ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 59/ मन्त्र 5
ऋषिः - बन्ध्वादयो गौपायनाः
देवता - असुनीतिः
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
असु॑नीते॒ मनो॑ अ॒स्मासु॑ धारय जी॒वात॑वे॒ सु प्र ति॑रा न॒ आयु॑: । रा॒र॒न्धि न॒: सूर्य॑स्य सं॒दृशि॑ घृ॒तेन॒ त्वं त॒न्वं॑ वर्धयस्व ॥
स्वर सहित पद पाठअसु॑ऽनीते । मनः॑ । अ॒स्मासु॑ । धा॒र॒य॒ । जी॒वात॑वे । सु । प्र । ति॒र॒ । नः॒ । आयुः॑ । र॒र॒न्धि । नः॒ । सूर्य॑स्य । स॒म्ऽदृशि॑ । घृ॒तेन॑ । त्वम् । त॒न्व॑म् । व॒र्ध॒य॒स्व॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
असुनीते मनो अस्मासु धारय जीवातवे सु प्र तिरा न आयु: । रारन्धि न: सूर्यस्य संदृशि घृतेन त्वं तन्वं वर्धयस्व ॥
स्वर रहित पद पाठअसुऽनीते । मनः । अस्मासु । धारय । जीवातवे । सु । प्र । तिर । नः । आयुः । ररन्धि । नः । सूर्यस्य । सम्ऽदृशि । घृतेन । त्वम् । तन्वम् । वर्धयस्व ॥ १०.५९.५
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 59; मन्त्र » 5
अष्टक » 8; अध्याय » 1; वर्ग » 22; मन्त्र » 5
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अष्टक » 8; अध्याय » 1; वर्ग » 22; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(असुनीते) हे प्राणों को प्रेरणा देनेवाले ईश्वर ! (अस्मासु मनः-धारय) हमारे अन्दर मन-अन्तःकरण को धारण करा-विकसित कर-उन्नत कर (जीवातवे) चिरकाल तक जीने के लिए (नः-आयुः सु प्र तिर) हमारी आयु को सुखरूप में बढ़ा (सूर्यस्य सन्दृशि नः-रारन्धि) सूर्य के दर्शन के लिए हमें समर्थ कर (घृतेन त्वं तन्वं वर्धयस्व) अपने तेज के द्वारा तू आत्मा को संपुष्ट कर ॥५॥
भावार्थ
संयम के द्वारा परमात्मा की उपासना प्रार्थना करनेवाले मनुष्य के प्राणों को परमात्मा बढ़ाता है और अन्तःकरण को विकसित करता है, सुखरूप दीर्घजीवन प्रदान करता है। इन्द्रियों में देखने आदि की शक्ति बनाये रखता है तथा आत्मतेज को भी देता है ॥५॥
विषय
असुनीति।
भावार्थ
(असु-नीते) प्राणों को प्राप्त करने वाले, असु अर्थात् प्राणधारी जीवों को सन्मार्ग में चलाने वाले ! तू (जीवातवे) जीवन धारण करने के लिये (अस्मासु मनः धारय) हम में मन, ज्ञान, संकल्प-विकल्प करने का सामर्थ्य धारण करा। और (नः आयुः सु प्र तिर) हमारे जीवन की ख़ूब वृद्धि कर। (सूर्यस्य सं-दृशि नः रारन्धि) सूर्य के उत्तम दर्शन करने कराने वाले प्रकाश में हमें खूब हर्ष आनन्द प्रदान कर। तू (घृतेन) घृत, जल और प्रकाश से (नः तन्वं) हमारे शरीर को (वर्धयस्व) बढ़ा। इति द्वाविंशो वर्गः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
बन्ध्वादयो गौपायनाः। देवता—१—३ निर्ऋतिः। ४ निर्ऋतिः सोमश्च। ५, ६ असुनीतिः। लिङ्गोक्ताः। ८, ९, १० द्यावापृथिव्यौ। १० द्यावापृथिव्याविन्द्रश्च॥ छन्दः– १ विराट् त्रिष्टुप्। २, ४–६ निचृत् त्रिष्टुप्। ३, ७ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्। ८ भुरिक् पंक्तिः। ९ जगती। १० विराड् जगती॥ दशर्चं सूक्तम्॥
विषय
असु-नीति
पदार्थ
[१] हे (असुनीते) = प्राणों के धारण की नीति ! तू (अस्मासु) = हमारे में (मनः) = मन को (धारय) = धारण कर। दीर्घ जीवन के लिये पहला सिद्धान्त यह है कि हम मन को स्थिर करें। भटकता हुआ मन शक्तियों को विकीर्ण कर देता है और इससे कभी दीर्घ जीवन नहीं प्राप्त हो सकता। विशेषकर मन में मृत्यु आदि का भय आ गया और मन को अस्थिर करनेवाला हुआ तब तो दीर्घ जीवन का मतलब ही नहीं रहता। [२] (जीवातवे) = जीवन के लिये (नः आयुः) = हमारी आयु को (सु प्रतिरा) = खूब ही बढ़ा दीजिये। 'आयु' शब्द 'इ गतौ' से बना है। यह गतिशीलता का संकेत करता है । क्रियामय जीवन ही दीर्घजीवन होता है। आलस्य आयुष्य को अल्प कर देता है। [३] (नः) = हमें सूर्यस्य सूर्य के (संदृशि) = संदर्शन में (रारन्धि) = सिद्ध करिये। हम अधिक से अधिक सूर्य के सम्पर्क में रहनेवाले बनें। यह उदय व अस्त होता हुआ सूर्य रोग क्रिमियों का नाशक होता है । [४] हे प्रभो! (त्वम्) = आप (घृतेन) = घृत के द्वारा (तन्वम्) = हमारे शरीर को, शरीर की शक्तियों को (वर्धयस्व) = बढ़ाइये । घृत का प्रयोग दीर्घायुष्य का साधक है। 'घृतं आयुः'घृत को आयु ही कहा गया है। पर इस घृत का प्रयोग 'आज्यं तौलस्य प्राशान' तौलकर ही करना है। मात्रा में प्रयुक्त घृत मलों के क्षरण व जाठराग्नि की दीप्ति का कारण बनता है, परन्तु यही अतिमात्रा होने पर जाठराग्नि की मन्दता व यकृत् विकार का कारण हो जाता है। सो घृत का मात्रा में प्रयोग दीर्घजीवनीय है ।
भावार्थ
भावार्थ- दीर्घजीवन के चार साधन हैं— [क] मन की दृढ़ता व स्थिरता, [ख] , [क्रियाशीलताग] सूर्य सम्पर्क, [घ] गोघृत का मात्रा में सेवन ।
संस्कृत (1)
पदार्थः
(असुनीते-अस्मासु मनः-धारय) हे प्राणप्रापक ! ईश्वर ! “असवः प्राणा नीयन्ते येन सोऽसुनीतिस्तत्सम्बुद्धौ, हे असुनीते ईश्वर !” [ऋ० १०।५९।६ भाष्यभूमिका, दयानन्दः] “असुनीतिरसून् नयति” [निरु० १०।३९] अस्मासु मनोऽन्तःकरणं धारय-विकासय (जीवातवे) जीवितुं चिरं जीवितुं (नः-आयुः-सु प्र तिर) अस्माकमायुः सुखरूपं प्रवर्धय (सूर्यस्य सन्दृशि नः-रारन्धि) सूर्यस्य संदर्शनाय “सन्दृशि सन्दर्शनाय” [निरु० १०।३९] साधय समर्थय (घृतेन त्वं तन्वं वर्धयस्व) तेजसा “तेजो वै घृतम्” [मै० १।२।८] आत्मानं त्वं सम्पोषय “आत्मा वै तनूः” [श० ६।७।२।६] ॥५॥
इंग्लिश (1)
Meaning
O mother harbinger of pranic energy, bless us with the strength of mind and morale, and for our good living give us good health and long full age. Mature and establish us in the light of the sun and the vision of divinity, and with the lustre and energy of nature raise our health and age to the heights of perfection.
मराठी (1)
भावार्थ
संयमाद्वारे परमात्म्याची उपासना प्रार्थना करणाऱ्या माणसाच्या प्राणांना परमात्मा वाढवितो व अंत:करण विकसित करतो. सुखरूप दीर्घजीवन प्रदान करतो. इंद्रियांमध्ये दर्शन करण्याची शक्ती देतो व आत्मतेजही देतो. ॥५॥
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