ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 51/ मन्त्र 4
हो॒त्राद॒हं व॑रुण॒ बिभ्य॑दायं॒ नेदे॒व मा॑ यु॒नज॒न्नत्र॑ दे॒वाः । तस्य॑ मे त॒न्वो॑ बहु॒धा निवि॑ष्टा ए॒तमर्थं॒ न चि॑केता॒हम॒ग्निः ॥
स्वर सहित पद पाठहो॒त्रात् । अ॒हम् । व॒रु॒ण॒ । बिभ्य॑त् । आ॒य॒म् । न । इत् । ए॒व । मा॒ । यु॒नज॑न् । अत्र॑ । दे॒वाः । तस्य॑ । मे॒ । त॒न्वः॑ । ब॒हु॒धा । निऽवि॑ष्टाः । ए॒तम् । अर्थ॑म् । न । चि॒के॒त॒ । अ॒हम् । अ॒ग्निः ॥
स्वर रहित मन्त्र
होत्रादहं वरुण बिभ्यदायं नेदेव मा युनजन्नत्र देवाः । तस्य मे तन्वो बहुधा निविष्टा एतमर्थं न चिकेताहमग्निः ॥
स्वर रहित पद पाठहोत्रात् । अहम् । वरुण । बिभ्यत् । आयम् । न । इत् । एव । मा । युनजन् । अत्र । देवाः । तस्य । मे । तन्वः । बहुधा । निऽविष्टाः । एतम् । अर्थम् । न । चिकेत । अहम् । अग्निः ॥ १०.५१.४
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 51; मन्त्र » 4
अष्टक » 8; अध्याय » 1; वर्ग » 10; मन्त्र » 4
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अष्टक » 8; अध्याय » 1; वर्ग » 10; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(वरुण) हे वरणीय तथा वरनेवाले परमात्मन् ! (अहं होत्रात्-बिभ्यत्-आयम्) मैं आत्मा, जो अपने में सबको ग्रहण कर लेता है, उस मृत्यु में भय करता हुआ तेरे ध्यान को प्राप्त हुआ हूँ-तेरी शरण में आया हूँ (न-इत्-इव) न ही (देवाः-मा-अत्र युनजन्) इन्द्रियाँ मुझे अपने-अपने विषय में जोड़ें-खींचें (तस्य मे बहुधा तन्वः-निविष्टाः) उस इस मुझ आत्मा की बहुतेरी शक्तियाँ छिपी हुई हैं (एतम्-अर्थम्-अहम्-अग्निः-न चिकेत) इस अभिप्राय को लक्ष्य कर मैं आत्मा नहीं अपने को जना पाता हूँ। तथा (वरुण) हे वरने योग्य वरनेवाले जल के स्वामी ! (अहम्) मैं विद्युत् अग्नि “यह आलङ्कारिक ढंग से वर्णन है” (होत्रात्-बिभ्यत्) प्रयोक्तव्य यन्त्र से भय करता हुआ (आयन्) जलों में प्राप्त हुआ हूँ (न-इत्-एव देवाः-मा-अत्र युनजन्) न ही वैज्ञानिक जन यहाँ यन्त्र में मुझे जोड़ें (तस्य मे बहुधा तन्वः-निविष्टाः) उस इस मुझ विद्युदग्नि की बहुतेरी तरङ्गें छिपी हुई हैं (एतम्-अर्थम्-अहम्-अग्निः-न चिकेत) इस अभिप्राय को लक्षित कर मैं अपने को नहीं जना सकती ॥४॥
भावार्थ
जीवात्मा को स्वभावतः मृत्यु से भय होता है। वह भय परमात्मा की शरण और उसके ध्यान बिना दूर नहीं हो सकता। उधर इन्द्रियाँ अपने-अपने विषय में आत्मा को खींचती हैं। आत्मा की शक्तियाँ और भी छिपी हुई हैं, जिनका विकास परमात्मा की शरण लेने पर होता है, जिनसे ब्रह्मानन्द का लाभ लेता है। एवं विद्युत् की उत्पत्ति जलों से होती है, चाहे वे मेघ-जल हों या पृथिवी के जल हों। जलों का अधिपति-शक्तिकेन्द्र वरुण नाम से कहा जाता है, जो जलों के सूक्ष्म कणों को ठोस रूप देता है। वैज्ञानिक लोग जल को ताड़ित करके विद्युत् बनाकर उसका यन्त्र में प्रयोग करते हैं। विद्युत् की तरङ्गों में बहुत शक्ति है, उसका सदुपयोग करना चाहिए ॥४॥
विषय
परमेश्वर वरुण से जीव की देह-बन्धन से मुक्ति को प्रार्थना। अल्पज्ञानी नचिकेता और वरुण यम का रहस्य।
भावार्थ
(अत्र) यहां (देवाः) नाना इन्द्रियगण (न इत् एव मा युनजन्) न मुझे जोड़लें, इस कारण से (बिभ्यत्) भय करता हुआ हे (वरुण) सर्वश्रेष्ठ प्रभो ! (अहम्) मैं अपने (होत्रात्) बुलाने वाले वा ज्ञानदाता प्रभु से पृथक् होकर (आयम्) आगया हूं। (तस्य मे) उस मेरे (बहुधा तन्वः निविष्टाः) बहुत से देह मेरे गले पड़ गये। (अहम् अग्निः) मैं अग्नि रूप जीव (एतम् अर्थम्) उस तात्पर्य को, या इस मूलकारण या गन्तव्य परम पद को (न चिकेत) नहीं जानता। नचिकेत इति ‘नचिकेताः’ जो नहीं जानता अथवा जिसके रोग-दुःख दूर नहीं होते वह अल्पज्ञानी, बद्ध जीव ‘न चिकेता’ है और सर्वनियन्ता, दुःखहारी ‘यम’ है। कठोपनिषद् में प्रोक्त नाचिकेतोपाख्यान का यह मन्त्र मूल हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
१, ३, ५, ७, ९ देवा ऋषयः। २,४,६, ८ अग्निः सौचीक ऋषिः। देवता—१, ३ ५, ७, ९ अग्निः सौचीकः। २, ४, ६, ८ देवाः॥ छन्दः— १, ३ निचृत् त्रिष्टुप्। २, ५, ६ विराट् त्रिष्टुप्। ४, ७ त्रिष्टुप्। ८, ९ भुरिक् त्रिष्टुप्। नवर्चं सूक्तम्॥
विषय
अकाम उपासकों का प्रभु-दर्शन
पदार्थ
[१] अग्नि अपने छिपने के कारण पर प्रकाश डालता हुआ काव्यमय भाषा में कहता है कि हे (वरुण) = द्वेष का निवारण करनेवाले पुरुष ! (अहम्) = मैं (होत्राद्) = हवि को प्राप्त कराने रूप कर्म से, प्रतिक्षण देने के कर्म से (बिभ्यत्) = डरता हुआ (आयम्) = यह छिपने के स्थान पर आ गया हूँ । मैंने योगमाया से अपने को आवृत कर लिया है। जैसे एक ४-५ साल का बालक पिताजी को देखता है और पैसे माँगता है, इसी प्रकार हम भी उस प्रभु का उपासन करते हैं और 'प्रजा-पशु-अन्नाद्य' आदि की याचना करने लग जाते हैं। प्रभु कहते हैं कि इस हर समय याचन की प्रथा से तो मैं भी तंग आ गया और मैंने अपने को छिपा लिया, जिससे (देवा:) = देव (मा) = मुझे (अत्र) = इस देने के काम में (न इत् एव) = नांही (युनजन्) = युक्त कर दें। इस सारे वर्णन का भाव इतना ही है कि उत्तम उपासना वही है जो अकाम होकर की जाए। [२] प्रभु कहते हैं कि (एतं अर्थम्) = इस बात को तो (अहं अग्नि:) = मैं अग्नि (न चिकेत) = भूल ही गया कि (तस्य मे) = उस छिपने की कोशिष करनेवाले मेरे (तन्वः) = शरीर (बहुधा) = नाना प्रकार से (निविष्टाः) = निविष्ट हैं । पृथिवी, अन्तरिक्ष, द्युलोक आदि सभी तो मेरे शरीर हैं, सो मेरे छिपने का सम्भव ही कैसे है ? देववृत्ति के लोग तो एक-एक कण में मेरी महिमा को देखते हैं, सो ना तो मैं उन से छिप सकता हूँ और नांही उनकी याचनाओं को ठुकरा सकता हूँ ?
भावार्थ
भावार्थ - प्रभु अज्ञानियों से ही ओझल हैं, ज्ञानियों के लिये तो कण-कण में प्रत्यक्ष हो रहे हैं।
संस्कृत (1)
पदार्थः
(वरुण) हे वरणीय वरयितः परमात्मन् ! (अहं होत्रात् बिभ्यत्-आयम्) अहं खल्वात्मा, स्वस्मिन् सर्वं यद् जुहोति गृह्णाति तस्मान्मृत्योर्भयं कुर्वन् तव ध्यानमागतवान् (न-इत्-एव) नैव हि (देवाः-मा-अत्र युनजन्) इन्द्रियाणि मामत्र स्वस्वविषये योजयन्तु (तस्य मे बहुधा तन्वः-निविष्टाः) तस्य-अस्य मम-आत्मनो बहुप्रकारेण चेतयित्र्यः शक्तयोऽन्तर्हिता आसन् (एतम्-अर्थम्-अहम्-अग्निः-न चिकेत) एतमभिप्रायं लक्षयित्वा-अहमात्मा न जानामि ज्ञापयामि स्वात्मानम् “न विजानामि यदिवेदमस्मि निण्यः सन्नद्धः” [ऋ० १।१६४।३७] तथा हे (वरुण) वरणीय वरयित देव जलाधिपते ! “वरुणोऽयमधिपतिः” [तै० सं० ३।४।५।१] (अहम्) विद्युद्रूपाग्निः, “आलङ्कारिकदृष्ट्योच्यते” (होत्रात्-बिभ्यत्) प्रयोक्तव्ययन्त्राद् भयं कुर्वन् (आयन्) जलेषु-आगतवान् (न-इत्-एव देवाः-अत्र मा युनजन्) नैव हि वैज्ञानिकजनाः-अत्र यन्त्रे मां योजयन्तु (तस्य मे बहुधा तन्वः-निविष्टाः) तस्यास्य मम विद्युदग्नेस्तरङ्गाः बहुप्रकारेणात्रऽन्तर्हिताः सन्ति (एतम्-अर्थम्-अहम्-अग्निः न चिकेत) एतमभिप्रायं लक्षयित्वा-अहं विद्युदग्निर्न ज्ञापितवानात्मानम् ॥४॥
इंग्लिश (1)
Meaning
O Varuna, lord of judgement and choice, soothing spirit of waters cool in peace, afraid of self- sacrifice to the senses and to the fiery divinities, I, the soul, come to you from the burning fire. Here neither the senses nor the divinities would consume me. As such my body and body organs with all waves and vibrations are completely merged in you. Here I know no such purpose as there in the fire.
मराठी (1)
भावार्थ
जीवात्म्याला स्वाभाविकरीत्या मृत्यूचे भय वाटते. हे भय परमात्म्याला शरण गेल्याशिवाय व त्याचे ध्यान केल्याशिवाय दूर होत नाही. दुसरीकडे इंद्रिये आपापल्या विषयात आत्म्याला ओढतात. आत्म्याच्या कितीतरी शक्ती लपलेल्या असतात. ज्यांचा विकास परमात्म्याला शरण जाण्याने होतो. त्यामुळे ब्रह्मानंदाचा लाभ होतो, तसेच विद्युतची उत्पत्ती जलापासून होते. मग ते मेघजल असो, की पृथ्वीजल. जलाचा अधिपती किंवा शक्तिकेंद्र वरुण म्हणविला जातो. जो जलाच्या सूक्ष्म कणांना स्थूल रूप देतो, वैज्ञानिक लोक जलाला ताडित करून विद्युत तयार करतात व त्याचा यंत्रात उपयोग करतात. विद्युतच्या तरंगात अत्यंत शक्ती आहे. त्याचा सदुपयोग केला पाहिजे. ॥४॥
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