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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 34 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 34/ मन्त्र 6
    ऋषिः - कवष ऐलूष अक्षो वा मौजवान् देवता - अक्षकितवनिन्दा छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    स॒भामे॑ति कित॒वः पृ॒च्छमा॑नो जे॒ष्यामीति॑ त॒न्वा॒३॒॑ शूशु॑जानः । अ॒क्षासो॑ अस्य॒ वि ति॑रन्ति॒ कामं॑ प्रति॒दीव्ने॒ दध॑त॒ आ कृ॒तानि॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स॒भाम् । ए॒ति॒ । कि॒त॒वः । पृ॒च्छमा॑नः । जे॒ष्यामि॑ । इति॑ । त॒न्वा॑ । शूशु॑जानः । अ॒क्षासः॑ । अ॒स्य॒ । वि । ति॒र॒न्ति॒ । काम॑म् । प्र॒ति॒ऽदीव्ने॑ । दध॑तः । आ । कृ॒तानि॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सभामेति कितवः पृच्छमानो जेष्यामीति तन्वा३ शूशुजानः । अक्षासो अस्य वि तिरन्ति कामं प्रतिदीव्ने दधत आ कृतानि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सभाम् । एति । कितवः । पृच्छमानः । जेष्यामि । इति । तन्वा । शूशुजानः । अक्षासः । अस्य । वि । तिरन्ति । कामम् । प्रतिऽदीव्ने । दधतः । आ । कृतानि ॥ १०.३४.६

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 34; मन्त्र » 6
    अष्टक » 7; अध्याय » 8; वर्ग » 4; मन्त्र » 1
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (कितवः-तन्वा शूशुजानः पृच्छमानः सभाम्-एति) जुआ खेलनेवाला शरीर से आवेश में आता हुआ द्यूतक्रीडा में प्रसिद्ध हुआ पूछने-हेतु जुआरी की मण्डली में जाता है (जेष्यामि) प्रकट करता है कि मैं जीतूँगा (प्रतिदीव्ने-अक्षासः-अस्य कृतानि-आदधतः कामं वि तरन्ति) जुए में प्रतिपक्ष को लक्ष्य करके पाशे इसके कर्मों को भलीभाँति धारण करते हुए के यथेच्छ जय को प्रदान करते हैं ॥६॥ 

    भावार्थ

    जुआरी शरीर में आवेश खाया हुआ, बोलता हुआ जुआरियों की मण्डली में जय की इच्छा से जाता है। प्रतिपक्षी को लक्ष्य करके कि ये पाशे मुझे जय दिलाएँगे, ऐसी उसकी भावना है ॥६॥

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    विषय

    हार से इच्छा में और वृद्धि

    पदार्थ

    [१] (कितवः) = यह जुवारी (पृच्छमान:) = यह पूछता हुआ कि 'कौन-कौन आया है' (सभां एति) = द्यूत - सभा में आता है। वह उस समय जेष्यामि इति 'जीत जाऊँगा' इस भावना के कारण (तन्वा शूशुजान:) = शरीर से खूब [ दीप्यमानः ] चमक रहा होता है, खूब खुशी में फूला हुआ होता है । [२] वहाँ (प्रतिदीने) विरोधी जुवारी के लिये कृतानि पुरुषार्थ से सम्पादित धनों को (आदधतः) = धारण करते हुए (अस्य) = इस जुवारी के (कामम्) = जुए की अभिलाषा को (अक्षासः) = पासे (वितिरन्ति) = और अधिक बढ़ा देते हैं। जितना यह हारता है उतनी ही इसकी जुए की इच्छा और बढ़ती जाती है। यह बढ़-बढ़कर दाव लगाता है और सोचता है कि अब के तो अवश्य जीतूंगा । 'हार-जीत तो हुआ ही करती है, अब के हारा हूँ तो अगली बार जीतूंगा भी इस प्रकार सोचता हुआ यह जुए की खेल में और अधिक फँस जाता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- हार इसकी खेलने की इच्छा को और अधिक बढ़ा देती है । ऋषिः - कवष ऐलूष अक्षो वा मौजवान् ।

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    विषय

    जूएखोर के समान धनार्थी विवाद-कलही का वर्णन। और काम्यसुखार्थ आत्मा की इन्द्रियों के बीच स्थिति।

    भावार्थ

    (तन्वा) शरीर से (शूशुजानः) चमकता हुआ (पृच्छमानः) और पूछता हुआ, (कितवः) द्यूत का व्यसनी (सभाम् एति) द्यूतसभा में आता है और समझता है कि (जेष्यामि इति) ‘मैं अब जीतूंगा’। (प्रतिदीव्ने) प्रतिपक्षी द्यूत खिलाड़ी को पराजय करने के लिये (कृतानि) कृत नामक अक्षों को (आ दधतः) रखने वाले (अस्य) इस द्यूतन्व्यसनी की (अक्षासः) वे अक्ष (कामं वितिरन्ति) यथेष्ट धन-अभिलाषा को बहुत बढ़ाते हैं। (२) इसी प्रकार (कितवः) यह धन क्या तेरा है ? इस प्रकार धनके सम्बन्ध में विवाद करने वाला, निर्दयार्थी जन (तन्वा शूशुजानः) अपने देह से दीप्त, या संतप्त होकर (जेष्यामि इति) मैं इस मुकदमे को जीत जाऊंगा इस विचार से (पृच्छमानः) प्रतिवादी पर प्रश्न करता हुआ (सभाम् एति) धर्म-व्यवस्थापक-सभा को प्राप्त होता है। और (प्रतिदीव्ने) प्रतिपक्षी धनाकांक्षी को पराजित करने के लिये (कृतानि) अपने किये कर्मों या अधिकारों या प्रमाणों को (आ-दधतः) स्थापित करते हुए (अस्य) इसको (अक्षसः) सभा के अध्यक्षजन (कामं वितरन्ति) उसको मनचाहा धन प्रदान करते हैं और उसकी अभिलाषा को बढ़ाते हैं। (३) इसी प्रकार तेरा क्या ? इस प्रकार गर्वी पुरुष (तन्वा शूशुजानः) देह में प्रकट होकर (सभाम् एति) इन्द्रियगण की सभा में आता है इन द्वारा इस भाव से (पृच्छमानः) सभी पदार्थों की जिज्ञासा करता है। और ये इन्द्रिगण उसको (कामं वि तिरन्ति) काम्य सुख प्रदान करते हैं। वह अपने अपने सब किये कर्म-फलों को देह धारण कर भोगता, और नाना कर्म करता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कवष ऐलुषोऽक्षो वा मौजवान् ऋषिः। देवताः- १, ७, ९, १२, १३ अक्षकृषिप्रशंसा। २–६, ८, १०, ११, १४ अक्षकितवनिन्दा। छन्द:- १, २, ८, १२, १३ त्रिष्टुप्। ३, ६, ११, १४ निचृत् त्रिष्टुप्। ४, ५, ९, १० विराट् त्रिष्टुप्। ७ जगती॥ चतुर्दशर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (कितवः-तन्वा शूशुजानः पृच्छमानः सभाम्-एति) द्यूत-क्रीडी जनः शरीरेण दीप्यमानः कितवकर्मणि प्रसिद्धः पृच्छमानः प्रष्टुं यतमानः कितवः सभां गच्छति (जेष्यामि) अहं जयं करिष्यामि (प्रतिदीव्ने-अक्षासः-अस्य कृतानि-आदधतः कामं वितरन्ति) द्यूते प्रतिपक्षिणे-प्रतिपक्षिणं लक्षयित्वा-अक्षाः-अस्य कितवस्य द्यूतकर्मणि समन्ताद् धारयतः कितवस्य कामं जयं प्रयच्छन्ति ॥६॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Puffed up in body and mind, the gambler moves to the gambling house asking, even assuring, himself in mind: Shall I win? I must, this time. And his dice, held and poised in hand to defeat his rival, inflame his fire to play and win, more and more.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जुगारी शारीरिक आवेशाने बडबडत जुगारी मंडळात जय मिळविण्याच्या इच्छेने जातो. प्रतिपक्षाला लक्ष्य बनवून हे फासे मला जय मिळवून देतील अशी त्याची भावना असते. ॥६॥

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