ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 51/ मन्त्र 6
अ॒ग्नेः पूर्वे॒ भ्रात॑रो॒ अर्थ॑मे॒तं र॒थीवाध्वा॑न॒मन्वाव॑रीवुः । तस्मा॑द्भि॒या व॑रुण दू॒रमा॑यं गौ॒रो न क्षे॒प्नोर॑विजे॒ ज्याया॑: ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒ग्नेः । पूर्वे॑ । भ्रात॑रः । अर्थ॑म् । ए॒तम् । र॒थीऽइ॑व । अध्वा॑नम् । अनु॑ । आ । अ॒व॒री॒वु॒रिति॑ । तस्मा॑त् । भि॒या । व॒रु॒ण॒ । दू॒रम् । आ॒य॒म् । गौ॒रः । न । क्षे॒प्नोः । आ॒वि॒जे॒ । ज्यायाः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अग्नेः पूर्वे भ्रातरो अर्थमेतं रथीवाध्वानमन्वावरीवुः । तस्माद्भिया वरुण दूरमायं गौरो न क्षेप्नोरविजे ज्याया: ॥
स्वर रहित पद पाठअग्नेः । पूर्वे । भ्रातरः । अर्थम् । एतम् । रथीऽइव । अध्वानम् । अनु । आ । अवरीवुरिति । तस्मात् । भिया । वरुण । दूरम् । आयम् । गौरः । न । क्षेप्नोः । आविजे । ज्यायाः ॥ १०.५१.६
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 51; मन्त्र » 6
अष्टक » 8; अध्याय » 1; वर्ग » 11; मन्त्र » 1
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अष्टक » 8; अध्याय » 1; वर्ग » 11; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(वरुण) हे परमात्मन् ! (अग्नेः पूर्वे भ्रातरः) अङ्गों के नायक मुझ आत्मा के सजातीय मेरे जैसे पूर्व आत्माएँ (एतम्-अर्थम्) इस अर्थनीय देह को (रथी-इव-अध्वानम्-अनु-आवरीवुः) रथवान् जैसे मार्ग को घेरता है, उसकी भाँति देह को भली प्रकार घेरते रहे वे मृत हो गए, देह त्याग गए (तस्मात्-भिया) उस मृत्यु के भय से (दूरम्-आयम्) मैं दूर छिप जाता हूँ (गौरः-न क्षेप्नोः-ज्यायाः-अविजे) जैसे गौर मृग ज्या-धनुष् की डोरी से बाण फेंकनेवाले से दौड़ जाता है एवं (वरुण) जल के स्वामी (अग्नेः पूर्वे भ्रातरः) मुझ विद्युदग्नि के पूर्व सजातीय सूर्यकिरणें (एतम्-अर्थम्) इस यन्त्र विशेष को (रथी-इव-अध्वानम्-अनु-आ वरीवुः) रथवान् जैसे मार्ग को बहुत घेरता है, उसी भाँति यन्त्र विशेष को घेरते हुए विनष्ट हो जाते रहे मैं भी विनष्ट हो जाऊँ (तस्मात्-भिया) उस विनाशभय से (दूरम्-आगमम्) दूर चला जाता हूँ (गौरः-न मृगः-क्षेप्नोः-ज्यायाः-अविजे) गौर मृग जैसे धनुष् की डोरी से बाण फेंकनेवाले से भय खाकर भाग जाता है ॥६॥
भावार्थ
आत्मा शरीर में जन्म लेकर आता है। जैसे-जैसे बड़ा होता जाता है, अपने सामने अपने बड़ों को मरते देखता है, तो ज्ञानवान् आत्मा को मृत्यु से भय लगता है, शरीर से ग्लानि होती है, परन्तु परमात्मा की ओर जैसे-जैसे चलता है, उसकी स्तुति करता है, भयरहित होता है। एवं यन्त्र में प्रयुक्त अग्नि-विद्युदग्नि क्षीण होती जाती है, परन्तु उसकी क्षीणता से यन्त्रचालन में उसका महत्त्व बढ़ता है ॥६॥
विषय
रथी के समान मार्गगामी विद्वानों के कर्त्तव्य। आत्मा का अपने को असहाय देख कर भयभीत होना और प्रभु से मार्ग-दर्शन की याचना।
भावार्थ
(रथी इव अध्वानम्) रथी जिस प्रकार मार्ग को तय करता है, उसी प्रकार (अग्नेः भ्रातरः) अग्नि आत्मा को धारण करने वाले (पूर्वे) पूर्व के विद्वान् जन (एतम् अर्थम्) उस प्राप्तव्य सन्मार्ग को ही (अनु आवरीवुः) एक के पीछे एक चलते रहते हैं। परन्तु हे (वरुण) सर्वश्रेष्ठ प्रभो ! मैं तो (भिया दूरम् आयम्) भय से दूर आचुका हूं, मेरा कोई साथी नहीं रहा, मैं किस के पीछे जाऊं ? (तस्मात्) इसलिये (क्षेप्नोः ज्यायाः गौरः न) धनुष् धारी की डोरी से भयभीत मृग के समान (अविजे) बहुत ही भयभीत, घबराया हुआ हूं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
१, ३, ५, ७, ९ देवा ऋषयः। २,४,६, ८ अग्निः सौचीक ऋषिः। देवता—१, ३ ५, ७, ९ अग्निः सौचीकः। २, ४, ६, ८ देवाः॥ छन्दः— १, ३ निचृत् त्रिष्टुप्। २, ५, ६ विराट् त्रिष्टुप्। ४, ७ त्रिष्टुप्। ८, ९ भुरिक् त्रिष्टुप्। नवर्चं सूक्तम्॥
विषय
पूर्वे भ्रातरः
पदार्थ
[१] अग्नि देवों से कहता है कि हे देवो ! (तुम अग्नेः) = मुझ अग्नि नामक प्रभु के (पूर्वे भ्रातरः) = [भृ= भरणे] पहले भरण करनेवाले होते हो। ये देव भी पहले प्रभु की प्राप्ति की भावना का ही हृदय में भरण करते हैं। परन्तु प्रभु ने दर्शन दिये, तो फिर (एतं अर्थम्) = इस धन का ही (अन्वावरीवुः) = वे वरण करते हैं, प्रभु से धन की ही याचना करते हैं । उसी प्रकार याचना करते हैं (इव) = जैसे कि (रथी) = एक रथ- स्वामी (अध्वानम्) = मार्ग का वरण करता है, जैसे वह यही कामना करता है कि मैं मार्ग का अतिक्रमण कर पाऊँ, इसी प्रकार ये देव भी जीवनयात्रा की पूर्ति के लिये आवश्यक समझकर इस धन की याचना करते हैं। [२] प्रभु कहते हैं कि हे (वरुण) = प्राणापान की साधना करनेवाले [मित्रा वरुण-व्रण 'पूर्वपद लेष] अथवा द्वेष का निवारण करनेवाले जीव ? मैं (तस्माद् प्रिया) = इसी कारण इस भय से कि तू माँगेगा, (दूरं आयम्) = मैं यहाँ तेरे से दूर छिप गया हूँ, मैंने माया से अपने को आवृत कर लिया है। मैं तो (अविजे) = तेरे इस माँगने के भय से ऐसे डरता हूँ कि (न) = जैसे (क्षेप्नो:) = तीरों को फेंकनेवाले व्याधे की (ज्यायाः) = धनुष की डोरी से (गौरः) = गौर मृग डरता है। धन को जीव माँगता है और धन के मिल जाने पर उसी प्रभु को भूल जाता है, प्रभु का भय यही है कि कहीं यह जीव धन में ही आसक्त न हो जाए !
भावार्थ
भावार्थ - मानव स्वभाव यह है कि प्रभु की आराधना करता है, प्रभु से धन माँगता है । धन मिल जाने पर प्रभु को भूल जाता है ।
संस्कृत (1)
पदार्थः
(वरुण) हे परमात्मन् ! (अग्नेः पूर्वे भ्रातरः) अङ्गानां नायकस्यात्मनो मम पूर्वे सजातयो मम सदृशा आत्मानः (एतम् अर्थम्) इममर्थनीयं देहम् (रथी-इव-अध्वानम्-अनु-आवरीवुः) रथवान् यथा मार्गमावृणोति तद्वद्-देहं भृशामावृण्वन्ति स्म ते मृताः (तस्मात्-भिया) तस्मान्मृत्योर्भयेन (दूरम्-आयम्) दूरमन्तर्हितं गच्छामि (गौरः-न क्षेप्तोः-ज्यायाः-अविजे) यथा गौरो मृगो ज्यातो वाणप्रक्षेप्तुर्भयात् पलायते तद्वदहमात्मा भयादन्तर्हितो भवामि। एवं (वरुण) जलाधिपतेः (अग्नेः पूर्वे भ्रातरः) मम विद्युद्रूपाग्नेः सजातयो सूर्यरश्मयः (एतम्-अर्थम्) एतं यन्त्रविशेषम् (रथीइव-अध्वानम्-अनु-आवरीवुः) रथवान् यथा मार्गं भृशमावृणोति तद्वद्, यन्त्रविशेषमा-वृण्वन्तो विनष्टाः पुनरहमपि विनष्टो भविष्यामि (तस्मात्-भिया) तस्माद्विनाशभयेन (दूरम्-आयम्) दूरं गच्छामि न यन्त्रे प्रविशामि (गौरः-न ज्यायाः क्षेप्नोः-अविजे) पूर्ववत् ॥६॥
इंग्लिश (1)
Meaning
O Varuna, earlier my brothers created the same paths for themselves as a charioteer selects the road for himself, but they went off. For that reason I have come this far to you here, and I tremble with fear as a deer shakes with fear from the twang of the bow string of a hunter.
मराठी (1)
भावार्थ
आत्मा शरीरात जन्म घेतो व जसजसा मोठा होत जातो व आपल्यासमोर आपल्या मोठ्या लोकांना मरताना पाहतो. तेव्हा ज्ञानी आत्मा मृत्यूला घाबरतो. शरीराबद्दल ग्लानी उत्पन्न होते; परंतु जसजसा परमात्म्याकडे वळतो, त्याची स्तुती करतो तसतसे भयरहित होतो व यंत्रात प्रयुक्त अग्नी विद्युदग्नी क्षीण होत जातो; परंतु त्याच्या क्षीणतेने यंत्र चालनात त्याचे महत्त्व वाढते. ॥६॥
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