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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 5 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 5/ मन्त्र 2
    ऋषिः - त्रितः देवता - अग्निः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    स॒मा॒नं नी॒ळं वृष॑णो॒ वसा॑ना॒: सं ज॑ग्मिरे महि॒षा अर्व॑तीभिः । ऋ॒तस्य॑ प॒दं क॒वयो॒ नि पा॑न्ति॒ गुहा॒ नामा॑नि दधिरे॒ परा॑णि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स॒मा॒नम् । नी॒ळम् । वृष॑णः । वसा॑नाः । सम् । ज॒ग्मि॒रे॒ । म॒हि॒षाः । अर्व॑तीभिः । ऋ॒तस्य॑ । प॒दम् । क॒वयः॑ । नि । पा॒न्ति॒ । गुहा॑ । नामा॑नि । द॒धि॒रे॒ । परा॑णि ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    समानं नीळं वृषणो वसाना: सं जग्मिरे महिषा अर्वतीभिः । ऋतस्य पदं कवयो नि पान्ति गुहा नामानि दधिरे पराणि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    समानम् । नीळम् । वृषणः । वसानाः । सम् । जग्मिरे । महिषाः । अर्वतीभिः । ऋतस्य । पदम् । कवयः । नि । पान्ति । गुहा । नामानि । दधिरे । पराणि ॥ १०.५.२

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 5; मन्त्र » 2
    अष्टक » 7; अध्याय » 5; वर्ग » 33; मन्त्र » 2
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (महिषा) महान् (वृषणः) पर्जन्य जलभरे मेघ (समानं नीडं वसानाः) समान-एक ही आग्नेय-अग्नि तत्त्व को ढाँपते हुए-अपने अन्दर रखते हुए (अर्वतीभिः-संजग्मिरे) विद्युत् शक्तियों से सङ्गत हो जाते हैं (ऋतस्य पदं कवयः निपान्ति) जल के प्रापणीय स्वरूप-लक्षण को वृष्टिवेत्ता मेधावी विद्वान् अपने अन्दर रखते हैं, भली-भाँति जानते हैं (गुहा पराणि नामानि दधिरे) उन उत्कृष्ट मेघस्थ जलों को वे प्राप्त करते हैं, बरसा लेते हैं ॥२॥

    भावार्थ

    आकाश में मेघ आग्नेय तत्त्व के सहारे ठहरते हैं, जब वे विद्युत् से युक्त हो जाते हैं, तब वृष्टि की ओर उन्मुख होते हैं। उनमें जल के स्वरूप को वृष्टिविज्ञानवेत्ता जन स्वरक्षित रखते हैं और जहाँ चाहते हैं, बरसा लेते हैं। इसी प्रकार ज्ञानाग्नि को धारण-कर बुद्धि ज्योति से युक्त होकर, ज्ञानामृत की वृष्टि के लक्ष्य को अपने में धारण कर विद्वान् लोग होते हैं और इच्छानुसार उसकी वृष्टि करते हैं ॥२॥

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    विषय

    नाम-स्मरण

    पदार्थ

    गतमन्त्र के अनुसार प्रभु को जाननेवाले (वृषणः) = शक्तिशाली लोग (समानं नीडम्) = प्रभु रूप एक ही आश्रय घोंसले में रहनेवाले होते हैं । अर्थात् ये सभी को प्रभु का पुत्र समझते हैं, सो प्रभु को ही सब का घर जानते हैं । प्रभु को पिता के रूप में देखनेवाले तथा सब के साथ अविरोध को रखनेवाले ये शक्तिशाली तो होते ही हैं। ये (महिषाः) = [मह पूजायाम्] प्रभु का पूजक करनेवाले प्रभु-भक्त (अर्वतीभिः) = खूब क्रियाशील इन्द्रिय रूप अश्वों से (संजग्मिरे) = सब के साथ मिलकर चलते हैं। अर्थात् इनकी इन्द्रियों की क्रियाएँ परस्पर विरोधी न होकर अनुकूलता वाली होती हैं 'संगच्छध्वम्' इस पिता से दिये गये उपदेश को ये अपने जीवन में अनूदित करनेवाले होते हैं । (कवयः) = ये तत्त्वज्ञानी पुरुष (ऋतस्य पदम्) = ऋत के मार्ग को (निपान्ति) = निश्चय से अपने जीवन में सुरक्षित करते हैं। जीवन में अनृत से दूर होकर सत्य को ही अपनाते हैं। इनकी सब क्रियाएँ ऋत व ठीक ही होती हैं । सूर्य व चन्द्रमा की तरह ठीक समय व स्थान पर क्रियाओं को करते हुए ये कल्याण के मार्ग का आक्रमण करते हैं। इसलिए कि 'मार्ग से कभी विचलित न हो जाएँ' ये (गुहा) = अपनी हृदयरूप गुफा में (पराणि नामानि दधिरे) = उत्कृष्ट नामों का धारण करते हैं । प्रभु के नाम का स्मरण इन्हें न्यायमार्ग से विचलित होने से बचाता है। वे प्रभु को याद करते हैं और उसके निर्देश के अनुसार 'ऋत' का पालन करते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु ही हम सबके घर हैं। हम मिलकर चलते हुए प्रभु के सच्चे उपासक बनते हैं। हम हृदयों में प्रभु के नाम का स्मरण करते हुए उसके ही मार्ग पर चलते हैं। न्याय मार्ग से भ्रष्ट नहीं होते ।

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    विषय

    प्रतिष्ठितों, विद्वानों के कर्तव्य।

    भावार्थ

    (वृषणः) बलवान् (महिषाः) बड़े २ पुरुष (समानं नीडं वसानाः) एक समान पद को धारण करते हुए, (अर्वतीभिः) शत्रुहिंसक सेनाओं के साथ (संजग्मिरे) मिल कर रहें। (कवयः) विद्वान् लोग (ऋतस्य पदं नि पान्ति) सत्य न्याय पद को खूब सुरक्षित रक्खें। (गुहा) बुद्धि में (पराणि नामानि) पर, सर्वोत्कृष्ट नामों, विनयकारी उपायों को (दधिरे) धारण करें। (२) वीर्यवान् बड़े प्रजपालक जन एक आश्रय में रहकर ज्ञानप्रकाशक वाणियों से युक्त हों। विद्वान् जन सत्य ज्ञान वेद से गन्तव्य तत्व की रक्षा करते हैं, वही परम प्रभु के उत्कृष्ट रूपों को अपनी बुद्धि में धारते, विचारते हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    त्रित ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्दः-१ विराट् त्रिष्टुप्। २–५ त्रिष्टुप्। ६, ७ निचृत् त्रिष्टुप्॥ सप्तर्चं सृक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (महिषाः) महान्तः “महिषः-महन्नाम” [निघ० ३।३] (वृषणः) पर्जन्याः मेघाः “वृषा-पर्जन्यः” [निघं० १।६] (समानं नीळं वसानाः) समानमाश्रयमग्निं वसाना आच्छादयन्तो वर्तन्ते (अर्वतीभिः-संजग्मिरे) ईरणवतीभिः-वेगवतीभिर्विद्युद्भिः सङ्गता भवन्ति-संयुक्ता भवन्ति “अर्वत्सु विद्युदादिषु” [यजु० ४।३१ दयानन्दः] (ऋतस्य पदं कवयः-निपान्ति) सत्यस्य-उदकस्य विज्ञानं मेधाविनो रक्षन्ति स्वस्मिन् स्थापयन्ति (गुहा पराणि नामानि दधिरे) पराणि-उपरिस्थितानि-उदकानि “नाम-उदकनाम” (निघं० १।१२) यानि गुहायामिव स्थितानि धारयन्ति ॥२॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Great, generous, animated and impregnated forces such as clouds, bearing the same one inner law and spirit of Agni, join with impetuously fast moving forces and, open ended, vibrant, expressive and expansive, observe the universal dynamics of the law, and at their centre continue to bear many other forms and forces of water and energy yet to develop and act further in evolution.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    आकाशात मेघ आग्नेय तत्त्वाच्या आधारे राहतात. जेव्हा ते विद्युतने युक्त होतात. तेव्हा वृष्टीकडे उन्मुख होतात. त्यांच्या जलस्वरूपाला वृष्टिवैज्ञानिक स्वरक्षित ठेवतात व ज्या स्थानी जशी वृष्टी करवू इच्छितात तशी वृष्टी करवितात. याच प्रकारे ज्ञानाग्नी धारण करून बुद्धीरूपी ज्योतीने युक्त होऊन, ज्ञानामृताच्या वृष्टीचे लक्ष्य बाळगून स्वत:मध्ये धारण करून विद्वान लोक इच्छानुसारत्याची वृष्टी करतात. ॥२॥

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