ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 51/ मन्त्र 5
एहि॒ मनु॑र्देव॒युर्य॒ज्ञका॑मोऽरं॒कृत्या॒ तम॑सि क्षेष्यग्ने । सु॒गान्प॒थः कृ॑णुहि देव॒याना॒न्वह॑ ह॒व्यानि॑ सुमन॒स्यमा॑नः ॥
स्वर सहित पद पाठएहि॑ । मनुः॑ । दे॒व॒ऽयुः । य॒ज्ञऽका॑मः । अ॒र॒म्ऽकृत्य॑ । तम॑सि । क्षे॒षि॒ । अ॒ग्ने॒ । सु॒ऽगान् । प॒थः । कृ॒णु॒हि॒ । दे॒व॒ऽयाना॑न् । वह॑ । ह॒व्यानि॑ । सु॒ऽम॒न॒स्यमा॑नः ॥
स्वर रहित मन्त्र
एहि मनुर्देवयुर्यज्ञकामोऽरंकृत्या तमसि क्षेष्यग्ने । सुगान्पथः कृणुहि देवयानान्वह हव्यानि सुमनस्यमानः ॥
स्वर रहित पद पाठएहि । मनुः । देवऽयुः । यज्ञऽकामः । अरम्ऽकृत्य । तमसि । क्षेषि । अग्ने । सुऽगान् । पथः । कृणुहि । देवऽयानान् । वह । हव्यानि । सुऽमनस्यमानः ॥ १०.५१.५
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 51; मन्त्र » 5
अष्टक » 8; अध्याय » 1; वर्ग » 10; मन्त्र » 5
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अष्टक » 8; अध्याय » 1; वर्ग » 10; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(अग्ने) हे अङ्गों के नेता आत्मन् ! (तमसि क्षेषि) तू अज्ञानान्धकार में निवास करता है (मनुः-देवयुः-यज्ञकामः-अरङ्कृत्य-एहि) मननशील हो इन्द्रियों की ओर जानेवाला अध्यात्मयज्ञ को चाहता हुआ अपने को समर्थ करके आ, मृत्यु से मत डर (देवयानान् पथः सुगान् कृणुहि) शरीर को प्राप्त करके इन्द्रियमार्गों को शिवसंकल्पवाले बना (सुमनस्यमानः-हव्यानि वह) सुप्रसन्न हुआ परमात्मा के प्रति स्तुति, प्रार्थना, उपासनाओं को प्रेरित कर। एवम् (अग्ने) हे यन्त्र के अग्रणेता विद्युत् अग्नि ! (तमसि क्षेषि) अज्ञात प्रसङ्ग में रहती है (मनुः-देवयुः-यज्ञकामः-अरङ्कृत्य-एहि) तू मननीय, वैज्ञानिकों के प्रति जानेवाला कलायज्ञ में कमनीय उनके कार्य में समर्थ क्रियायन्त्र में प्राप्त हो (देवयानान्-पथः सुगान् कृणुहि) वैज्ञानिकों के निर्णीत मार्गों को अच्छे गमन योग्य कर (सुमनस्यमानः-हव्यानि वह) सुविकसित हुआ प्राप्तव्य वस्तुओं को प्राप्त करा ॥५॥
भावार्थ
आत्मा समस्त अङ्गों का नेता है, इन्द्रियों के विषयों में पड़कर मृत्यु से भय करता है, परन्तु शिवसंकल्प बना कर आत्मबल प्राप्त कर और परमात्मा की स्तुति, प्रार्थना, उपासना करता हुआ मृत्यु से भय का अवसर नहीं है। एवं विद्युदग्नि यन्त्र का चालक बने बिना प्रयोग के अन्धेरे में पड़ी जैसी है, वैज्ञानिकों द्वारा यन्त्र में प्रयुक्त होकर बलवान् बनती है, यन्त्र द्वारा विविध लाभ पहुँचाता हुआ सफल तथा स्थिर रहता है ॥५॥
विषय
देह में आत्मा के बंधने का कारण।
भावार्थ
देह में आने का कारण। हे (अग्ने) अंग २ में, प्रत्येक देह में व्यापक जीव ! तू (मनुः) मननशील, संकल्प विकल्पवान् और (देव-युः) देवों, प्राणों या सुखप्रद पदार्थों की कामना वाला होकर और (यज्ञ-कामः) अपने प्राणों से संगति चाहता हुआ यजमान के (अरं कृत्य) अपने को सुशोभित करके, अन्धकार में दीपक के तुल्य (तमसि) अज्ञानमय अन्धकार में, (क्षेषि) निवास करता है। तू (सुमनस्यमानः) सुखी, सद्भावयुक्त चित्त होकर (हव्यानि) ग्राह्य ज्ञानों को (वह) धारण कर और (देव-यानान्) विद्वानों और प्राणों द्वारा जाने योग्य (पथः सुगान् कृणुहि) मार्गों को सुखप्रद बना। इति दशमो वर्गः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
१, ३, ५, ७, ९ देवा ऋषयः। २,४,६, ८ अग्निः सौचीक ऋषिः। देवता—१, ३ ५, ७, ९ अग्निः सौचीकः। २, ४, ६, ८ देवाः॥ छन्दः— १, ३ निचृत् त्रिष्टुप्। २, ५, ६ विराट् त्रिष्टुप्। ४, ७ त्रिष्टुप्। ८, ९ भुरिक् त्रिष्टुप्। नवर्चं सूक्तम्॥
विषय
'मनु - देवयु - यज्ञकाम'
पदार्थ
[१] देव अग्नि से कहते हैं कि (एहि) = आइये, आप हमें प्राप्त होइये । (मनुः) = आप ही ज्ञानी हैं, हमारे मस्तिष्क को ज्ञान के प्रकाश से द्योतित करते हैं । (देवयुः) = आप दिव्यगुणों का हमारे से [यु मिश्रणे ] मिश्रण करते हैं, हमारे मनों को दिव्य भावनाओं से पूरित करते हैं। (यज्ञकाम:) = आप यज्ञ - प्रिय हैं, हम पुत्रों को भी यज्ञों में प्रेरित करते हैं, आपकी कृपा से ही हमारे हाथ यज्ञात्मक पवित्र कर्मों में व्यापृत रहते हैं । [२] हे (अग्ने) = प्रकाशमय प्रभो ! आप ही (तमासि) = अन्धकार में, जब जीवन की उलझनों में पड़कर हमें अन्धकार ही अन्धकार प्रतीत होता है उस समय (अरंकृत्य) = हमारे मस्तिष्क को ज्ञान से, हृदय को दिव्य भावनाओं से और हाथों को यज्ञों से अलंकृत करके (आक्षेषि) = [क्षि नि सगत्योः] उत्तम निवास व गतिवाला करते हैं । [३] आप हमारे लिये (देवयानान् पथः) = देवयान मार्गों को (सुगान्) = सुगमता से चलने योग्य (कृणुहि) = करिये । यद्यपि 'क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया, दुर्गं पथस्तत् कवयो वदन्ति' यह धर्म का मार्ग छुरे की धार के समान बड़ा तीक्ष्ण है और इस पर चलना आसान नहीं है, तो भी हम आपकी कृपा से इस पर सुगमता से आक्रमण कर सकें। [२] और हे अग्ने ! आप (सुमनस्यमानः) = हमारे कर्मों से प्रीणित होते हुए (हव्यानि =) वह हमें हव्य पदार्थों को प्राप्त कराइये। इन पवित्र पदार्थों को प्राप्त करके हम अपनी जीवनयात्रा को सुन्दरता से पूर्ण कर सकें।
भावार्थ
भावार्थ- 'मनु देवयु व यज्ञकाम' प्रभु ही हमें अन्धकार में प्रकाश को प्राप्त कराके उत्तम निवास व गतिवाला करते हैं। प्रभु कृपा से हम देवयान मार्ग पर सुगमता से आक्रमण करनेवाले हों और हव्य पदार्थों को प्राप्त करके जीवनयात्रा को सुन्दरता से पूर्ण करें ।
संस्कृत (1)
पदार्थः
(अग्ने) हे ! अङ्गानां नेतरात्मन् ! (तमसि क्षेषि) अज्ञानान्धकारे निवससि (मनुः-देवयुः-यज्ञकामः अरङ्कृत्य-एहि) मननशीलः सन्निन्द्रियाणि प्रति गन्ताऽध्यात्मयज्ञं कामयमानः स्वात्मानं समर्थं कृत्वा खल्वागच्छ, मृत्योर्भयं मा कार्षीः (देवयानान् पथः सुगान् कृणुहि) शरीरं प्राप्य हीन्द्रियमार्गान् शिवसङ्कल्पमयान् कुरु (सुमनस्यमानः-हव्यानि वह) सुप्रसन्नः सन् परमात्मानं प्रति स्तुतिप्रार्थनोपासनानि प्रापय। एवम् (अग्ने) हे यन्त्रस्याग्रणेतो विद्युदग्ने ! (तमसि क्षेषि) अज्ञाते प्रसङ्गे निवससि (मनुः-देवयुः-यज्ञकामः-अरङ्कृत्य-एहि) मननीयो वैज्ञानिकान् प्रति गन्ता कलायज्ञे काम्यमानो वैज्ञानिकैः कार्ये समर्थः क्रियमाणः सन् यन्त्रे प्राप्नुहि (देवयानान् पथः सुगान् कृणुहि) वैज्ञानिकैर्निर्णीतान् मार्गान् सुष्ठुगमनयोग्यान् कुरु (सुमनस्यमानः-हव्यानि वह) सुविकसितः सन् प्राप्तव्यानि वस्तूनि प्रापय ॥५॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Agni, come, you are the soul, director of your divine senses and mind, thoughtful and intelligent, lover of divinities, dedicated to yajna. But you are still steeped in darkness. Come, get ready for yajnic performer. Prepare the paths of divinity for yourself and, happy at heart, carry the holy fragrances to the divinities by yajna.
मराठी (1)
भावार्थ
आत्मा संपूर्ण अंगांचा नेता आहे. इंद्रियांच्या विषयात रमून मृत्यूचे भय बाळगतो; परंतु शिवसंकल्पयुक्त बनून आत्मबल प्राप्त करून परमात्म्याची स्तुती, प्रार्थना, उपासना करत मृत्यूच्या भयापासून दूर होऊ शकतो. मानवाने विद्युत यंत्रात प्रयोग न केल्यास ती तशीच राहते. वैज्ञानिकांद्वारे यंत्रात प्रयुक्त होऊन बलवान बनते. यंत्राद्वारे विविध लाभ करून देते. सफल व स्थिर राहते. ॥५॥
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