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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 5 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 5/ मन्त्र 6
    ऋषिः - त्रितः देवता - अग्निः छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    स॒प्त म॒र्यादा॑: क॒वय॑स्ततक्षु॒स्तासा॒मेका॒मिद॒भ्यं॑हु॒रो गा॑त् । आ॒योर्ह॑ स्क॒म्भ उ॑प॒मस्य॑ नी॒ळे प॒थां वि॑स॒र्गे ध॒रुणे॑षु तस्थौ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स॒प्त । म॒र्यादाः॑ । क॒वयः॑ । त॒त॒क्षुः॒ । तासा॑म् । एका॑म् । इत् । अ॒भि । अं॒हु॒रः । गा॒त् । आ॒योः । ह॒ । स्क॒म्भः । उ॒प॒ऽमस्य॑ । नी॒ळे । प॒थाम् । वि॒ऽस॒र्गे । ध॒रुणे॑षु । त॒स्थौ॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सप्त मर्यादा: कवयस्ततक्षुस्तासामेकामिदभ्यंहुरो गात् । आयोर्ह स्कम्भ उपमस्य नीळे पथां विसर्गे धरुणेषु तस्थौ ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सप्त । मर्यादाः । कवयः । ततक्षुः । तासाम् । एकाम् । इत् । अभि । अंहुरः । गात् । आयोः । ह । स्कम्भः । उपऽमस्य । नीळे । पथाम् । विऽसर्गे । धरुणेषु । तस्थौ ॥ १०.५.६

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 5; मन्त्र » 6
    अष्टक » 7; अध्याय » 5; वर्ग » 33; मन्त्र » 6
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    हिन्दी (4)

    पदार्थ

    (कवयः) मेधावी आप्त ऋषिजन (सप्त मर्यादाः-ततक्षुः) सात मर्यादाएँ सीमाएँ जीवन की बनाते हैं, उनका लङ्घन न करें-उन पर न पहुँचें, जो कि निरुक्त में प्रदर्शित हैं−चोरी-डाका, गुरुपत्नी से सम्भोग, ब्रह्महत्या, गर्भपात, सुरापान, पापकर्म की पुनरावृत्ति, पाप करके झूठ बोलना-पाप को छिपाना, (तासाम्-एकाम्-इत्) उन इनमें से एक को भी (अभि-यात्) पहुँचे-अपने में आरोपित करे, तो वह (अंहुरः) पापी होता है। (ह) इनसे पृथक् पुण्यात्मा (आयोः-स्कम्भः) ज्योति का स्कम्भ-ज्योतिष्पुञ्ज महान् अग्नि परमात्मा है, उस (उपमस्य) समीप वर्तमान के (नीडे) घर में-शरण में-मोक्ष में (पथां विसर्गे) जहाँ जीवनयात्रा के मार्गों का विसर्जन-त्याग होता है, ऐसे प्राप्तव्य स्थान में (धरुणेषु तस्थौ) प्रतिष्ठाओं-ऊँची स्थितियों में स्थिर हो जाता है ॥६॥

    भावार्थ

    ऋषि जन जीवनयात्रा की सात मर्यादाएँ-सीमाएँ प्रतिबन्धरेखाएँ=चोरी आदि बनाते हैं, जिनकी ओर जाना नहीं चाहिये, उनमें से किसी एक पर भी आरूढ हो जाने पर मनुष्य पापी बन जाता है। उनसे बचा रहनेवाला ऋषिकल्प होकर, जीवनयात्रा के मार्गों का अन्त जहाँ हो जाता है, ऐसी प्रतिष्ठाओं-ऊँची स्थितियों में रमण करता हुआ परम प्रकाशमान के आश्रय-मोक्ष में विराजमान हो जाता है ॥६॥

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    विषय

    सप्त मर्यादा

    शब्दार्थ

    (कवयः) कान्तदर्शी भगवान् वरुण ने (सप्त मर्यादाः) सात मर्यादाएँ (ततक्षुः) बनाई हैं (तासाम् एकाम् इत् अभिगात्) यदि कोई उनमें से एक का भी उल्लंघन कर देता है, एक मर्यादा को भी तोड़ देता है तो वह (अंहुर:) पापी होता है। परन्तु जो मनुष्य (धरुणेषु ) विपत्ति के अवसर पर, धैर्य की परीक्षा के समय (पथां विसर्गे) मार्गों के चक्कर पर भी, सात पापों को छोड़ देता है वह मनुष्य (ह) निस्सन्देह (आयोः स्कम्भः) जीवन का स्तम्भ, आदर्श होता है और (उपमस्य) उपमा देने योग्य प्रभु के (नीळे) आश्रय में (तस्थौ) रहता है, मुक्त हो जाता है, प्रभु-कृपा का अधिकारी बन जाता है ।

    भावार्थ

    प्रभु ने सात कुकर्म त्यागने की आज्ञा दी है - १. हिंसा - मन, वचन और कर्म से किसी के प्रति वैर रखना । २. चोरी करना स्वामी की आज्ञा के बिना उसके पदार्थों का उपयोग करना । ३. व्यभिचार – पर-स्त्रीगमन आदि दूषित कर्म । ४. मद्यपान - मादक ( नशा करनेवाले ) पदार्थों का सेवन । ५. जुआ खेलना । ६. असत्य भाषण करना । ७. कठोर वाणी बोलना । जो मनुष्य इनमें से एक का भी सेवन करता है वह पापी होता है । जो मनुष्य संकट आने पर भी, इन बुराइयों को त्याग देता है वह मनुष्य-जीवन का आदर्श होता है और मोक्ष का अधिकारी बनता है ।

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    विषय

    सात मर्यादाएँ

    पदार्थ

    गत मन्त्र में वर्णित सप्त ऋषियों के दृष्टिकोण से (कवयः) = ज्ञानियों ने (सप्त मर्यादा:) = सात मर्यादाओं को (ततक्षुः) = बनाया है। उदाहरणार्थ- कानों के लिए यह मर्यादा बनी कि 'सुक्रतौ कर्णौ- भद्रश्रुतौ' कान सदा उत्तम बातों के ही सुननेवाले हों। वाणी के लिए यह मर्यादा हुई कि 'भद्रवाच्याय प्रेषितो मानुषः ' भद्रवाणी ही बोलने के लिए मनुष्य को भेजा गया है। इस प्रकार बनी हुई (तासाम्) = उन मर्यादाओं में से (एकाम् इत्) = एक को भी (अभि अगात्) = उल्लंघन करके यदि कोई जाता है तो (अंहुर:) = वह पापी होता है। मर्यादा का उल्लंघन ही पाप है । वह व्यक्ति जो कि मर्यादा को पालने का इच्छुक होता है वह (ह) = निश्चय से (आयोः स्कम्भे) = गतिशील, अनालसी पुरुष के आधारभूत प्रभु में (तस्थौ) = स्थित होता है । अर्थात् उस प्रभु को अपना आधार जानता है, जो प्रभु श्रमशील पुरुष के सहारा देनेवाले हैं। आलसी व्यक्ति प्रभु कृपा का पात्र नहीं बनता । यह (उपमस्य) = अत्यन्त समीप स्थित हृदय रूप गुहा में प्रविष्ट उस प्रभु के (नीडे) = आश्रय में स्थित होता है। प्रभु को ही अपना निवास स्थान बनाता है। प्रभु को अपना आश्रय जान वह अभय होता है, (पथां विसर्गे) = मार्गों के प्रकाशभूत [विसर्ग = light, splendour] प्रभु में स्थित होता है । अन्तःस्थित प्रभु सदा ठीक मार्ग का प्रदर्शन करते हैं, प्रेरणा के द्वारा मार्ग का वे प्रतिपादन करते हैं । एवं प्रभु में स्थित होनेवाला व्यक्ति अपने कर्त्तव्य को भलीभान्ति जानता है । और तभी वह मर्यादाओं का पालन कर पाता है । अन्त में यह 'त्रित' धरुणेषु मनुष्य का धारण करनेवाले 'मन, बुद्धि व इन्द्रियों' में स्थित होता है, इनका वह अधिष्ठाता बनता है। इनको अपने वश में करके यह जीवनयात्रा को सुन्दरता के साथ निभाता है । जो इन्द्रियादि को अपने वश में नहीं कर पाता वह इन्हीं से पराजित होकर दोष को प्राप्त होता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ- हमें सभी इन्द्रियों को वश में करके मर्यादित जीवनवाला बनना है । हम यह समझ लें कि हम पुरुषार्थी होंगे तो प्रभु हमारे मित्र होंगे, प्रभु को अपना आश्रय जानेंगे तो निर्भीक होकर कार्य करेंगे। प्रभु ही हमारे मार्गदर्शक हैं, उन्होंने हमारे धारण के लिए इन्द्रियाँ, मन व बुद्धि दिये हैं ।

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    विषय

    ऋषियों की उपदिष्ट, सात मर्यादाएं। उनके उल्लंघन से पाप। मध्यस्तम्भ के समान राजा को स्थिति।

    भावार्थ

    (कवयः सप्तं मर्यादाः ततक्षुः) विद्वान् लोगों ने सात ‘मर्यादाएं’ कही हैं। मनुष्य को खाजाने या नाश करने से उनको ‘मर्यादा’ कहा है। (तासाम् एकाम् इत्) उनमें से एक को भी जो (अभि गात्) प्राप्त हो वह (अंहुरः) पापी है। (उपमस्य आयोः) समीपवर्ती मनुष्य को (स्क्रम्भः) थम्भे के समान बांधने वा थामने वाला, (पथां विसर्गे) मार्गों के विविध दिशाओं में जाने के केन्द्र स्थान में (स्कम्भः) दीपक या दिग्दर्शक स्तम्भ के रूप में वा (धरुणेषु स्कम्भः) गृह में लगे धरन के दण्डों के बीच थम्भे के समान राजा भी (धरुणेषु) राष्ट्र के बीच वा धारण करने योग्य प्रजाजनों के बीच में केन्द्रस्थ स्तम्भ के समान (तस्थौ) स्थिर होकर विराजे। राजा या व्यवस्थापक दोनों का यही कर्त्तव्य है।

    टिप्पणी

    सात मयार्दाएं—पानमक्षाः स्त्रियो मृगया दण्डः पारुष्यमन्यदूषणम् इति सप्त मर्यादाः॥ यद्वा स्तेयं गुरुतल्पारोहणं ब्रह्महत्यां सुरापानं दुष्कृतकर्मणः पुनः पुनः सेवनं पातकेऽनृतोद्यमिति। निरु०॥ सुरापान, जूआ खेलना, स्त्री, व्यसन, मृगया, कठोर दण्ड, कठोर वचन और दूसरे पर मिथ्या, दोषारोपण, ये सात कार्य मनुष्यों को भक्षण कर जाने से ‘मर्य-अदाः’ ‘मर्यादा’ कहाती है। अथवा—चोरी, गुरु-स्त्रीगमन, ब्रह्महत्या, सुरापान, दुष्कर्म का बार २ सेवन और पाप करके असत्य भाषण ये सात ‘मर्यादा’ कही हैं।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    त्रित ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्दः-१ विराट् त्रिष्टुप्। २–५ त्रिष्टुप्। ६, ७ निचृत् त्रिष्टुप्॥ सप्तर्चं सृक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (कवयः) मेधाविनः-अनूचानः-ऋषयः “कवि मेधाविनाम” [निघ० ३।१] “ये वा-अनूचानस्ते कवयः” [ऐ० २।२] “ऋषयः कवयः” [मं० ४।१०३] (सप्त मर्यादाः) जीवनयात्राया अनुल्लङ्घनीया मर्यादाः-व्यवस्थाः (ततक्षुः) चक्रुः तक्षन्ति कुर्वन्ति ताश्च यास्कोक्ताः-“स्तेयं, तल्पारोहणं, ब्रह्महत्या, भ्रूणहत्या, सुरापानं, दुष्कृतस्य कर्मणः पुनः पुनः सेवा, पातकेऽनृतोद्यमिति” [निरु० ६।२७] (तासाम्-एकाम्-इत्) तासामेकामपि (अभि-अगात्) अभिक्राम्येत् यः (अंहुरः) सः अंहस्वान् पापी भवति (ह) परन्तु तद्भिन्नः पुण्यात्मा (आयोः-स्कम्भः) ज्योतिषः स्कम्भः- पूर्णज्योतिर्मयः परमोऽग्निः परमात्मा तस्य “आयोर्ज्योतिषः” [निरु० १०।४१] (उपमस्य नीडे) उपमन्तुं योग्यस्यान्तिकतमस्य नीडे-गृहे-शरणे-मोक्षे “नीडं गृहनाम” [निघ० ६।४] (पथां विसर्गे) यत्र संसारयात्रायाः पन्थानो विसृज्यन्ते त्यज्यन्ते तत्र प्राप्तव्यस्थाने (धरुणेषु तस्थौ) प्रतिष्ठासु-उच्चस्थितिषु “प्रतिष्ठा धरुणम्” [श० ७।४।२।] तिष्ठति विराजते ॥६॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Seven are the bounds between good behaviour and evil set up by the wise. If one violates even one of them, he is a sinner. Agni is the pillar and centre hold of humanity. At the end of the journey, one, who in life has observed these bounds, reaches and rests in the shelter of the highest and closest, Agni, and abides in the highest states of being.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    ऋषिलोक जीवन यात्रेच्या सात मर्यादा सीमा प्रतिबंधरेखा (चोरी-डाका, गुरुपत्नी संभोग, ब्रह्महत्या, गर्भपात, सुरापान, पापकर्माची पुनरावृत्ती, पाप करून खोटे बोलणे, पाप लपविणे) बनवितात. त्यांचे लंघन करता कामा नये. यापैकी एखाद्यावरही आरूढ झाल्यास माणूस पापी बनतो. त्यांच्यापासून बचाव करणारा ऋषी सक्षम बनून जीवनयात्रेच्या मार्गाचा जेथे अंत होतो, अशा प्रतिष्ठायुक्त उच्च स्थितीत रमण करत परम प्रकाशमानाचा आश्रय-मोक्षामध्ये विराजमान होतो. ॥६॥

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