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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 5 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 5/ मन्त्र 7
    ऋषिः - त्रितः देवता - अग्निः छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    अस॑च्च॒ सच्च॑ पर॒मे व्यो॑म॒न्दक्ष॑स्य॒ जन्म॒न्नदि॑तेरु॒पस्थे॑ । अ॒ग्निर्ह॑ नः प्रथम॒जा ऋ॒तस्य॒ पूर्व॒ आयु॑नि वृष॒भश्च॑ धे॒नुः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अस॑त् । च॒ । स॒त् । च॒ । प॒र॒मे । विऽओ॑मन् । दक्ष॑स्य । जन्म॑न् । अदि॑तेः । उ॒पऽस्थे॑ । अ॒ग्निः । ह॒ । नः॒ । प्र॒थ॒म॒ऽजाः । ऋ॒तस्य॑ । पूर्वे॑ । आयु॑नि । वृ॒ष॒भः । च॒ । धे॒नुः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    असच्च सच्च परमे व्योमन्दक्षस्य जन्मन्नदितेरुपस्थे । अग्निर्ह नः प्रथमजा ऋतस्य पूर्व आयुनि वृषभश्च धेनुः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    असत् । च । सत् । च । परमे । विऽओमन् । दक्षस्य । जन्मन् । अदितेः । उपऽस्थे । अग्निः । ह । नः । प्रथमऽजाः । ऋतस्य । पूर्वे । आयुनि । वृषभः । च । धेनुः ॥ १०.५.७

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 5; मन्त्र » 7
    अष्टक » 7; अध्याय » 5; वर्ग » 33; मन्त्र » 7
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (अदितेः-उपस्थे) अविनाशी प्रकृति के उपाश्रय में (दक्षस्य जन्मन्) प्रवृद्ध जगत् के प्रादुर्भाव होने पर (सत्-च-असत्-च) नित्य चेतनतत्त्व और अनित्य जड़ वृक्षादि (परमे व्योमन्) परम व्यापक परमात्मा के अधीन प्रकट होते हैं, वह परम व्यापक (नः-प्रथमजाः-अग्निः) हमारा इष्टदेव-प्रथम प्रसिद्ध अग्नि-परम अग्नि अग्रणायक परमात्मा (ऋतस्य-पूर्वे-आयुनि) प्रकृति के प्रारम्भिक विकृति जीवन में (वृषभः-धेनुः) वीर्यसेचक पिता और धात्री-पालनेवाली माता भी है ॥७॥

    भावार्थ

    प्रकृति से प्रवृद्ध जगत् बना, इसमें चेतनतत्त्व मनुष्यादि और जड़ वृक्षादि हैं, जो परम व्यापक परमात्मा के अधीन हैं। वह प्रथम प्रसिद्ध महान् अग्नि-अग्रणायक परमात्मा प्रकृति से विकृति होने पर आदिसृष्टि के जीवन में पिता-रक्षक जनक और धात्री-माता भी होता है, आरम्भसृष्टि में परमात्मा ही माता-पिता का कार्य करता है। सदा उसकी उपासना करनी चाहिए और उसी की शरण लेनी चाहिए। इसी प्रकार राष्ट्र में राजा भी सब मनुष्यादि और वनस्पतियों के पालन करने की व्यवस्था करे, बैल आदि चार पैरवाले सवारी के योग्य पशुओं तथा दूध देनेवाली गौ आदि की ॥७॥

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    विषय

    सृष्टि का प्रारम्भ

    पदार्थ

    सृष्टि से पूर्व प्रलयावस्था में (असत् च) = यह अव्याकृत जगत् अर्थात् कार्यरूप में न आयी हुई 'प्रकृति', (सत् च) = और सत्ता रूप से रहनेवाला प्रसुप्त-सी अवस्था में पड़ा हुआ 'जीव' ये दोनों (परमे व्योमन्) = सर्वोत्कृष्ट ज्ञान सम्पन्न प्रभु में थे। उस प्रभु में जो कि 'व्योमन् ' = वी+ओम्+अन् =सर्वरक्षक होते हुए एक ओर प्रकृति को उठाये हुए हैं तो दूसरी ओर जीव को । प्रकृति 'वी' है, इसमें ही सम्पूर्ण गति होती है, यही विकृत होकर ब्रह्माण्ड के रूप में आती है और यह चमकती है, इसी के कार्यों का जीव उपभोग करता है [वी- गति प्रजनन कान्ति [वादनेषु]] । जीव 'अन्' है श्वास लेता है। ये प्रकृति और जीव सदा परमात्मा के आधार से रहते हैं । ये प्रभु प्रलयकाल की समाप्ति पर सृष्टि को जन्म देते हैं जैसे एक किसान भूमि में बीज का वपन करता है, इसी प्रकार प्रभु इस प्रकृति में बीज को बोते हैं और इस ब्रह्माण्ड का जन्म होता है इस जन्म देने के कारण प्रभु 'दक्ष'-' सब विकास [growth] को करनेवाले' कहलाते हैं। इस (दक्षस्य) = प्रजापति के (जन्मन्) = विकास की क्रिया को करने पर अर्थात् संसार को बनाने पर (अदितेः उपस्थे) = इस पृथ्वी की गोद में अर्थात् इस भूतल पर सब से प्रथम तो वे प्रभु थे जो कि (ह) = निश्चय से (नः) = हम सब के (अग्निः) = अग्रेणी हैं, आगे ले चलनेवाले हैं और (ऋतस्य) = इस सब सत्यविद्याों की प्रकाशिका वेदवाणी के (प्रथमजा:) = सर्वप्रथम 'अग्नि, वायु, आदित्य व अंगिरा: ' इस ऋषियों के हृदयों में प्रकाश करनेवाले हैं । प्रभु के अतिरिक्त इस संसार में (वृषभः च धेनुः च) = बैल व गौ अर्थात् नर व मादा, वीर्य सेचन में समर्थ 'नर' [वृषभ] तथा दूध पिलाने में समर्थ मादा [ धेनुः धेट् पाने], ये जो कि पूर्वे आयुनि= भरपूर युवावस्था में थे। न बाल थे और ना ही वृद्ध थे। इनके जीवन में सब आवश्यक तत्त्वों का पूरण हो चुका था [पूर्व पूरणे] अतएव ये अगले सन्तानों को जन्म देने में समर्थ थे । इस प्रकार इस सृष्टि का निर्माण हुआ । ' इस सृष्टि में हमें कैसे चलना है' इस विचार से अगला सूक्त प्रारम्भ होता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु ने हमें जन्म दिया और वेदज्ञान प्राप्त कराया। उसके अनुसार चलते हुए ही हम आगे बढ़ेंगे। इस सूक्त के प्रारम्भ में प्रभु को सब धनों का धरुण कहा था, [१] उस प्रभु के नामों को ही हमें हृदय में धारण करना चाहिए, [२] मन में प्रभुस्मरण करते हुए सर्वहितकारी कर्मों में लगे रहना चाहिए, [३] सत्य के मार्ग पर हम चलें और इसके लिए सात्त्विक अन्नों का ही सेवन करें, [४] इन्द्रियों को आत्मतत्त्व की ओर चलनेवाला बनाएँ, [५] मर्यादाओं को तोड़ें नहीं, [६] और वेदवाणी के अनुसार अपने जीवन को बनायें, [७] प्रभु की शरण में ही जीवन को चलायें-

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    विषय

    उत्तम अध्यक्षवत् प्रभुसर्वाश्रय।

    भावार्थ

    (परमे व्योमन्) सर्वश्रेष्ठ, विशेष रक्षा करने वाले और (दक्षस्य) बल और ज्ञान के (जन्मन्) उत्पत्ति स्थान और (अदितेः-उपस्थे) ‘अदिति’ अखण्ड वा अदीनशक्ति के धारण करने वाले अध्यक्ष पर ही (असत् च सत् च) असत् और सत् दोनों निर्भर हैं। जैसे सर्वरक्षक सर्वशक्तिमान्, प्रकृति के भी आश्रय प्रभु में व्यक्त अव्यक्त, कार्य और कारण दोनों आश्रित हैं। (नः) हमारे (ऋतस्य) सत्य ज्ञान और न्यायव्यवस्था का (प्रथम-जाः) सबसे प्रथम, मुख्य प्रकट करने वाला (अग्निः ह) निश्चय से वह सर्वप्रकाशक तेजस्वी राजा वा प्रभु है। (पूर्वे आयुनि) पहले जन समुदाय में भी वही (वृषभः च) मेघ के समान सुखों की वर्ण करने वाला और (धेनुः) माता गौ के समान पालक पोषक था। (२) वही प्रभु सत्य का प्रथम प्रकाशक और पूर्व के कल्प में भी वही (वृषभः) जगत् का धारण करने वाला और (धेनुः च) गौ के समान सर्वपोषक रहा। इति त्रयस्त्रिंशो वर्गः॥ इति पञ्चमोऽध्यायः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    त्रित ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्दः-१ विराट् त्रिष्टुप्। २–५ त्रिष्टुप्। ६, ७ निचृत् त्रिष्टुप्॥ सप्तर्चं सृक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (अदितेः-उपस्थे) अखण्डितायाः-अविनाशिन्याः प्रकृतेः-उपाश्रये “अदितिः-अविनाशिनी प्रकृतिः” [ऋ० ।४४।११ दयानन्दः] (दक्षस्य जन्मन्) प्रवृद्धस्य जगतो जन्मनि प्रादुर्भावे सति “दक्ष-वृद्धौ” [भ्वादिः] तस्मिन् (सत्-च) नित्यं चेतनतत्त्वं “सत्-नित्यम्” [ऋ० ६।१८।४ दयानन्दः] (असत्-च) अनित्यं जडं वस्तु च “असत्-अनित्यम्” [अथर्व १०।७।१० ऋग्वेदादि-भाष्यभूमिकायां दयानन्दः] (परमे व्योमन्) परमे व्यापके परमात्मनि खल्वास्तां ते उभे प्रकटीभवतः, स च परमो व्योमा (नः प्रथमजाः-अग्निः-ह) अस्माकं प्रथमप्रसिद्धः परमात्मा-अग्निः (ऋतस्य पूर्वे आयुनि) कारणस्य प्रकृतेः “ऋतम्-कारणम्” [ऋ० १।१०। दयानन्दः] जीवने सृष्टिप्रादुर्भावकाले (वृषभः-धेनुः) वीर्यसेचकः पिता, स धेनुर्धात्री माता भवति “माता धेनुः” [श० २।२।१।२१] ॥७॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Being and Becoming, constant and mutable, both in the Supreme Absolute mystery, then the seed of perfect existence in the womb of Mother Nature, and then Agni, self-manifested at the earliest stage of creative evolution, all this, our father and mother as one, was in the ultimate infinite mystery of Brahma, -the Supreme Reality, the Absolute Soul, One with its own potential Prakrti.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    प्रकृतीपासून प्रवृद्ध होऊन जग बनले यात चेतन तत्त्व मनुष्य व जड वृक्ष इत्यादी आहेत. जे परमव्यापक परमेश्वराच्या अधीन आहेत. तो प्रथम प्रसिद्ध महान अग्नी अग्रनायक परमेश्वर प्रकृतीपासून विकृती झाल्यानंतर, आदिसृष्टीच्या जीवनात-पिता, रक्षक, जनक व धात्री माताही असते. आरंभसृष्टीत परमेश्वरच माता-पिता यांचे कार्य करतो. सदैव त्याची उपासना केली पाहिजे व त्यालाच शरण गेले पाहिजे. याच प्रकारे राष्ट्रात राजानेही सर्व माणसांचे व वनस्पतींचे पालन करण्याची व्यवस्था करावी. बैल इत्यादी चार पाय असणाऱ्या पशू व दूध देणारी गाय इत्यादीचे रक्षण करावे. ॥७॥

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