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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 59 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 59/ मन्त्र 7
    ऋषिः - बन्ध्वादयो गौपायनाः देवता - लिङ्गोक्ताः छन्दः - स्वराडार्चीत्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    पुन॑र्नो॒ असुं॑ पृथि॒वी द॑दातु॒ पुन॒र्द्यौर्दे॒वी पुन॑र॒न्तरि॑क्षम् । पुन॑र्न॒: सोम॑स्त॒न्वं॑ ददातु॒ पुन॑: पू॒षा प॒थ्यां॒३॒॑ या स्व॒स्तिः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    पुनः॑ । नः॒ । असु॑म् । पृ॒थि॒वी । द॒दा॒तु॒ । पुनः॑ । द्यौः । दे॒वी । पुनः॑ । अ॒न्तरि॑क्षम् । पुनः॑ । नः॒ । सोमः॑ । त॒न्व॑म् । द॒दा॒तु॒ । पुन॒रिति॑ । पू॒षा । प॒थ्या॑म् । या । स्व॒स्तिः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पुनर्नो असुं पृथिवी ददातु पुनर्द्यौर्देवी पुनरन्तरिक्षम् । पुनर्न: सोमस्तन्वं ददातु पुन: पूषा पथ्यां३ या स्वस्तिः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    पुनः । नः । असुम् । पृथिवी । ददातु । पुनः । द्यौः । देवी । पुनः । अन्तरिक्षम् । पुनः । नः । सोमः । तन्वम् । ददातु । पुनरिति । पूषा । पथ्याम् । या । स्वस्तिः ॥ १०.५९.७

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 59; मन्त्र » 7
    अष्टक » 8; अध्याय » 1; वर्ग » 23; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (पुनः) पुनर्जन्म में (पृथिवी-असुं ददातु) मातृभूत पृथिवी प्राणों को देती है (पुनः देवी द्यौः, पुनः-अन्तरिक्षम्) द्योतमान द्युलोकदीप्ति अर्थात् पितृभूत द्युलोक और अन्तरिक्ष प्राण को दे-देता है (सोमः-नः पुनः-तन्वं ददातु) चन्द्रमा या ओषधि शरीर को देवे-देता है-पुष्ट करता है (पूषा पुनः पथ्याम्) सर्वपोषक परमात्मा यथार्थ जीवनयात्रा को देता है-देवे (या स्वस्तिः) जो कि कल्याणकरी-मोक्षसाधिका है ॥७॥

    भावार्थ

    पुनर्जन्म में पृथिवीलोक, अन्तरिक्षलोक और द्युलोक प्राण को देते हैं। इन तीनों के द्वारा प्राणशक्ति की स्थापना होती है। चन्द्रमा तथा ओषधि से शरीर का पोषण होता है और परमात्मा चेतन आत्मा को शरीर में प्रविष्ट करके जीवनयात्रा में प्रेरित करता है ॥७॥

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    विषय

    प्रभु से पुनः प्राणादि की याचना।

    भावार्थ

    (पृथिवी) भूमिवत् सर्वाश्रय प्रभु (नः पुनः असुम् ददातु) हमें पुनः २ जीवन प्रदान करे। (देवी द्यौः) सुखदात्री, तेजोमय सूर्यवत् प्रभु शक्ति, (पुनः) हमें बार २ प्राण दे। (अन्तरिक्षम्) अन्तरिक्षवत् विशाल अन्तर्यामी प्रभु (पुनः) पुनः २ हमें प्राण, जीवन प्रदान करता है। (सोमः) सर्वोत्पादक प्रभु (नः तन्वं पुनः ददातु) हमें बार २ देह प्रदान करता है, (पूषा) सर्वपोषक प्रभु (नः पथ्याम्) हमें सत्पथ प्रदान करें (याः स्वस्तिः) जो सुख-कल्याणकारक हों।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    बन्ध्वादयो गौपायनाः। देवता—१—३ निर्ऋतिः। ४ निर्ऋतिः सोमश्च। ५, ६ असुनीतिः। लिङ्गोक्ताः। ८, ९, १० द्यावापृथिव्यौ। १० द्यावापृथिव्याविन्द्रश्च॥ छन्दः– १ विराट् त्रिष्टुप्। २, ४–६ निचृत् त्रिष्टुप्। ३, ७ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्। ८ भुरिक् पंक्तिः। ९ जगती। १० विराड् जगती॥ दशर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    शान्ति-सोमरक्षण-पथ्य-सेवन

    पदार्थ

    [१] (नः) = हमें (पृथिवी) = पृथिवी (पुनः) = फिर (असुं ददातु) = प्राणशक्ति को दे ।( देवी द्यौ:) = देदीप्यमान द्युलोक भी (पुनः) = फिर प्राण को दे । (अन्तरिक्षम्) = अन्तरिक्ष फिर प्राण को दे । पृथिवी, अन्तरिक्ष व द्युलोक हमें प्राण को देनेवाले हों। अध्यात्म में पृथिवीलोक 'शरीर' है । अन्तरिक्षलोक 'हृदय' है। द्युलोक 'मस्तिष्क' है। बाहर की त्रिलोकी व अन्दर की त्रिलोकी की अनुकूलता होने पर मनुष्य स्वस्थ होता है। 'द्यौः शान्तिरन्तरिक्ष शान्तिः पृथिवी शान्तिः ' इस प्रार्थना का यही अभिप्राय है। इन की परस्पर अनुकूलता के होने पर शरीर दृढ़ होता है, हृदय चन्द्रमा की ज्योत्स्ना को लिये हुए होता है, मस्तिष्क दीप्त होता है । [२] (सोमः) = सोम - रसादि के क्रम से उत्पन्न हुआ हुआ वीर्य (नः) = हमारे लिये (पुनः) = फिर (तन्वम्) = शक्तियों के विस्तारवाले शरीर को (ददातु) = दे। सोम के रक्षण से ही नीरोगता व अन्य शक्तियों की प्राप्ति होती है । उन्नतिमात्र का मूल सोमरक्षण है। 'ब्रह्मचर्यं परोधर्म: 'इसीलिए ब्रह्मचर्य को परधर्म कहा है। [३] (पूषा) = वह पोषण करनेवाला प्रभु (पुनः) = फिर (पथ्याम्) = पथ्य भोजन की वृत्ति को दे, (या) = जो पथ्य भोजन की वृत्ति 'अनुमति' की यह भावना भी महत्त्वपूर्ण है कि मन तो कहता है कि भोजन बड़ा स्वादिष्ट है थोड़ा- सा और खा लो, पर मति = बुद्धि प्रतिवाद करती हुई कहती है कि यह दीर्घ जीवन के लिये ठीक नहीं तो अधिक नहीं खाना। इसी प्रकार प्रत्येक क्षेत्र में मन की इच्छा पर दीर्घ जीवन के दृष्टिकोण से प्रतिबन्ध रखनेवाली मति ही 'अनुमति' है । यह हमारा निश्चय से कल्याण करनेवाली है । (स्वस्तिः) = वस्तुतः उत्तम अस्तित्व को देनेवाली है । पथ्य भोजन से रोग होते ही नहीं, अचानक आ गये रोग भी नष्ट हो जाते हैं । अपथ्य सब रोगों का मूल है। अपथ्य के होने पर अच्छे से अच्छे औषध भी रोगों को दूर नहीं कर पाते ।

    भावार्थ

    भावार्थ- 'त्रिलोकी की अनुकूलता, सोम का रक्षण, पथ्य का सेवन' ये तीन बातें दीर्घायुष्य के लिये आवश्यक हैं।

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (पुनः) पुनर्जन्मनि (पृथिवी-असुं ददातु) पृथिवी मातृभूता प्राणं ददातु ददाति वा (पुनः देवी द्यौः, पुनः-अन्तरिक्षम्) द्योतमाना द्युलोकदीप्तिर्द्युलोको वा पितृभूतः-अन्तरिक्षं च प्राणं ददातु ददाति वा (सोमः नः पुनः-तन्वं ददातु) चन्द्रमाः-ओषधीर्वा शरीरं ददातु पोषयतु (पूषा पुनः पथ्याम्) सर्वपाषकः परमात्मा पथि भवां यथार्थजीवनयात्रां प्रयच्छतु (या स्वस्तिः) या स्वस्तित्वकरी-अमृतत्वसाधिका भवेत् ॥७॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    May the earth give us pranic energy of life again. So may the divine sun and the generous sky give us life again. May Soma, divine spirit of joy and peace, give us the body again, and may Pusha, divine spirit of nourishment, place us on the journey of life again and give us happiness and well being.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    पुनर्जन्मात पृथ्वीलोक, अंतरिक्षलोक व द्युलोक प्राण देतात, या तिन्ही लोकांकडून प्राणशक्तीची स्थापना होते. चंद्र व औषधीने शरीराचे पोषण होते व परमात्मा चेतन आत्म्याला शरीरात प्रविष्ट करून जीवनयात्रेला प्रेरित करतो. ॥७॥

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