४, ५, ९, १० विराट् त्रिष्टुप्। ७ जगती॥ चतुर्दशर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(एषा) इयं मे पत्नी (मा) माम् (न मिमेथ) न हिनस्ति-पीडयति (न जिहीळे) नह्यनाद्रियते “हेडृ अनादरे” [भ्वादि०] (सखिभ्यः-उत मह्यम्) सहयोगिभ्योऽपि च मह्यम् (शिवा-आसीत्) कल्याणकरी खल्वस्ति (अक्षस्य-एकपरस्य हेतोः) द्यूतस्यैकमात्रदोषप्रधानस्य हेतोरेव (अहम्-अनुव्रतां जायाम्-अप-अरोधम्) अहमनुकूलमाचरन्तीं पत्नीं नारक्षम् ॥२॥
इंग्लिश (1)
Meaning
This gentle lady, my wife, is good to me and to my friends, she never quarrels with me nor does she embarrass or hate me. Alas, for one reason, my persistent addiction to gambling, have I alienated my devoted wife totally dedicated to her life’s duty.
मराठी (1)
भावार्थ
द्यूत दोषामुळे माणूस सुख देणाऱ्या, आदर करणाऱ्या अनुकूल पत्नीलाही स्वत:पासून दूर करतो. ॥२॥
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