ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 75/ मन्त्र 3
ऋषिः - सिन्धुक्षित्प्रैयमेधः
देवता - नद्यः
छन्दः - विराड्जगती
स्वरः - निषादः
दि॒वि स्व॒नो य॑तते॒ भूम्यो॒पर्य॑न॒न्तं शुष्म॒मुदि॑यर्ति भा॒नुना॑ । अ॒भ्रादि॑व॒ प्र स्त॑नयन्ति वृ॒ष्टय॒: सिन्धु॒र्यदेति॑ वृष॒भो न रोरु॑वत् ॥
स्वर सहित पद पाठदि॒वि । स्व॒नः । य॒त॒ते॒ । भूम्या॑ । उ॒परि॑ । अ॒न॒न्तम् । शुष्म॑म् । उत् । इ॒य॒र्ति॒ । भा॒नुना॑ । अ॒भ्रात्ऽइ॑व । प्र । स्त॒न॒य॒न्ति॒ । वृ॒ष्टयः॑ । सिन्धुः॑ । यत् । एति॑ । वृ॒ष॒भः । न । रोरु॑वत् ॥
स्वर रहित मन्त्र
दिवि स्वनो यतते भूम्योपर्यनन्तं शुष्ममुदियर्ति भानुना । अभ्रादिव प्र स्तनयन्ति वृष्टय: सिन्धुर्यदेति वृषभो न रोरुवत् ॥
स्वर रहित पद पाठदिवि । स्वनः । यतते । भूम्या । उपरि । अनन्तम् । शुष्मम् । उत् । इयर्ति । भानुना । अभ्रात्ऽइव । प्र । स्तनयन्ति । वृष्टयः । सिन्धुः । यत् । एति । वृषभः । न । रोरुवत् ॥ १०.७५.३
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 75; मन्त्र » 3
अष्टक » 8; अध्याय » 3; वर्ग » 6; मन्त्र » 3
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अष्टक » 8; अध्याय » 3; वर्ग » 6; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(भानुना) अन्तरिक्षस्थ जलसमूह जब विद्युत् के द्वारा (शुष्मम्) बल को-वेग को (उदियर्ति) प्रेरित करता है (दिविः स्वनः-यतते) तब आकाश में इसका शब्द प्राप्त होता है (भूम्या-उपरि) भूमि के ऊपर (अनन्तम्) दूर तक जाता है (अभ्रात्-इव) मेघ से (वृष्टयः स्तनयन्ति) वृष्टियाँ-वर्षाएँ शब्द करती हैं (वृषभः-न) वृषभ की भाँति (रोरुवत्) शब्द करता हुआ (सिन्धुः-यत्-एति) स्यन्दनशील अन्तिरक्षस्थ जलसमूह नीचे आ जाता है ॥३॥
भावार्थ
विद्युत् से ताड़ित मेघ का जल शब्द करता हुआ भूमि पर आता है और निम्न स्थान पर दूर तक पहुँचता है, उससे कृषि आदि का लाभ लेना चाहिए ॥३॥
विषय
बरसाती जल-धाराओं और बहती नदियों के तुल्य सेनापति और उसकी शक्तियों का वर्णन।
भावार्थ
(भूम्या उपरि) भूमि के ऊपर (दिवि) आकाश में (स्वनः) गर्जन-शब्द करने वाला मेघ (यतते) व्यापता है। (भानुना) सूर्य के प्रकाश द्वारा (अनन्तं शुष्मम्) अनन्त बलरूप जल (उत् इयात) ऊपर उठ जाता है। तत्पश्चात् (अभ्रात् इव) जिस प्रकार मेघ से (वृष्टयः प्र स्तनयन्ति) वृष्टियां खूब बरसती हैं, और (सिन्धुः) वेग से बहता जल-प्रवाह (यत् वृषभः न रोरुवत्) जिस प्रकार सांड के समान गर्जना करता हुआ (एति) आता है। इसी प्रकार (यत्) जब और (रोरुवत्) गर्जता हुआ (सिन्धुः) राष्ट्र-प्रबन्धक शत्रु-कम्पक वीर सेनापति वा राजा (वृषभः) बड़े सांड वा बरसते मेघ के समान (एति) प्रयाण करता है, तब (वृष्टयः अभ्रात् इव) जैसे मेघ से वृष्टियां गिरती हैं उसी प्रकार (वृष्टयः) शत्रु को उखाड़ देने वा काट गिराने वाली शक्तियां, तोपें आकाश में (प्र स्तनयन्ति) गर्जती हुईं नीचे आती हैं वह (भानुना) अपने तेज से (अनन्तं शुष्मं उत्-इयर्ति) अनन्त शत्रुशोषक बल को उत्पन्न करता है। वह (दिवि स्वनः) आकाश में गर्जते मेघ के तुल्य (भूम्यां उपरि यतते) पृथिवी पर उद्योग करता, विजय करता है। (३) इसी प्रकार अध्यात्म में—आत्मा ‘सिन्धु’ है वह (दिवि) मस्तक में (स्वनः = सु-अनः) उत्तम चेतना, वा प्राणशक्ति का स्वामी होकर (भूम्याः उपरि यतते) इस पार्थिव देह के ऊपर यत्नशील होता है, उसका स्वामीवत् उपयोग करता है। वह अपने तेज से इस देह में अनन्त बल उत्पन्न करता है, मेघ से वृष्टियों के तुल्य हृदय से रक्तधारायें प्रवाहित होता हैं, वह आत्मा इसमें हर्षित होकर व्यापता है।
टिप्पणी
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सिन्धुक्षित्प्रैयमेध ऋषिः। नद्यो देवताः॥ छन्दः—१ निचृज्जगती २, ३ विराड जगती। ४ जगती। ५, ७ आर्ची स्वराड् जगती। ६ आर्ची भुरिग् जगती। ८,९ पादनिचृज्जगती॥
विषय
ज्ञान-आनन्द-शक्ति
पदार्थ
[१] (यत्) = जब (सिन्धुः) = यह बहने के स्वभाववाला रेतस् (वृषभः न) = एक शक्तिशाली बैल के समान (रोरुवत्) = गर्जना करता हुआ रोगों व वासनाओं के प्रति आक्रमण करता है [रोरूयमाणोद्रवति] तो (भूम्या उपरि) = शरीर के ऊपर (दिवि) = मस्तिष्क रूप द्युलोक में (स्वनः) = प्रभु की वाणी (यतते) = [stirshp] प्रेरित हो उठती है। प्रभु की प्रेरणात्मक वाणी [voice of conscience] सुन पड़ती है । शक्तिशाली बैल के समाने कोई खड़ा होने का साहस नहीं करता, सभी भाग खड़े होते हैं । इसी प्रकार इन रेतः कणों के सामने रोग व शत्रु टिके नहीं रह सकते। [२] इस प्रकार इस रेतः रक्षण से (भानुना) = ज्ञान की दीप्ति के साथ (अनन्तं शुष्मम्) = अनन्त शक्ति (उदियर्ति) = उद्गत होती है। रेतः रक्षण के दो परिणाम होते हैं - [क] मस्तिष्क में ज्ञान का प्रकाश और [ख] शरीर में शत्रु- शोषक शक्ति का उदय । [३] इस रेतः रक्षण का तीसरा परिणाम यह होता है कि (इव) = जिस प्रकार (अभ्रात्) = बादल से (वृष्टयः प्र स्तनयन्ति) = गर्जनापूर्वक वृष्टिजल भूमि पर आते हैं, इसी प्रकार शक्ति की ऊर्ध्वगति होने पर धर्ममेघ समाधि में आनन्द के वृष्टिजल बरसने लगते हैं । इन्हीं का वर्णन 'ऊर्ध्वादिक्' के प्रसंग में 'वर्षं इषवः ' इन शब्दों से हुआ है । एवं रेतःकणों की ऊर्ध्वगति शरीर में तीन परिणामों को उत्पन्न करती है - [क] [प्रानुना० ] मस्तिष्क रूप द्युलोक में ज्ञानसूर्य का उदय, [ख] [वृष्टयः ] हृदयान्तरिक्ष में आनन्दजल का वर्षण, [ग] [शुष्मम्] शरीर रूप पृथिवी में अनन्त शक्ति ।
भावार्थ
भावार्थ - रेतः कणों की ऊर्ध्वगतिवाला ऊर्ध्वरेताः पुरुष 'ज्ञान, आनन्द व शक्ति' का स्वामी बनता है ।
संस्कृत (1)
पदार्थः
(भानुना शुष्मम्-उदियर्ति) सिन्धुः-अन्तरिक्षस्थजलसमूहो यदा अर्चिषा विद्युता “अजस्रेण भानुना-अजस्रेणार्चिषा” [श० ६।४।१।२] बलं वेगं प्रेरयति (दिवि स्वनः-यतते) तदाऽस्य शब्दः-आकाशे गच्छति “यतते गतिकर्मा” [निघ० २।१४] (भूम्या-उपरि-अनन्तम्) भूम्याः उपरि-अनन्तं दूरपर्यन्तं गच्छतीत्यर्थः “भूम्या” षष्ठ्यर्थे तृतीया व्यत्ययेन (अभ्रात्-इव वृष्टयः स्तनयन्ति) मेघात् ‘इवोऽपि दृश्यते पदपूरणः” [निरु० १।११] खलु वृष्टयः शब्दयन्ति (वृषभः-न-रोरुवत् सिन्धुः-यत्-एति) वृषभ इव भृशं शब्दं कुर्वन् यदा स्यन्दनशीलोऽन्तरिक्षस्थो जलसमूहो नीचैरागच्छति ॥३॥
इंग्लिश (1)
Meaning
When the force and flood of energy is set in motion by the sun, the rumble of infinite energy shakes the spaces in heaven and the atmosphere on earth. As thunder roars and reverberates from the sky, so do showers fall and the river flood flows resounding like the cloud.
मराठी (1)
भावार्थ
विद्युतद्वारे प्रहार केलेल्या मेघाचे जल आवाज करते, भूमीवर येते व खालच्या स्थानी दूरपर्यंत पसरते. त्यापासून कृषी इत्यादीचा लाभ घेतला पाहिजे. ॥३॥
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