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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 84 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 84/ मन्त्र 5
    ऋषिः - मन्युस्तापसः देवता - मन्युः छन्दः - पादनिचृज्ज्गती स्वरः - निषादः

    वि॒जे॒ष॒कृदिन्द्र॑ इवानवब्र॒वो॒३॒॑ऽस्माकं॑ मन्यो अधि॒पा भ॑वे॒ह । प्रि॒यं ते॒ नाम॑ सहुरे गृणीमसि वि॒द्मा तमुत्सं॒ यत॑ आब॒भूथ॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वि॒जे॒ष॒ऽकृत् । इन्द्रः॑ऽइव । अ॒न॒व॒ऽब्र॒वः । अ॒स्माक॑म् । म॒न्यो॒ इति॑ । अ॒धि॒ऽपाः । भ॒व॒ । इ॒ह । प्रि॒यम् । ते॒ । नाम॑ । स॒हु॒रे॒ । गृ॒णी॒म॒सि॒ । वि॒द्म । तम् । उत्स॑म् । यतः॑ । आ॒ऽब॒भूथ॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    विजेषकृदिन्द्र इवानवब्रवो३ऽस्माकं मन्यो अधिपा भवेह । प्रियं ते नाम सहुरे गृणीमसि विद्मा तमुत्सं यत आबभूथ ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    विजेषऽकृत् । इन्द्रःऽइव । अनवऽब्रवः । अस्माकम् । मन्यो इति । अधिऽपाः । भव । इह । प्रियम् । ते । नाम । सहुरे । गृणीमसि । विद्म । तम् । उत्सम् । यतः । आऽबभूथ ॥ १०.८४.५

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 84; मन्त्र » 5
    अष्टक » 8; अध्याय » 3; वर्ग » 19; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (मन्यो) हे आत्मप्रभाव ! (विजेषकृत्) तू विजयकर्ता है (इन्द्रः-इव) विद्युत् के समान है, विद्युत् जैसी शक्ति रखता है (अनवब्रवः) अनुचित न कहनेवाला किन्तु उचित को सुझानेवाला है (इह) यहाँ (अस्माकम्-अधिपाः-भव) हमारा रक्षक हो (सहुरे) हे विरोधियों के बाधक ! (ते प्रियं नाम) तेरे प्रिय नाम को नमनस्थान को (गृणीमसि) प्रशंशित करते हैं (यतः-आबभूथ) जहाँ से तू आविर्भूत होता है, (तम्-उत्सं विद्म) उस स्यन्दनस्थान को हम जानते हैं-स्तुत करते हैं ॥५॥

    भावार्थ

    आत्मप्रभाव विद्युत् जैसी शक्ति रखता है, बाधकों को दबाता है, उचित बात सुझाता है, इसका मूल स्रोत परमात्मा है, वह आत्मदा है, उसकी स्तुति प्रशंसा करनी चाहिए, जिससे कि वह उत्कृष्ट विचार सुझावे ॥५॥

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    विषय

    शक्तिशाली पुरुष अध्यक्ष, सर्वप्रिय, सब शक्तियों का स्रोत हो।

    भावार्थ

    हे प्रभो ! राजन् ! सेनापते ! तू (इन्द्रः इव) ऐश्वर्यवान्, शत्रुनाशक के समान (विजेष-कृत्) विजय करने वाला, (अनवब्रवः) निन्दित वचन न बोलने वाला, वा स्वयं अन्यों से हीन वचन न कहने योग्य है। हे (मन्यो) आदरणीय ! हे माननीय ! तू (इह अस्माकं अधिपाः भव) यहां हमारा अध्यक्ष पालक हो। हे (सहुरे) विजयशील, हे सहिष्णो ! हम यहां (ते प्रियं नाम गृणीमसि) तेरे प्रिय नाम का उच्चारण करते हैं, तेरे प्रिय आदर योग्य वचन कहते हैं, तुझे नमस्कार करते हैं। हम तुझ (तम् उत्सम् विद्म) उस उत्तम सुख देने वाले परम निकास वा रसोत्पादक मेघ वा कूप के समान परमपद वा शक्ति के उन्नत करने वाले उस स्रोत को जानें (यतः) जिस रूप से तू (आबभूथ) सर्वत्र व्याप रहा है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    मन्युस्तापस ऋषिः॥ मन्युर्देवता॥ छन्दः- १, ३ त्रिष्टुप्। २ भुरिक् त्रिष्टुप्। ४, ५ पादनिचृज्जगती। ६ आर्ची स्वराड़ जगती। ७ विराड़ जगती। सप्तर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    'ज्ञान का उद्गम स्थान' प्रभु

    पदार्थ

    [१] हे ज्ञान ! तू (विजेषकृत्) = विजय को करनेवाला है। तू काम-क्रोधादि शत्रुओं को पराजित करता है । (इन्द्र इव) = जितेन्द्रिय पुरुष की तरह (अनवब्रवः) = हुंकार द्वारा पराजित करके भगाया नहीं जा सकता। काम-क्रोधादि की हुंकार तुझे उसी प्रकार भयभीत नहीं कर पाती जैसे कि एक जितेन्द्रिय पुरुष को आसुरवृत्तियाँ पराजित नहीं कर पाती । हे (मन्यो) = ज्ञान ! तू (इह) = इस जीवनयज्ञ में (अस्माकम्) = हमारा (अधियाः) = रक्षक (भव) = हो । [२] हे (सहुरे) = शत्रुओं का मर्षण करनेवाले ज्ञान ! हम (ते) = तेरे (प्रियम्) = प्रिय नाम (गृणीमसि) = स्तोत्र का उच्चारण करते हैं, अर्थात् ज्ञान की महिमा को हृदय में अङ्कित करने के लिये उसका स्तवन करते हैं और ज्ञान के महत्त्व को समझते हुए (तं उत्सम्) = उस स्रोत को भी (विद्मा) = जानते हैं (यतः आबभूथ) = जहाँ से कि यह ज्ञान उत्पन्न होता है। गंगा के महत्त्व को माननेवाला जैसे गंगा के उद्गम स्थान गंगोत्री को देखने का प्रयत्न करता है, उसी प्रकार ज्ञानभक्त पुरुष ज्ञान के स्रोत प्रभु को जानने के लिए यत्नशील होता है। इस प्रभु का ज्ञान ही ज्ञान की चरमसीमा है । यहाँ पहुँचने पर सब पापों का ध्वंस हो जाता है।

    भावार्थ

    भावार्थ - ज्ञान कामादि का संहार व पराभव करता है, यही हमारा रक्षक है। ज्ञान के स्रोत प्रभु का दर्शन ही ज्ञान की चरमसीमा है ।

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (मन्यो) हे आत्मप्रभाव ! (विजेषकृत्) त्वं विजयस्य कर्तासि (इन्द्रः-इव) विद्युदिव यतस्त्वं विद्युच्छक्तिमानसि (अनवब्रवः) अनवक्षिप्तवचनः “अनवब्रवः-अनवक्षिप्तवचनः” [निरु० ६।२९] अननुचितवचनो नितान्तोचितवचनो यथार्थविचारवानसि (इह-अस्माकम्-अधिपाः-भव) अत्रास्माकमधीने सन् रक्षको भव (सहुरे) हे सर्वबाधक ! “जसिसहोरुरिन्” [उणा० २।७४] “सह धातोः उरिन् प्रत्ययः” (ते प्रियं नाम गृणीमसि) तव प्रियं नमनस्थानं यस्मिन् त्वं नमसि “य आत्मदाः” तद्गृणीमः-प्रशंसामः (यतः-आबभूथ) यस्मात् त्वमभिभवसि-आविर्भवसि (तम्-उत्सं विद्म) तमुत्स्यन्दनदेशं जानीमः-तं वयं स्तुमः ॥५॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Uncontradicted, irreproachable victorious like Indra, O Manyu, be our protector and promoter here throughout life. For sure, O spirit of courage, forbearance and victory, we adore you, dear and adorable of all. We know where you arise from, fountain head of the lust for life, inspiration and victory: Dharma and the universal love of life.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    आत्मप्रभाव विद्युतप्रमाणे शक्तीयुक्त असतो. बाधकांचे दमन करतो. योग्य गोष्ट सुचवितो. याचे मूल स्रोत परमात्मा आहे. तो आत्मदा आहे. त्याची स्तुती प्रशंसा केली पाहिजे, ज्यामुळे त्याने उत्कृष्ट विचार सुचवावे. ॥५॥

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