ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 51/ मन्त्र 7
कु॒र्मस्त॒ आयु॑र॒जरं॒ यद॑ग्ने॒ यथा॑ यु॒क्तो जा॑तवेदो॒ न रिष्या॑: । अथा॑ वहासि सुमन॒स्यमा॑नो भा॒गं दे॒वेभ्यो॑ ह॒विष॑: सुजात ॥
स्वर सहित पद पाठकु॒र्मः । ते॒ । आयुः॑ । अ॒जर॑म् । यत् । अ॒ग्ने॒ । यथा॑ । यु॒क्तः । जा॒त॒ऽवे॒दः॒ । न । रिष्याः॑ । अथ॑ । व॒हा॒सि॒ । सु॒ऽम॒न॒स्यमा॑नः । भा॒गम् । दे॒वेभ्यः॑ । ह॒विषः॑ । सु॒ऽजा॒त॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
कुर्मस्त आयुरजरं यदग्ने यथा युक्तो जातवेदो न रिष्या: । अथा वहासि सुमनस्यमानो भागं देवेभ्यो हविष: सुजात ॥
स्वर रहित पद पाठकुर्मः । ते । आयुः । अजरम् । यत् । अग्ने । यथा । युक्तः । जातऽवेदः । न । रिष्याः । अथ । वहासि । सुऽमनस्यमानः । भागम् । देवेभ्यः । हविषः । सुऽजात ॥ १०.५१.७
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 51; मन्त्र » 7
अष्टक » 8; अध्याय » 1; वर्ग » 11; मन्त्र » 2
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अष्टक » 8; अध्याय » 1; वर्ग » 11; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(जातवेदः-अग्ने) हे उत्पन्न शरीर में जानने योग्य अङ्गों के नायक आत्मन् ! (यत्-अजरम्-आयुः) जो जरारहित आयु है (ते) तेरे लिए (कुर्मः) करते हैं (युक्तः-यथा न रिष्याः) उससे युक्त हुआ जैसे न मर सके (अथ सुमनस्यमानः) अनन्तर सुप्रसन्न हुआ (सुजात) हे शोभन जन्मवाले या सुप्रसिद्ध ! (देवेभ्यः-हविषः-भागं वहासि) इन्द्रियों के लिए ग्राह्य विषय के भजनीयलाभ को प्राप्त हो। तथा (जातवेदः-अग्ने) हे उत्पन्न होते ही जानने योग्य यन्त्र के अग्रणायक विद्युत् अग्ने ! (यत्-अजरम्-आयुः) जो अजीर्ण-न क्षीण होनेवाला अयन-गतिक्रम है (ते कुर्मः) हम वैज्ञानिक तेरे लिए करते हैं (युक्तः-यथा न रिष्याः) उससे युक्त हुआ जैसे विनष्ट न हो सके (अथ) अनन्तर (सुमनस्यमानः) सुविकसित हुआ-हुआ (देवेभ्यः-हविषः-भागं वहासि) वैज्ञानिकों के लिए देने योग्य वज्र या द्रव पदार्थ का भजनीय लाभ-बल को प्राप्त कर ॥७॥
भावार्थ
शरीर में आकर आत्मा इन्द्रियों के भोगों के साथ संयम द्वारा अपनी ऐसी स्थिति बनाये, जिससे कि अजर आयु अर्थात् मोक्ष का आयु प्राप्त कर सके। एवं यन्त्र में विद्युत् को ऐसे युक्त करना चाहिए जिससे कि स्थिररूप में निरन्तर गतिशील बनी रहे, एतदर्थ कोई ठोस वज्र या द्रव पदार्थ का उसमें प्रयोग करना चाहिए ॥७॥
विषय
दीर्घ जीवन वाला होकर ज्ञान प्राप्त करने का आदेश।
भावार्थ
हे (अग्ने) देहवान् जीव ! (यत्) जो (अजरं आयुः) आयु जरारहित है हम वही (ते कुर्मः) तेरी करें (यथा) जिससे (युक्तः) युक्त होकर हे (जात-वेदः) उत्पन्न देह में विद्यमान ! तू (न रिष्याः) न मरे। और तू हे (सु-जात) उत्तम गुरुओं से प्रकट होने वाले ! सुपुत्र ! (अथ) अनन्तर तू (सु-मनस्यमानः) सुप्रसन्नचित्त होकर (देवेभ्यः) देवों, इन्द्रियों और विद्वानों के लिये (हविषः भागं वह) अन्न का सेवनीय अंश प्राप्त कर और (देवेभ्यः हविषः भागं) देवों, विद्वानों से दिव्य पदार्थों से अन्नवत् ग्राह्य पदार्थ वा ज्ञान का (भागं) सेव्य, उत्तम अंश (वहासि) प्राप्त कर।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
१, ३, ५, ७, ९ देवा ऋषयः। २,४,६, ८ अग्निः सौचीक ऋषिः। देवता—१, ३ ५, ७, ९ अग्निः सौचीकः। २, ४, ६, ८ देवाः॥ छन्दः— १, ३ निचृत् त्रिष्टुप्। २, ५, ६ विराट् त्रिष्टुप्। ४, ७ त्रिष्टुप्। ८, ९ भुरिक् त्रिष्टुप्। नवर्चं सूक्तम्॥
विषय
प्रभु के इस जीवन को अजर बनाना
पदार्थ
[१] प्रभु की बात को सुनकर देव उत्तर देते हैं कि हे (अग्ने) = प्रकाशमय प्रभो ! (यत् ते आयुः) = आपका जो यह जीवन है उसे (अजरम्) = न जीर्ण होनेवाला (कुर्मः) = करते हैं । अर्थात् धन को प्राप्त करके हम भोग-विलास में फँसकर आयु को क्षीण न करेंगे, इस जीवन को तो हम आपका ही जीवन समझेंगे। हम अपना जीवन ऐसा बनायेंगे कि (यथा) = जिससे (युक्त:) = हमारे साथ युक्त हुए- हुए हे (जातवेदः) = सम्पूर्ण धनों के देनेवाले प्रभो [जातं वेदो धनं यस्मात् ] आप (न रिष्याः) = हिंसित न हों। अर्थात् हम आपको कभी भूल न जाएँ। [२] अथ अब तो आप (सुमनस्यमानः) = हमारे इस दृढ़ संकल्प से प्रीणित हुए हुए (देवेभ्यः) = हम देवों के लिये (हविषः भागम्) = हविर्द्रव्यों के सेवनीय अंश को (आवहासि) = सर्वथा प्राप्त कराते हैं। (सुजात) = हे प्रभो! आप ही तो हमारे सब उत्तम विकासों के कारणभूत हो [शोभनं जातं यस्मात्] । उस-उस आवश्यक सामग्री को प्राप्त कराके आप हमें शक्तियों के विकास के लिये समर्थ करते हो । वस्तुतः आपकी कृपा से ही हम उन साधनों का भी सदुपयोग कर पाते हैं। अन्यथा धन 'निधन' का भी तो कारण बन सकता है !
भावार्थ
भावार्थ - प्रभु से धन को प्राप्त करके हम प्रभु को भूल न जाएँ जिससे धन का दुरुपयोग न कर बैठें।
संस्कृत (1)
पदार्थः
(जातवेदः-अग्ने) हे जाते शरीरे वेद्यमान अङ्गानां नायक आत्मन् ! (यत्-अजरम्-आयुः) यज्जरारहितमायुरस्ति (ते) तुभ्यम् (कुर्मः) कुर्मः (युक्तः-यथा न रिष्याः) तद्युक्तो यथा न म्रियते (अथ सुमनस्यमानः) अनन्तरं सुप्रसन्नः सन् (सुजात) हे सुजन्मन् ! (देवेभ्यः-हविषः-भागं वहासि) इन्द्रियदेवेभ्यः प्राप्तस्य ग्राह्यविषयस्य भागं भजनीयलाभं प्राप्नुहि तथा (जातवेदः-अग्ने) हे जातः सन् वेद्यमान यन्त्रस्याग्रणायक विद्युद्रूपाग्ने (यत्-अजरम्-आयुः) यदजीर्णमयनम् “आयुरयनः” [निरु० ९।२] (ते कुर्मः) तुभ्यं कुर्मो वयं वैज्ञानिकाः (युक्तः यथा न रिष्याः) तद्युक्तः सन् यथा न रिष्यसि-विनष्यसि (अथ) अनन्तरम् (सुमनस्यमानः) सुविकसितः सन् (देवेभ्यः-हविषः-भागं वहासि) अस्मादृशेभ्यो वैज्ञानिकेभ्यो दीयमानस्य कुत्सस्य द्रवस्य वा भजनीयं लाभं बलं प्राप्नुहि ॥७॥
इंग्लिश (1)
Meaning
O Agni, O soul, known as born in the body, we create and ordain an unaging life for you so that joined to that life divine you come to no hurt, nor would you die, and then, happy at heart, happily born, you carry to the divinities that share of the yajnic homage which is meant to be dedicated to them.
मराठी (1)
भावार्थ
शरीरात येऊन आत्म्याने इंद्रियांच्या भोगांसह संयमाद्वारे आपली अशी स्थिती बनवावी की ज्यामुळे अजर आयू अर्थात् मोक्षाची आयू प्राप्त करू शकेल व यंत्रात विद्युत अशी युक्त करावी ज्यामुळे स्थिररूपाने निरंतर गतिशील राहावी. यासाठी एखादे स्थूल वज्र किंवा द्रव पदार्थाचा त्यात प्रयोग केला पाहिजे. ॥७॥
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