ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 5/ मन्त्र 3
ऋ॒ता॒यिनी॑ मा॒यिनी॒ सं द॑धाते मि॒त्वा शिशुं॑ जज्ञतुर्व॒र्धय॑न्ती । विश्व॑स्य॒ नाभिं॒ चर॑तो ध्रु॒वस्य॑ क॒वेश्चि॒त्तन्तुं॒ मन॑सा वि॒यन्त॑: ॥
स्वर सहित पद पाठऋ॒त॒यिनी॒ इत्यृ॑त॒ऽयिनी॑ । मा॒यिनी॒ इति॑ । सम् । द॒धा॒ते॒ इति॑ । मि॒त्वा । शिशु॑म् । ज॒ज्ञ॒तुः॒ । व॒र्धय॑न्ती॒ इति॑ । विश्व॑स्य । नाभि॑म् । चर॑तः । ध्रु॒वस्य॑ । क॒वेः । चि॒त् । तन्तु॑म् । मन॑सा । वि॒ऽयन्तः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
ऋतायिनी मायिनी सं दधाते मित्वा शिशुं जज्ञतुर्वर्धयन्ती । विश्वस्य नाभिं चरतो ध्रुवस्य कवेश्चित्तन्तुं मनसा वियन्त: ॥
स्वर रहित पद पाठऋतयिनी इत्यृतऽयिनी । मायिनी इति । सम् । दधाते इति । मित्वा । शिशुम् । जज्ञतुः । वर्धयन्ती इति । विश्वस्य । नाभिम् । चरतः । ध्रुवस्य । कवेः । चित् । तन्तुम् । मनसा । विऽयन्तः ॥ १०.५.३
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 5; मन्त्र » 3
अष्टक » 7; अध्याय » 5; वर्ग » 33; मन्त्र » 3
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अष्टक » 7; अध्याय » 5; वर्ग » 33; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(ऋतायिनी) सन्तान बीजरूप जल-सम्पन्न (मायिनी) सन्तानार्थ बुद्धिवाले माता-पिता (मित्वा) अपने आहार-व्यवहारों को क्रमशः समुचित माप से सेवन करके (सन्दधाते) गर्भ को संस्थापित करते हैं- गर्भसन्धान करते हैं, पुनः (शिशुं जज्ञतुः) जैसे बालक को जनते हैं (वर्धयन्ती) उसे बढ़ाते हैं, ऐसे ही (विश्वस्य चरतः ध्रुवस्य नाभिम्) समस्त गतिशील शुक्रादिमय द्युलोक तथा पृथिवीलोक के मध्य में (तन्तुं चित्) पुत्रसमान अग्नि को (कवेः) कवि-विद्वान् जन (मनसा वियन्तः) मन से विशेष जानते हुए सेवन करते हैं ॥३॥
भावार्थ
द्युलोक और पृथिवीलोक का पुत्ररूप अग्नि है, उसे विद्वान् सुरक्षित करते हैं-लाभ लेते हैं, पुत्रोत्पत्ति चाहनेवाले माता-पिता उचित आहार-व्यवहार द्वारा अपने अन्दर सन्तति बीज रस को बनावें और अपनी प्रबल शुभ भावना से गर्भाधान करें, तो उत्तम पुत्र की प्राप्ति होती है ॥३॥
विषय
मामनुस्मर बुध्य च
पदार्थ
गत मन्त्र के अनुसार प्रभु के घर में वास करनेवाले (शिशुम्) = इस [शो तनुकरणे] तीव्र बुद्धि वाले बालक को (ऋतायिनी) = सत्य वाले तथा (मायिनी) = प्रज्ञा वाले द्युलोक व पृथिवीलोक (संदधाते) = सम्यक्तया धारण करते हैं । 'द्यौष्पिता, पृथिवी माता' इस वाक्य के अनुसार द्युलोक व पृथिवीलोक इसके माता-पिता होते हैं और वे इसके जीवन में सत्य व प्रज्ञा को भरनेवाले होते हैं । द्युलोक व पृथिवी के अन्तर्गत सभी देव इनको सत्य से शुद्ध मनवाला तथा प्रज्ञा से प्रदीप्त मस्तिष्क वाला बनाने में सहायक होते हैं । इस प्रकार (वर्धयन्ती) = इसका वर्धन करते हुए ये द्युलोक व पृथिवीलोक (मित्वा) = बड़ा माप करके (शिशुं) = इस अपने सन्तान को (जज्ञतुः) = विकसित करते हैं । इनके अंग-प्रत्यंग बड़े माप करते हुए अनुपातिक व सुन्दर प्रतीत होते हैं । इस प्रकार सुन्दर मन, मस्तिष्क व शरीर वाले ये व्यक्ति (चरतः ध्रुवस्य) = जंगम व स्थावर (विश्वस्य) = सम्पूर्ण जगत् के (नाभिं) = केन्द्रभूत यज्ञ को [अयं यज्ञो भुवनस्य नाभिः ] तथा (कवेः चित् तन्तुम्) = उस क्रान्तदर्शी प्रभु के सब लोकों में ओत-प्रोत सूत्र को [सूत्रं सूत्रस्य यो विद्यात्] (मनसा) = मन से (वियन्तः) = विशेष रूप से जानेवाले होते हैं । अर्थात् ये यज्ञशील होते हैं, और सब लोकों में ओत-प्रोत सूत्र रूप प्रभु को मन से स्मरण करते हैं । इनके मन में प्रभु व हाथों में यज्ञ होते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभु में निवास करने वालों के 'मन' सत्य वाले, 'मस्तिष्क' प्रज्ञा वाले तथा 'शरीर' सुन्दर व आनुपातिक अंगों वाले होते हैं। ये सर्वलोकहितकारी कर्मों को करते हैं और इनके मन में प्रभु का स्मरण चलता है।
विषय
बालक को माता के तुल्य प्रजा राजा का पालन करे। उसका परस्पर वन और, प्रभु विषयक ज्ञान साधना।
भावार्थ
(ऋतायिनी मायिनी) अन्न वाले बुद्धिमान् माता पिता जिस प्रकार (शिशुं सं दधाते) बालक को मिलकर पोषण करते हैं (वर्धयन्ती शिशुं मित्वा जज्ञतुः) उसको बढ़ाते हुए, माप २ कर उसको बड़ा करते हैं। उसी प्रकार शास्य और शासक दोनों वर्ग भूमि आकाशवत् अधरोत्तर रहकर (ऋतायिनी) अन्न और तेज से सम्पन्न, (मायिनी) ज्ञान, धन और बल से सम्पन्न होकर (सं दधाते) मिलकर रहें। और (शिशुं) शासन करने वाले राजा को (मित्वा) बना कर (वर्धयन्तीः) उसको बढ़ाते हुए (जज्ञतुः) उसको प्रकट करें। और (चरतः ध्रवस्य) जङ्गम और स्थावर दोनों प्रकार के (विश्वस्य) जगत् के (नाभिं तन्तुं) बांधने वाले और विस्तार करने वाले को (मनसा) चित्त से, ज्ञानपूर्वक (वियन्तः) विशेष रूप से जानते हुए (कवेः) इस जगत् के परे विद्यमान प्रभु के विषय में भी (चित्) ज्ञान प्राप्त कर लेते हैं। संसार की रचना में आत्मा और प्रकृति दोनों ज्ञान, परम कारण रूप ऋत से युक्त चित् और माया, अर्थात् निर्मात्री शक्ति से युक्त होकर, इस जगत् को शिशुवत् उत्पन्न करते हैं। इस प्रकार विद्वान् लोग उन दोनों को ही, स्थावर जङ्गमात्मक संसार के नाभि और तन्तुवत् जान कर उस परम सर्वज्ञ प्रभु का स्मरण करते हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
त्रित ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्दः-१ विराट् त्रिष्टुप्। २–५ त्रिष्टुप्। ६, ७ निचृत् त्रिष्टुप्॥ सप्तर्चं सृक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(ऋतायिनी) ऋतायिन्यौ-ऋतमुदकं सन्तानबीजमेतः प्राप्नुत इति ते। णिनिः प्रत्ययः, स्त्रियामृतायिनी “अन्येषामपि दृश्यते” [अष्टा० ६।३।१३] दीर्घः, “ऋतम्-उदकनाम” [निघ० १।१२] (मायिनी) मायिन्यौ सन्ताननिर्माणे प्रज्ञावन्त्यौ-मातापितरौ (मित्वा) शनैः शनैः स्वाहारव्यवहारौ सुपरिमितौ कृत्वा (सन्दधाते) यथा गर्भं सन्धत्तः (शिशुं-जज्ञतुः) प्रशंसनीयं पुत्रं जनितवत्यौ (वर्धयन्ती) वर्धयन्त्यौ तिष्ठतः, एवं (चरतः-ध्रुवस्य विश्वस्य नाभिम्) द्युलोकस्य गतिं कुर्वतः शुक्रादिकस्य तथा पृथिवीलोकस्य “एषां लोकानामयमेव” ध्रुवमियं पृथिवी [श० ।१।२।४] संसारस्य नाभिभूतं “मध्यं वै नाभिः” [श० १।१।२।३] (तन्तुं चित्) सर्वज्ञं प्रजारूपमग्निम् “प्रजा वै तन्तुः” [ऐ० ३।११] (कवेः-मनसा वियन्तः) कवयः ‘व्यत्ययेन’ मनोभावेन विशेषतया प्राप्नुवन्तः सेवन्ते ॥३॥
इंग्लिश (1)
Meaning
The forces of law and change and the forces of form and intelligence evolving things together in measure of form and time create every new form as a lovely baby and thus, with the mind of the cosmic seer, designer and maker, extend the genetic thread of Agni, the centre seed and centre hold of the entire world of moving and non-moving versions of cosmic reality.
मराठी (1)
भावार्थ
द्युलोक व पृथ्वीलोकाचा पुत्र अग्नी आहे. विद्वान त्याला सुरक्षित ठेवतात, लाभ घेतात. पुत्रोत्पत्ती इच्छिणाऱ्या माता-पिता यांनी योग्य आहाराविहाराद्वारे आपल्यामध्ये संतती बीजरस तयार करावा व आपल्या प्रबल शुभ भावनेने गर्भाधान करावे. तेव्हा उत्तम पुत्राची प्राप्ती होते. ॥३॥
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