ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 84/ मन्त्र 7
संसृ॑ष्टं॒ धन॑मु॒भयं॑ स॒माकृ॑तम॒स्मभ्यं॑ दत्तां॒ वरु॑णश्च म॒न्युः । भियं॒ दधा॑ना॒ हृद॑येषु॒ शत्र॑व॒: परा॑जितासो॒ अप॒ नि ल॑यन्ताम् ॥
स्वर सहित पद पाठसम्ऽसृ॑ष्टम् । धन॑म् । उ॒भय॑म् । स॒म्ऽआकृ॑तम् । अ॒स्मभ्य॑म् । द॒त्ता॒म् । वरु॑णः । च॒ । म॒न्युः । भिय॑म् । दधा॑नाः । हृद॑येषु । शत्र॑वः । परा॑ऽजितासः । अप॑ । नि । ल॒य॒न्ता॒म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
संसृष्टं धनमुभयं समाकृतमस्मभ्यं दत्तां वरुणश्च मन्युः । भियं दधाना हृदयेषु शत्रव: पराजितासो अप नि लयन्ताम् ॥
स्वर रहित पद पाठसम्ऽसृष्टम् । धनम् । उभयम् । सम्ऽआकृतम् । अस्मभ्यम् । दत्ताम् । वरुणः । च । मन्युः । भियम् । दधानाः । हृदयेषु । शत्रवः । पराऽजितासः । अप । नि । लयन्ताम् ॥ १०.८४.७
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 84; मन्त्र » 7
अष्टक » 8; अध्याय » 3; वर्ग » 19; मन्त्र » 7
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अष्टक » 8; अध्याय » 3; वर्ग » 19; मन्त्र » 7
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(वरुणः-च मन्युः) वरणीय परमात्मा तथा मानने योग्य-अनुभव करने योग्य आत्मप्रभाववाला या स्वाभिमानवाला सेनानायक (अस्मभ्यम्) हमारे लिये (उभयम्) दोनों प्रकारवाला सांसारिक और पारलौकिक (संसृष्टम्) संयुक्त (समाकृतम्) सम्पुष्ट (धनं दत्ताम्) धन देवे (शत्रवः-भियम्) शत्रुजन भय को (हृदयेषु दधानाः) हृदयों में धारण करते हुए (पराजितासः) पराजित होते हुए (अप निलयन्ताम्) दूर विलीन हो जावे ॥७॥
भावार्थ
रजा को परमात्मा का आश्रय तथा सेनानायक का आश्रय लेने से सांसारिक और पारलौकिक ऐश्वर्य मिलता है, दोनों प्रकार के शत्रु भीतर बाहिर के दूर नष्ट हो जावेंगे ॥७॥
विषय
वह प्रजा को ऐश्वर्य दे, शत्रुओं को भय दिखावे।
भावार्थ
(वरुणः च मन्युः) माननीय और सब से वरण करने योग्य, श्रेष्ठ सेनापति और सभापति दोनों (संसृष्टं) सब के साथ मिला, (उभयम्) दोनों प्रकार का, चर और अचर (समाकृतम्) अच्छे प्रकार से सम्पादित (धनं) धन को (अस्मभ्यं) हमें (दत्ताम्) देवें। और (शत्रवः) शत्रुगण (हृदयेषु भियं दधानाः) हृदयों में भय धारण करते हुए (पराजितासः) पराजित होकर (अप निलयन्ताम्) दूर भाग कर छिप जाय। इत्येकोनविंशो वर्गः। इति षष्ठोऽनुवाकः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
मन्युस्तापस ऋषिः॥ मन्युर्देवता॥ छन्दः- १, ३ त्रिष्टुप्। २ भुरिक् त्रिष्टुप्। ४, ५ पादनिचृज्जगती। ६ आर्ची स्वराड़ जगती। ७ विराड़ जगती। सप्तर्चं सूक्तम्॥
विषय
शत्रुओं का सुदूर पलायन
पदार्थ
[१] (मन्युः) = ज्ञान (च) = तथा (वरुणः) = ज्ञान के द्वारा सब दुरितों का निवारण करनेवाले प्रभु (अस्मभ्यम्) = हमारे लिये (उभयम्) = ज्ञान व श्रद्धारूप द्विविध धन को, (समाकृतम्) = सम्यक् उत्पन्न किये हुए को तथा (संसृष्टम्) = परस्पर मिले हुए को (दत्ताम्) = दें । प्रभु कृपा से ज्ञान को प्राप्त करते हुए हम अपने जीवनों में ज्ञान व श्रद्धा का समन्वय करके चलें। इन दोनों को उत्पादन हमारे में सम्यक्तया हो और ये हमारे जीवन में संसृष्ट हों, परस्पर मिले हुए हों । 'ठीक ज्ञान' श्रद्धा को पैदा करता है और 'श्रद्धा' ज्ञान को पैदा करती है। [२] इस प्रकार हमारे मस्तिष्क व हृदय के परस्पर संगत हो जाने पर (शत्रवः) = सब काम-क्रोधादि शत्रु (हृदयेषु भियं दधानाः) = अपने हृदयों में भय का धारण करते हुए (पराजितासः) = पराजित हुए हुए (अपनिलयन्ताम्) = कहीं सुदूर निलीन हो जाएँ। हमारे से दूर जा छिपें । हम कामादि से आक्रान्त न हों।
भावार्थ
भावार्थ - ज्ञान के द्वारा प्रभु-दर्शन होने पर हमारे जीवनों में ज्ञान व श्रद्धा के धन का वह समन्वय होता है कि सब कामादि शत्रु सुदूर विनष्ट हो जाते हैं । इस सम्पूर्ण सूक्त में ज्ञान की ही महिमा का उल्लेख है । [१] यह ज्ञान हमें ओजस्वी बनाता है, कामादि शत्रुओं को पराभूत करता है, [२] यह सब कोशों के ऐश्वर्य को देनेवाला हैं, [३] वास्तविक ज्ञान हमें प्रभु के प्रति श्रद्धान्वित करके हमारे जीवनों में ज्ञान व श्रद्धा के समन्वय को करता है, [४] अब अगले सूक्त में इस 'मन्यु तापस' के गृहस्थ में प्रवेश का उल्लेख है । यह ब्रह्मचर्याश्रम में शक्ति का रक्षण करके, सोम [वीर्य] का पान करके 'सोम' शब्द से ही कहलाता है । यह चाहता है कि सूर्य के समान प्रकाशमय हृदयवाली पत्नी ही इसे प्राप्त हो। इसीलिए उसे 'सूर्या' शब्द से स्मरण किया गया है। मानो यह सविता की ही पुत्री है। यह 'सावित्री सूक्त' ही प्रस्तुत सूक्त की ऋषिका है। गृहस्थ में प्रवेश का मुख्य उद्देश्य सन्तान प्राप्ति है। उसके साधनभूत सोम [वीर्य] के वर्णन से ही सूक्त का प्रारम्भ है।
संस्कृत (1)
पदार्थः
(वरुणः-च मन्युः) वरणीयं परमात्मा तथा माननीयोऽनुभवनीय आत्मप्रभाववान् सेनानायकः (अस्मभ्यम्) अस्मदर्थं (उभयं संसृष्टम्) द्विप्रकारकं सांसारिकं पारलौकिकं संयुक्तं (समाकृतं धनं दत्ताम्) सम्पुष्टं धनं प्रयच्छतां (शत्रवः-भियं हृदयेषु दधानाः) शत्रवो हृदयेषु भयं धारयन्तः (पराजितासः) पराजिताः सन्तः (अप निलयन्ताम्) दूरं विलीना भवन्तु ॥७॥
इंग्लिश (1)
Meaning
May Varuna, highest lord of life loved and worshipped with rational choice, and Manyu, highest ardour of life, give us integrated material and spiritual wealth of both this world of humanity and the light of divinity, and may the enemies, negativities and adversities, fear stricken at heart and defeated, run off and dissolve into the darkness of their origin.
मराठी (1)
भावार्थ
परमात्म्याचा आश्रय व सेनानायकाचा आश्रय घेण्याने राजाला सांसारिक व पारलौकिक ऐश्वर्य मिळते. दोन्ही प्रकारचे शत्रू आत बाहेरचे नष्ट होतील. ॥७॥
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