ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 51/ मन्त्र 8
प्र॒या॒जान्मे॑ अनुया॒जाँश्च॒ केव॑ला॒नूर्ज॑स्वन्तं ह॒विषो॑ दत्त भा॒गम् । घृ॒तं चा॒पां पुरु॑षं॒ चौष॑धीनाम॒ग्नेश्च॑ दी॒र्घमायु॑रस्तु देवाः ॥
स्वर सहित पद पाठप्र॒ऽया॒जान् । मे॒ । अ॒नु॒ऽया॒जान् । च॒ । केव॑लान् । ऊर्ज॑स्वन्तम् । ह॒विषः॑ । द॒त्त॒ । भा॒गम् । घृ॒तम् । च॒ । अ॒पाम् । पुरु॑षम् । च॒ । ओष॑धीनाम् । अ॒ग्नेः । च॒ । दी॒र्घम् । आयुः॑ । अ॒स्तु॒ । दे॒वाः॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्रयाजान्मे अनुयाजाँश्च केवलानूर्जस्वन्तं हविषो दत्त भागम् । घृतं चापां पुरुषं चौषधीनामग्नेश्च दीर्घमायुरस्तु देवाः ॥
स्वर रहित पद पाठप्रऽयाजान् । मे । अनुऽयाजान् । च । केवलान् । ऊर्जस्वन्तम् । हविषः । दत्त । भागम् । घृतम् । च । अपाम् । पुरुषम् । च । ओषधीनाम् । अग्नेः । च । दीर्घम् । आयुः । अस्तु । देवाः ॥ १०.५१.८
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 51; मन्त्र » 8
अष्टक » 8; अध्याय » 1; वर्ग » 11; मन्त्र » 3
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अष्टक » 8; अध्याय » 1; वर्ग » 11; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(देवाः) हे इन्द्रिय देवो ! तुम (प्रयाजान् च-अनुयाजान् केवलान् मे) प्रकृष्ट भोक्तव्य अन्नादि पदार्थ स्थूल भोगों को तदनुरूप पेय पदार्थों को, जो शुद्ध कल्याणकारक हैं, उनको मुझ आत्मा के लिए (हविषः-भागम्-ऊर्जस्वन्तं दत्त) ग्राह्य विषय के भाग-तेजवाले ज्ञान को दो (च) तथा (अपां वृतम्) प्राणों के तेज को (ओषधीनां पुरुषम्) ओषधियों के बहुत सेवनीय बल को (च) और (अग्नेः-दीर्घम्-आयुः-अस्तु) मुझ अग्नि-आत्मा का दीर्घ आयु मोक्षविषयक आयु हो। एवं (देवाः) हे वैज्ञानिक विद्वानों ! तुम (प्रयाजान् च-अनुयाजान् केवलान् मे) प्रकृष्ट संगमनीय-धनात्मक अनुकृष्ट संगमनीय-ऋणात्मक तार पदार्थों को पृथक्-पृथक् हुओं को मुझ विद्युत् अग्नि के लिए (हविषः-भागम्-ऊर्जस्वन्तं दत्त) ग्राह्य वज्र के सेवन करने योग्य बेग को दो (अपां वृतम्) जलादियों से उत्पन्न हुए तेज को (ओषधीनां पुरुषम्) ओष-उष्णत्व धारण करनेवाले पदार्थों के बहुप्रकार के उष्णत्व तेज को (च) और (अग्नेः-च दीर्घम्-आयुः-अस्तु) मुझ विद्युत् अग्नि का लम्बा अयन-गतिक्षेत्र हो ॥८॥
भावार्थ
आत्मा को अर्थात् मनुष्य को इन्द्रियों द्वारा ऐसे भक्षणयोग्य पदार्थ और पेयपदार्थ लेने चाहिए, जिससे इस संसार में दीर्घजीवन मिले और इन्द्रियविषयों का सेवन ऐसे करें, जिससे संसार में फँस न सके, अपितु मोक्ष का दीर्घ जीवन मिले। एवं वैज्ञानिक जन जल ओषधि और खनिज पदार्थों द्वारा विद्युत् का आविष्कार ऐसा करें, जिससे कि उसके धनात्मक ऋणात्मक बलों के द्वारा उसका गतिक्रम लम्बा चले ॥८॥
विषय
दीर्घजीवन के साधनों की याचना।
भावार्थ
हे (देवाः) दानशील, विद्वान् जनो ! (मे) मुझे (प्रयाजान्) उत्तम २ दान और (केवलान्) केवल, असाधारण (अनुयाजान्) कर्मानुरूप उत्तम दातव्य फल तथा (हविषः ऊर्जस्वन्तम् भागम्) अन्न का बल युक्त वह अंश जो (घृतम्) तेजोयुक्त हो और (अपां च ओषधीनां च पुरुषम्) देहस्थ रसों और तापधारक तत्वों के बीच पुरुष अर्थात् बहुतसी इन्द्रियों में विभक्त तेज (दत्त) प्रदान करो। जिससे (अग्नेः च) इस देह में प्राप्त जीव का (आयुः) आयु (दीर्घं) दीर्घ हो।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
१, ३, ५, ७, ९ देवा ऋषयः। २,४,६, ८ अग्निः सौचीक ऋषिः। देवता—१, ३ ५, ७, ९ अग्निः सौचीकः। २, ४, ६, ८ देवाः॥ छन्दः— १, ३ निचृत् त्रिष्टुप्। २, ५, ६ विराट् त्रिष्टुप्। ४, ७ त्रिष्टुप्। ८, ९ भुरिक् त्रिष्टुप्। नवर्चं सूक्तम्॥
विषय
अग्नि का दीर्घ जीवन
पदार्थ
[१] देवों के धनासक्त न होने के संकल्प को ही दृढ़ करने के लिये प्रभु कहते हैं कि गत मन्त्र की प्रार्थना के अनुसार मैं तुम्हें धन तो प्राप्त कराऊँगा, पर तुम उन धनों का यज्ञमय विनियोग करते हुए (प्रयाजान् मे) = प्रयाजों को मेरे लिये प्राप्त कराना (च) = तथा (अनुयाजान् केवलान्) = [मे] अनुयाजों को भी शुद्ध मेरे लिये ही रखना। यज्ञ के प्रारम्भ में दी जानेवाली आहुतियाँ प्रयाज हैं और मुख्य यज्ञ के हो जाने पर पीछे दी जानेवाली आहुतियाँ अनुयाज हैं । यहाँ जीवनयज्ञ में हमें वेतनादि के रूप में धन मिला तो हम प्रारम्भ में इस धन की यज्ञ में आहुतियाँ देकर बचे हुए धन को ही अपने लिये व्ययित करें। कुछ बच गया तो उससे कोई अन्य सुख-साधन जुटाने की अपेक्षा उसे भी लोकहित के रूप में दे डालें। पहले दिया गया धन प्रयाजरूप है, पीछे दिया गया अनुयाजरूप प्रभु कहते हैं कि तुम प्राप्त हुई हुई (हविषः) = इस हवि के (ऊर्जस्वन्तं भागम्) = उत्कृष्ट भाग को मेरे लिये (दत्त) = दे डालो। लोकहित में इसका विनियोग ही मेरे लिये देना है। [२] (च) = और (अपां घृतम्) = जलों के सारभूत अथवा जलों से उत्पन्न इस घृत को (च) = और (ओषधीनाम्) = ओषधियों से उत्पन्न अन्नजनित वीर्य से बने इस पुरुष शरीर को भी मेरे लिये [दत्त] देनेवाले बनो । यहाँ प्रसंगवश प्रभु की महिमा का भी स्मरण करा दिया गया है, [क] किस प्रकार गौवें जल पीती हैं, वह अन्दर शरीर में जाकर, दुग्ध रूप में परिवर्तित होकर, घृत को देनेवाला बनता है, [ख]ओषधि जनित वीर्यकण से किस प्रकार यह अद्भुत शरीर बन जाता है। [३] हे (देवा:) = देवो ! तुम्हारे जीवन में (अग्नेः) = इस यज्ञाग्नि का (आयुः च) = आयु भी (दीर्घं अस्तु) = दीर्घ हो । यह यज्ञाग्नि तुम्हारे जीवनों में विलुप्त न हो जाए। यदि यज्ञिय भावना बनी रही तो धन के कारण किसी प्रकार की हानि न होगी।
भावार्थ
भावार्थ - हम धन को प्राप्त करके उसका यज्ञों में विनियोग करें। यज्ञशेष का ही सेवन करें।
संस्कृत (1)
पदार्थः
(देवाः) हे इन्द्रियदेवाः ! यूयम् (प्रयाजान् च-अनुयाजान् केवलान्-मे) प्रकृष्टं भोक्तव्यान्नादिपदार्थान् स्थूलभोगान् “अन्नं वै प्रयाजाः” [कठ० ९।१] अनुयाजान्-तदनुरूपपेयान् पदार्थान् च केवलान् शुद्धान् कल्याणकरान् मह्यं (हविषः-भागम्-ऊर्जस्वन्तं दत्त) ग्राह्यस्य विषयस्य भागं ज्ञानं तेजस्विनं दत्त (च) तथा (अपां घृतम्) प्राणानां तेजः (ओषधीनां पुरुषम्) ओषधीनां बहु सेवनीयं बलम्, तथा (अग्नेः-दीर्घम्-आयुः-अस्तु) अग्नेर्ममात्मनो दीर्घमायुर्मोक्षविषयं भवतु। तथा (देवाः) हे वैज्ञानिकाः-यूयम् (प्रयाजान्-अनुयाजान्-च केवलान् मे) प्रकृष्टसङ्गमनीयान्-अनुकृष्टसङ्गमनीयान् धनर्णात्मकान् तन्त्रीपदार्थान् केवलान् पृथक्पृथग्भूतान् मह्यम् (हविषः-भागम्-ऊर्जस्वन्तं दत्त) ग्राह्यस्य कुत्सस्य वज्रस्य भजनीयं बलिनं वेगं दत्त तथा (अपां घृतम्) जलानां जलादिभ्य उद्भवं तेजः (ओषधीनां पुरुषम्) ओषं धारयतां पदार्थानां बहुविधमुषं तेजः (अग्नेः-च दीर्घम्-आयुः-अस्तु) मम विद्युद्रूपाग्नेश्च दीर्घमयनं गमनक्षेत्रं भवतु ॥८॥
इंग्लिश (1)
Meaning
O Devas, give me the prayaja, food part of yajnic offerings, and the anuyaja, supplimentary part of food, and that part of the offerings which gives energy, light and vision, the lustre of liquid energy, vitality from herbs and plants, long age of health for the soul and freedom from death. O Devas, brilliant, illuminative generous givers. Give me only that part which is mine.
मराठी (1)
भावार्थ
आत्म्याला अर्थात माणसाला इंदियांद्वारे असे भक्षणयोग्य पदार्थ व पेय पदार्थ घेतले पाहिजेत ज्यामुळे या संसारात दीर्घ जीवन मिळावे व वैज्ञानिकांनी जल औषधी व खनिज पदार्थांद्वारे विद्युतचा आविष्कार असा करावा ज्यामुळे त्याच्या धनात्मक, ऋणात्मक बलांद्वारे त्याचा गतिक्रम खूप दिवस चालावा. ॥८॥
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