ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 5/ मन्त्र 4
ऋ॒तस्य॒ हि व॑र्त॒नय॒: सुजा॑त॒मिषो॒ वाजा॑य प्र॒दिव॒: सच॑न्ते । अ॒धी॒वा॒सं रोद॑सी वावसा॒ने घृ॒तैरन्नै॑र्वावृधाते॒ मधू॑नाम् ॥
स्वर सहित पद पाठऋ॒तस्य॑ । हि । व॒र्त॒नयः॑ । सुऽजा॑तम् । इषः॑ । वाजा॑य । प्र॒ऽदिवः॑ । सच॑न्ते । अ॒धी॒वा॒सम् । रोद॑सी॒ इति॑ । व॒व॒सा॒ने इति॑ । घृ॒तैः । अन्नैः॑ । व॒वृ॒धा॒ते॒ इति॑ । मधू॑नाम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
ऋतस्य हि वर्तनय: सुजातमिषो वाजाय प्रदिव: सचन्ते । अधीवासं रोदसी वावसाने घृतैरन्नैर्वावृधाते मधूनाम् ॥
स्वर रहित पद पाठऋतस्य । हि । वर्तनयः । सुऽजातम् । इषः । वाजाय । प्रऽदिवः । सचन्ते । अधीवासम् । रोदसी इति । ववसाने इति । घृतैः । अन्नैः । ववृधाते इति । मधूनाम् ॥ १०.५.४
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 5; मन्त्र » 4
अष्टक » 7; अध्याय » 5; वर्ग » 33; मन्त्र » 4
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अष्टक » 7; अध्याय » 5; वर्ग » 33; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(ऋतस्य हि) सृष्टियज्ञ-ब्रह्माण्ड के मध्य में (वर्तनयः-प्रदिवः-इषः) वर्तमान प्रकाशमान ग्रहनक्षत्रादि लोक (वाजाय सुजातं सचन्ते) गतिबल प्राप्ति के लिए सुप्रसिद्ध सूर्यरूप अग्नि को सेवन करते हैं (रोदसी) द्युलोक पृथिवीलोक (अधीवासं वावसाने) ऊपर वस्त्रसमान आच्छादन करते हुए (घृतैः-अन्नैः-मधूनाम्-वावृधाते) सूर्य से प्राप्त तेजों और अन्नों द्वारा प्रजाओं को बहुत बढ़ाते हैं ॥४॥
भावार्थ
सृष्टि या ब्रह्माण्ड में वर्तमान पिण्ड ग्रह आदि सुप्रसिद्ध अग्निरूप सूर्य से बल पाते हैं, द्युलोक और पृथिवीलोक दोनों अपने ऊपर धारण करते हैं। तेजों अन्नों-तेजशक्ति अन्नशक्ति को प्राप्त कर मनुष्यादि प्रजाओं को समृद्ध करने के लिए द्युलोक सूर्य से तेज शक्ति को लेता है, पृथिवीलोक सूर्य से अन्न शक्ति को लेता है। ऐसे ही प्रतापी गुणवान् राजा प्रजाओं को ज्ञानप्रकाश प्रदान करने की व्यवस्था तथा भोजन की व्यवस्था करे ॥४॥
विषय
ऋत की वर्तनि
पदार्थ
गत मन्त्र के अनुसार सुजातम् उत्तम शक्तियों के विकास वाले इस प्रभु-भक्त को (हि) = निश्चय से (ऋतस्य वर्तनयः) = सत्य व यज्ञ के मार्ग सचन्ते सेवन करते हैं अर्थात् प्राप्त होते हैं, यह यज्ञशील होता है तथा सदा सत्याचरण ही करता है। और (प्रदिवः) = प्रकृष्ट प्रकाश व ज्ञान से युक्त अर्थात् बुद्धि को सात्त्विक बनानेवाले (इषः) = अन्न (वाजाय) = शक्ति की वृद्धि के लिए सचन्ते प्राप्त होते हैं। यह उन्हीं अन्नों का सेवन करता है, जो अन्न इस की बुद्धि को सूक्ष्म बनाकर इसे प्रज्ञान = सम्पन्न करें तथा इस की शारीरिक शक्ति की वृद्धि का कारण हों। (रोदसी) = माता व पिता के स्थानापन्न द्युलोक व पृथिवीलोक, अर्थात् इनमें स्थित सभी प्राकृतिक शक्तियाँ इस व्यक्ति को (अधीवासं) = [अधि= उपरि ] उत्कृष्ट निवास से वावसाने आच्छादित करनेवाले होते हैं [वस आच्छादने, आच्छादयित्र्यौ सा० ] इसके जीवन को सूर्यादि सभी देव बड़ा उत्तम बनानेवाले होते हैं। ये द्युलोक व पृथिवीलोक मधूनाम् अत्यन्त मधुर जलों के सेचन से उत्पन्न हुए हुए घृतै अन्नै=मलों के क्षरण व दीप्ति वाले [घृ क्षरणदीप्त्योः] अन्नों से अथवा घृतों और अन्नों से इस व्यक्ति को वावृधाते=खूब बढ़ाते हैं। शुद्ध जलों से उत्पन्न चारों को खानेवाली व शुद्ध जलों के पीनेवाली [सूयवसाद् भगवती हि भूयाः, शुद्धा अपः सुप्रपाणे पिबन्तीः ] गौवों के दूध से प्राप्त घी भी सात्त्विक होगा और उसके सेवन से इस प्रभु-भक्त की सब शक्तियों का ठीक ही विकास होगा।
भावार्थ
भावार्थ- हम सत्य के मार्ग पर चलें, सात्त्विक अन्नों व घृतों का सेवन करें।
विषय
अन्नार्थी कृशकों आदि के तुल्य धनार्थी जनों को सूर्यवत् राजा की अपेक्षा।
भावार्थ
जिस प्रकार (ऋतस्य वर्तनयः) अन्न के उत्पादक विद्वान् लोग (वाजाय इषः) अन्न को चाहते हुए (प्रदिवः सुजातम् सचन्ते) अति तेजस्वी सूर्य से उत्पन्न मेघ को या परमाकाश में स्थित सूर्य को कारण जानते हैं उसी प्रकार (ऋतस्य वर्तनयः) ज्ञान, सत्य निर्णय और ऐश्वर्य को प्राप्त करने वाले, उसके लिये चेष्टाशील, ज्ञानार्थी, सत्यार्थी और धनार्थी लोग (वाजाय इषः) ज्ञान-ऐश्वर्य की कामना करते हुए (प्र-दिवः) उत्तम ज्ञान और तेज से (सु-जातम्) सुपूजित और प्रसिद्ध विद्वान् और राजा को (सचन्ते) प्राप्त होते हैं। (रोदसी) आकाश और भूमि दोनों (आधीवासं वावसाने) सूर्यरूप अग्नि को अपने ऊपर अध्यक्षवत् वा उत्तरीयवत् धारण करते हुए (घृतैः अन्नैः) जलों और अन्नों से (मधूनां) मधुर पदार्थों के उत्पादक अध्यक्ष सूर्य की ही महिमा बढ़ाते है उसी प्रकार (रोदसी) शत्रु को रुलाने वाला रुद्र, सेनापति और उसकी सेना दोनों मिलकर अपने ऊपर (अधीवासं वावसाने) उत्तरीय पटवत् अधिशासक नायक राजा को धारण करते हुए (घृतैः अन्नैः) जलों और अन्नों द्वारा (मधूनां) मधुर, सुखप्रद पदार्थों, ऐश्वर्यो और बलों के अध्यक्ष की ही (वावृधाते) वृद्धि करें।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
त्रित ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्दः-१ विराट् त्रिष्टुप्। २–५ त्रिष्टुप्। ६, ७ निचृत् त्रिष्टुप्॥ सप्तर्चं सृक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(ऋतस्य हि) सृष्टियज्ञस्य खलु ब्रह्माण्डस्य मध्ये (वर्तनयः-प्रदिवः-इषः) वर्तमानाः-“वर्तनिः-वर्तमानाः” [ऋ० १।१४०।३ दयानन्दः] प्रकाशमानाः प्रजारूपा नक्षत्रादयः “प्रजा वा इषः” [श० १।७।३।१४] (वाजाय सुजातं सचन्ते) सुप्रसिद्धमग्निं सूर्यरूपं सेवन्ते (रोदसी) द्यावापृथिव्यौ द्युलोकः पृथिवीलोकश्च “रोदसी-द्यावापृथिवीनाम” [निघ० ३।३] (अधीवासं वावसाने) उपरिवस्त्रमिवाच्छादयन्तौ (मधूनाम्) मनुष्याद्याः प्रजाः, व्यत्ययेन द्वितीयास्थाने षष्ठी “प्रजा वै मधुः” [जं० १।८८] (घृतैः-अन्नैः-वावृधाते) तेजोभिरन्नैश्च सूर्यात् प्राप्य वर्धयतः ॥४॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Visionary scholars who know the paths of law and change in evolution study and apply the versions of Agni evolved and developed in latest form for the achievement of new and extended food, energy and knowledge of reality which heaven and earth both sustaining all forms of life feed for extension with inputs and refinements of the honey sweets of water and energy.
मराठी (1)
भावार्थ
सृष्टी किंवा ब्रह्मांडात असलेले पिंड, ग्रह इत्यादी सुप्रसिद्ध अग्निरूप सूर्याकडून बल प्राप्त करतात. द्युलोक व पृथ्वीलोक दोन्ही आपल्यावर वस्त्रासमान आच्छादन करून तेज व अन्न = तेजशक्ती, अन्नशक्ती निर्माण करतात. प्रजेला समृद्ध करण्यासाठी द्युलोक सूर्यापासून तेजशक्ती घेतो व पृथ्वीलोक सूर्यापासून अन्नशक्ती घेतो. त्याचप्रमाणे गुणवान राजाने प्रजेला ज्ञानप्रकाश प्रदान करण्याची व्यवस्था व भोजनाची व्यवस्था करावी. ॥४॥
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