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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 75 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 75/ मन्त्र 7
    ऋषिः - सिन्धुक्षित्प्रैयमेधः देवता - नद्यः छन्दः - स्वराडार्चीजगती स्वरः - निषादः

    ऋजी॒त्येनी॒ रुश॑ती महि॒त्वा परि॒ ज्रयां॑सि भरते॒ रजां॑सि । अद॑ब्धा॒ सिन्धु॑र॒पसा॑म॒पस्त॒माश्वा॒ न चि॒त्रा वपु॑षीव दर्श॒ता ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ऋजी॑ती । एनी॑ । रुश॑ती । म॒हि॒ऽत्वा । परि॑ । ज्रयां॑सि । भ॒र॒ते॒ । रजां॑सि । अद॑ब्धा । सिन्धुः॑ । अ॒पसा॑म् । अ॒पःऽत॑मा । अश्वा॑ । न । चि॒त्रा । वपु॑षीऽइव । द॒र्श॒ता ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ऋजीत्येनी रुशती महित्वा परि ज्रयांसि भरते रजांसि । अदब्धा सिन्धुरपसामपस्तमाश्वा न चित्रा वपुषीव दर्शता ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ऋजीती । एनी । रुशती । महिऽत्वा । परि । ज्रयांसि । भरते । रजांसि । अदब्धा । सिन्धुः । अपसाम् । अपःऽतमा । अश्वा । न । चित्रा । वपुषीऽइव । दर्शता ॥ १०.७५.७

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 75; मन्त्र » 7
    अष्टक » 8; अध्याय » 3; वर्ग » 7; मन्त्र » 2
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (ऋजीती) ऋजुगामी सरल (एनी) श्वेत (रुशती) शुभ्र (अदब्धा) अहिंसित (अपसाम्-अपस्तमा) वेगवालियों में अत्यन्त वेगवाली (अश्वा न) घोड़ी के समान (चित्रा) चायनीय (वपुषी-इव) रूपवती की भाँति (दर्शता) दर्शनीय (सिन्धुः) अन्तरिक्षस्थ समुद्ररूप (महित्वा) महत्त्व से (ज्रयांसि रजांसि) वेगयुक्त जलों को (परि भरते) सब ओर से धारण करता है ॥७॥

    भावार्थ

    भाँति-भाँति की जलधाराओं को अन्तरिक्षस्थ जलसमूह धारण करता है, जो पृथिवी पर बरस कर लाभ पहुँचाता है ॥७॥

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    विषय

    आत्मा का सिन्धु रूप से वर्णन।

    भावार्थ

    उसी आत्मा का और भी सिन्धु रूप से वर्णन करते हैं। (ऋजीती) ऋजु अर्थात् सरल गति वाली, ताप पहुंचाने वाली नाड़ी और (एनी) श्वेत वर्ण की वा मज्जावाहिनी वा शुक्रवाहिनी नाड़ी, और (रुशती) दीप्तियुक्त कान्ति देने वाली वा ओज धातु को फैलाने वाली नाड़ियें सब नाना स्रोत (महित्वा) उस आत्मा के महान् सामर्थ्य से ही (ज्रयांसि रजांसि परिभरते) वेग से देह में गति करने वाले अनेक रजों अर्थात् जल के समान बहने वाले द्रवरसों को सर्वत्र ले जाती हैं। तब यह (सिन्धुः) आत्मा (अदब्धा) विनाश को न प्राप्त होकर, (आसाम् अपस्तमा) इन समस्त कर्म करने वाले अंगों और इन्द्रियों और देहावयवों के बीच सर्वश्रेष्ठ काम करने वाली होकर (अश्वा न) घोड़ी के तुल्य सदा शक्ति से युक्त, देह भर में व्यापक, देह की भोक्ता होकर (चित्रा) अद्भुत आश्चर्यकारी, चित्, चेतना को देह भर में देने वाली और (वपुषी इव दर्शता) रूपवतीसी देहमय होकर नयनों से देखने योग्य हो रही है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    सिन्धुक्षित्प्रैयमेध ऋषिः। नद्यो देवताः॥ छन्दः—१ निचृज्जगती २, ३ विराड जगती। ४ जगती। ५, ७ आर्ची स्वराड् जगती। ६ आर्ची भुरिग् जगती। ८,९ पादनिचृज्जगती॥

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    विषय

    ऋजीती रुशती -

    पदार्थ

    [१] (ऋजीती) = [ऋजुना अतति] सरल मार्ग से चलने की वृत्ति जो (एनी) = श्वेतवर्णवाली है, जिसमें कहीं भी कलंक का चिह्न नहीं है, (रुशती) = जो कि अन्तः ज्ञानदीप्ति से देदीप्यमान है वह (महित्वा) = अपनी महिमा से हमारे अन्दर ज्रयांसि वेगवाले (रजांसि) = कर्मों को (परिभरते) = सब ओर से भरती है । ऋजीती का भाव सरल मार्ग से चलता है। इस सरल मार्ग से चलने में कहीं भी मलिनता नहीं आ पाती। यह मार्ग शुद्ध व श्वेत बना रहता है, कलंकित नहीं होता। इस मार्ग से चलने पर ही अन्ततः अन्तदर्शन दीप्ति की प्राप्ति होती है। इस ज्ञानदीप्ति से हमारे कार्य जहाँ पवित्र होते हैं वहाँ सबल व वेगवान् होते हैं । [२] इस प्रकार यह (सिन्धुः) = रेतःकण (अपसां अपसामा) = क्रियाशीलों में अत्यन्त क्रियाशील हैं। ये हमें शक्ति सम्पन्न करके अकर्मण्यता से ऊपर उठाते हैं । अदब्धा- ये कभी हिंसित नहीं होते, रोगादि का इन पर आक्रमण नहीं हो पाता । ये रोगों को आक्रान्त करके हमारी इस तनू [शरीर] को (अश्वा न चित्रा) = एक घोड़े की तरह अद्भुत शक्तिवाला बनाते हैं। और (वपुषी इव) = एक उत्तम उत्तम शरीरवाली युवति के समान (दर्शता) = सचमुच सौन्दर्य के कारण दर्शनीय हमारा शरीर होता है। ये सिन्धु दर्शनीय है, अर्थात् रेतःकण इस दर्शनीयता का जनक है।

    भावार्थ

    भावार्थ - रेतः कणों के रक्षण का परिणाम यह है कि हम [क] सरल शुद्ध मार्ग से सब गतियों को करनेवाले होते हैं और हमें [ख] अन्तर्ज्ञान की शुभ्र - ज्योति प्राप्त होती है। इस प्रकार यह सिन्धु 'ऋजीती' है, 'रुशती' है।

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (ऋजीती) ऋजुगामिनी सरला (एनी) श्वेता (रुशती) शुभ्रा (अदब्धा) अहिंसिता (अपसाम्-अपस्तमा) कर्मवतीनां वेगवतीनां कर्मवत्तया वेगवत्तया (अश्वा न) वडवेव (चित्रा) चायनीया (वपुषी-इव) रूपवतीव (दर्शता) दर्शनीया (सिन्धुः) अन्तरिक्षस्थजलसमूहः “सिन्धुः-अन्तरिक्षस्थजलसमूहः” [ऋ० १।९८।३ दयानन्दः] समुद्ररूपा नदी (महित्वा) महत्त्वेन (ज्रयांसि रजांसि) वेगयुक्तानि जलानि (परि भरते) परितो धारयति ॥७॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Rjiti which moves peacefully, Eni which controls the white corpuscles, and Rushati which is bright and creates the body lustre, move by the energy and gandeur of the spiritual centre and communicate particles of energy and vitality across the system. Sindhu, the central stream of the spirit, undaunted, is the most dynamic of all dynamics, wornderful as a ray of light and beautiful as a youthful maiden

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    अंतरिक्षातील जलसमूह वेगवेगळ्या जलधारांना धारण करतो व पृथ्वीवर वृष्टी करून लाभ करून देतो. ॥७॥

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