ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 75/ मन्त्र 4
अ॒भि त्वा॑ सिन्धो॒ शिशु॒मिन्न मा॒तरो॑ वा॒श्रा अ॑र्षन्ति॒ पय॑सेव धे॒नव॑: । राजे॑व॒ युध्वा॑ नयसि॒ त्वमित्सिचौ॒ यदा॑सा॒मग्रं॑ प्र॒वता॒मिन॑क्षसि ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒भि । त्वा॒ । सिन्धो॒ इति॑ । शिशु॑म् । इत् । न । मा॒तरः॑ । वा॒श्राः । अ॒र्ष॒न्ति॒ । पय॑साऽइव । धे॒नवः॑ । राजा॑ऽइव । युध्वा॑ । न॒य॒सि॒ । त्वम् । इत् । सिचौ॑ । यत् । आ॒सा॒म् । अग्र॑म् । प्र॒ऽवता॑म् । इन॑क्षसि ॥
स्वर रहित मन्त्र
अभि त्वा सिन्धो शिशुमिन्न मातरो वाश्रा अर्षन्ति पयसेव धेनव: । राजेव युध्वा नयसि त्वमित्सिचौ यदासामग्रं प्रवतामिनक्षसि ॥
स्वर रहित पद पाठअभि । त्वा । सिन्धो इति । शिशुम् । इत् । न । मातरः । वाश्राः । अर्षन्ति । पयसाऽइव । धेनवः । राजाऽइव । युध्वा । नयसि । त्वम् । इत् । सिचौ । यत् । आसाम् । अग्रम् । प्रऽवताम् । इनक्षसि ॥ १०.७५.४
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 75; मन्त्र » 4
अष्टक » 8; अध्याय » 3; वर्ग » 6; मन्त्र » 4
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अष्टक » 8; अध्याय » 3; वर्ग » 6; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(सिन्धो) हे स्यन्दनशील अन्तरिक्षस्थ जलसमूह ! (वाश्रा मातरः) कामना करती हुई माताओं (धेनवः-इव) गौओं की भाँति नदियाँ (पयसा) जलहेतु से (त्वा शिशुम्) तुझ जलदाता को आश्रित करके बहती हैं (त्वं राजा-इव युध्वा नयसि) जैसे योद्धा राजा अपने सैनिकों को लेता जाता है, ऐसे तू नदियों को पृथिवीपृष्ठ पर ले जाता है (आसां प्रवताम्-अग्रम्) इन नदियों के आगे बहने को (सिचौ-इनक्षसि) सींचने के स्थान पर प्रेरित करता है ॥४॥
भावार्थ
नदियाँ पृथिवी पर बहती हैं, पृथिवीपृष्ठ को सींचने के लिये, अन्तरिक्ष का जलसमूह इनका प्रेरक है ॥४॥
विषय
माता और पुत्रवत् राजा प्रजा का कर्त्तव्य वर्णन। योद्धा राजा के तुल्य नायक का वर्णन।
भावार्थ
(मातरः शिशुम् इत् न) जिस प्रकार माताएं अपने पुत्र को प्रेमवश प्राप्त करती हैं, उसी प्रकार हे (सिन्धो) सब को अपने साथ बांधने और सबके पापों को दूर करने, वा सबको प्रेरित करने वाले प्रभो ! स्वामिन् ! (वाश्राः) तुझे पुकारने वाले जन, प्रजाएं (शिशुं त्वा) सब के भीतर गुप्त रूप से व्यापने वाले, वा प्रशस्त रूप से विद्यमान तुझको ही (अभि अर्षन्ति) लक्ष्य कर तेरी ओर आते हैं। (धेनवः वाश्राः पयसा इव) जिस प्रकार दुधार गौवें अपने पोषक दूध से अपने बच्चे की ओर झुकती हैं उसी प्रकार (वाश्राः) स्तुतिशील जन (त्वा अभि अर्षन्ति) तेरी ओर ही आते हैं। (युध्वा राजा इव) युद्धशील राजा जिस प्रकार (सिचौ) शरवर्षी सैन्य-बलों को आगे ले जाता है उसी प्रकार (त्वम् इत्) तू ही (सिचौ) सेचन करने वाले, निषेक आदि द्वारा सन्तान उत्पन्न करने वाले समस्त नर-नारी जीवों को (नयसि) चला रहा है, (यत्) जो तू (प्रवताम् आसाम्) आगे बढ़ने वाली इनके (अग्रम्) आगे के मुख्य पद को (इनक्षसि) प्राप्त हो, इनमें सबका प्रमुख तू ही है। और जिस प्रकार बहती नदियों में सबसे प्रमुख मुख्य सिन्धु अर्थात् वेगवान् नद प्रमुख होता है वह औरों को अपने साथ लेजाता है और नदियां अपने जलसहित उससे मिल जाती हैं, उसी प्रकार समस्त प्रजाएं उसी प्रभु स्वामी की ओर आती हैं और वही उनको अपने साथ परम धाम में ले जाता है। इसी प्रकार मुख्य प्राण के साथ देहगत अन्य प्राणों का भी व्यवहार जानना चाहिये।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सिन्धुक्षित्प्रैयमेध ऋषिः। नद्यो देवताः॥ छन्दः—१ निचृज्जगती २, ३ विराड जगती। ४ जगती। ५, ७ आर्ची स्वराड् जगती। ६ आर्ची भुरिग् जगती। ८,९ पादनिचृज्जगती॥
विषय
दोनों प्रान्तों का प्राशस्त्य
पदार्थ
[१] (न) = जिस प्रकार (वाश्राः) = शब्द करनेवाली (धेनवः) = दूध को पिलानेवाली (मातरः) = गौवें (पयसा) = दूध के साथ (इत्) = निश्चय से (शिशुं इव) = बछड़े को ही (अर्षन्ति) = प्राप्त होती हैं [इव = एव], उसी प्रकार सब प्रजाएँ हे (सिन्धो) = रेतःकणो ! (त्वा अभि) = तेरा ही लक्ष्य करके गतिवाली होती हैं। जैसे गौ की सब क्रियाएँ नवोत्पन्न बछड़े के उद्देश्य से ही होती हैं, जैसे माता की सब क्रियाएँ बच्चे के हित के लिये होती हैं, उसी प्रकार प्रजाओं की सब क्रियाएँ इस (सिन्धुः आपः) = रेतः कणों के रक्षण के लिये ही होती हैं । [२] (यद्) = जब (त्वम्) = तू (आसाम्) = इन (अग्रं प्रवताम्) = आगे गति करती हुई इन प्रजाओं को (इनक्षसि) = व्याप्त करता है अथवा प्राप्त होता है तो (युध्वा राजा इव) = एक युद्ध करनेवाले राजा की तरह (इत्) = निश्चय से (सिचौ नयसि) = प्रान्तों को प्राप्त कराता है, एक प्रान्त पृथिवीरूप शरीर है तो दूसरा प्रान्त द्युलोकरूप मस्तिष्क है। तू शरीर व मस्तिष्क दोनों की ही उन्नति करनेवाला होता है । शरीर को तू शक्ति प्राप्त कराता है, तो मस्तिष्क को ज्ञान
भावार्थ
भावार्थ- हमारी सब क्रियाएँ रेतः रक्षण के उद्देश्य से होनी चाहिएँ । ये रक्षित रेतःकण हमारे शरीर को दृढ़ बनायेंगे और मस्तिष्क को ज्ञानदीप्त ।
संस्कृत (1)
पदार्थः
(सिन्धो) हे स्यन्दनशीलजलसमूह ! (वाश्राः-मातरः पयसा-इव धेनवः त्वा शिशुम्-अभि-अर्षन्ति) कामयमानाः-मातरः-नद्यः पयोहेतुना त्वां प्रशंसनीयं जलदातारम् “शिशुः शिशीतेर्दानकर्मणः” [निरु० १०।३९] गाव इव “आपो वै धेनवः” [कौ० १।१२१] अभिगच्छति-प्रवहन्ति यद्वा निस्सरन्ति “अर्षन्ति निस्सरन्ति” [१७।९३ दयानन्दः] (त्वं राजा-इव युध्वा नयसि) यथा योद्धा राजा स्वसैनिकान् नयसि तथा त्वं नदीर्नयसि पृथिवीपृष्ठे (आसां प्रवताम्-अग्रं सिचौ इनक्षसि) आसां गच्छताम् “प्रवतां गच्छताम्” [ऋ० २।१३।२ दयानन्दः] अपामग्रगमनं सेचनमार्गे “षिच् क्षरणे [तुदादि०] ततः किन् प्रत्यय औणादिको बाहुलकात्” व्याप्नोषि प्रेरयसि ॥४॥
इंग्लिश (1)
Meaning
O Sindhu, flood of water, just as mothers move with love to the child, just as lowing cows with milk move to the calf to promote life, so do streams flow to you and you take them forward flowing to the sea like a warrior king leading his armies to the battlefield for victory.
मराठी (1)
भावार्थ
नद्या पृथ्वीवर वाहतात. पृथ्वीतलावर सिंचन करण्यासाठी अंतरिक्षाचा जलसमूह त्यांचा प्रेरक आहे. ॥४॥
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