Loading...
ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 89 के मन्त्र
1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18
मण्डल के आधार पर मन्त्र चुनें
अष्टक के आधार पर मन्त्र चुनें
  • ऋग्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 89/ मन्त्र 3
    ऋषिः - रेणुः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    स॒मा॒नम॑स्मा॒ अन॑पावृदर्च क्ष्म॒या दि॒वो अस॑मं॒ ब्रह्म॒ नव्य॑म् । वि यः पृ॒ष्ठेव॒ जनि॑मान्य॒र्य इन्द्र॑श्चि॒काय॒ न सखा॑यमी॒षे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स॒मा॒नम् । अ॒स्मै॒ । अन॑पऽवृत् । अ॒र्च॒ । क्ष्म॒या । दि॒वः । अस॑मम् । ब्रह्म॑ । नव्य॑म् । वि । यः । पृ॒ष्ठाऽइ॑व । जनि॑मानि । अ॒र्यः । इन्द्रः॑ । चि॒काय॑ । न । सखा॑यम् । ई॒षे ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    समानमस्मा अनपावृदर्च क्ष्मया दिवो असमं ब्रह्म नव्यम् । वि यः पृष्ठेव जनिमान्यर्य इन्द्रश्चिकाय न सखायमीषे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    समानम् । अस्मै । अनपऽवृत् । अर्च । क्ष्मया । दिवः । असमम् । ब्रह्म । नव्यम् । वि । यः । पृष्ठाऽइव । जनिमानि । अर्यः । इन्द्रः । चिकाय । न । सखायम् । ईषे ॥ १०.८९.३

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 89; मन्त्र » 3
    अष्टक » 8; अध्याय » 4; वर्ग » 14; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (यः) जो (इन्द्रः) ऐश्वर्यवान् परमात्मा (अर्यः) सारे जगत् का स्वामी (पृष्ठा-इव जनिमानि) जायमान जीवात्माओं को (वि चिकाय) विशेषरूप से जानता है (सखायं न-ईषते) वह अपने उपासक सखा को हिंसित नहीं करता है (ब्रह्म) वह ब्रह्म नाम से प्रसिद्ध है (नव्यम्) वह ब्रह्म स्तुति करने योग्य है (समानम्) सबके लिये समान है निष्पक्ष है (अनपवृत्) पृथक् नहीं किन्तु सर्वान्तर्यामी है (क्ष्मया दिवः-असमम्) पृथिवी से द्युलोक से समता रखनेवाला-एकदेशी नहीं है (अस्मै) इसके लिये (अर्च) स्तुति कर ॥३॥

    भावार्थ

    परमात्मा जगत् का स्वामी महान् आत्माओं को जाननेवाला सर्वान्तर्यामी निष्पक्ष है, उसकी स्तुति करनी चाहिए ॥३॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    अविच्छिन्न उपासना

    पदार्थ

    [१] (अस्मा) = इस प्रभु के लिये (अनपावृत्) = [अपगतिरहितं सा० ] अपगति से रहित रूप में, अर्थात् बीच में विच्छेद न हो जानेवाले रूप में (समानम्) = सदा समानरूप से (अर्च) = अर्चना करनेवाला हो। उस प्रभु की अर्चना करनेवाला हो, जो प्रभु क्(ष्मया दिवः असमम्) = पृथ्वी व द्युलोक के समान नहीं हैं, अर्थात् पृथ्वी व द्युलोक से अत्यन्त महान् हैं । (ब्रह्म) = [बृहि वृद्धौ] सब गुणों के दृष्टिकोण से बढ़े हुए हैं, सब गुणों की चरमसीमा हैं । प्रत्येक गुण उस प्रभु में निरतिशय रूप से है । इसीलिए वे प्रभु (नव्यम्) = अत्यन्त स्तुति के योग्य हैं । [ नु स्तुतौ] [२] वे प्रभु (अर्य:) = स्वामी हैं, सारे ब्रह्माण्ड के अधिपति हैं, सब जीवों का भी नियन्त्रण करनेवाले हैं । (इन्द्रः) = परमैश्वर्यशाली (यः) = जो प्रभु हैं वे (जनिमानि) = सब मनुष्यों को पृष्ठा इव अपनी पीठों के समान [backbone] (चिकाय) = जानते हैं । जीव न हों तो प्रभु को जाने ही कौन ? जैसे राजा का आधार प्रजा पर है, प्रजा न हो तो राजा क्या ? इसी प्रकार जीवों के अभाव में प्रभु की स्थिति है। जीव ही प्रभु को जानते हैं और उसकी महिमा का प्रतिपादन करते हैं। जीव ही प्रभु के पृष्ठ पोषक हैं। वे प्रभु भी (सखायम्) = अपने मित्रभूत इस जीव को (न ईषे) = [ ईष् to kill ] नष्ट नहीं होने देते। जो जीव प्रभु का उपासक बनता है, वह प्रभु ज्ञान का प्रसार करता है और प्रभु इस उपासक को काम- क्रोधादि से हिंसित होने से बचाते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ- हमें सदा प्रभु का उपासन करना चाहिए। उपासना में विच्छेद न हो । प्रभु हमें नष्ट होने से बचाएँगे ।

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    उपास्य प्रभु, एकरस सर्वव्यापक, अमित, महान् सर्वपालक, सर्वप्रिय प्रभु।

    भावार्थ

    हे विद्वन् ! तू (अस्मै) इस महान् प्रभु की (अर्च) उपासना पूजा कर। जो (समानम्) सर्वत्र समान, निष्पक्षपात, एकरस है। (अनप-वृत्) जो अपवृत् अर्थात् दूर विद्यमान नहीं, प्रत्युत सब के पास है, अथवा (अनप-वृत्) सबको प्रकट न होकर गूढ़ है। जो (क्ष्मया असमं) इस पृथ्वी के समान न स्थूल, परिमित होकर (दिवः असमं) आकाश वा सूर्य से भी कहीं (ब्रह्म) महान् होने से ‘ब्रह्म’ है। (यः) जो (इन्द्रः) ऐश्वर्यवान्, तेजोमय, (अर्यः) सबका स्वामी होकर (जनिमानि) उत्पन्न होने वाले समस्त जीव प्राणियों को (पृष्ठा इव) पालनीय करके (विचिकाय) जानता है और (सखायम्) अपने मित्र भक्त जीव को (न ईषे) कभी उद्विग्न नहीं करता, उसे परे नहीं धकेलता। प्रत्युत उसे अपनी शरण में रखता है। नंगा नहीं करता, प्रत्युत बचा कर रखता है।

    टिप्पणी

    ईष उञ्छे। उञ्च्छनं विवासनम।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषि रेणुः॥ देवता—१–४, ६–१८ इन्द्रः। ५ इन्द्रासोमौ॥ छन्द:- १, ४, ६, ७, ११, १२, १५, १८ त्रिष्टुप्। २ आर्ची त्रिष्टुप्। ३, ५, ९, १०, १४, १६, १७ निचृत् त्रिष्टुप्। ८ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। १३ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्॥ अष्टादशर्चं सूक्तम्॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (यः-इन्द्रः-अर्यः) य ऐश्वर्यवान् सर्वस्य जगतः स्वामी (पृष्ठा इव जनिमानि वि चिकाय) आत्मनः जायमानान् “आत्मा वै पृष्ठानि” [को० २५।१२] “इवोऽपि दृश्यते” [निरु० १।११] इति पदपूरण इव शब्दः विजानाति (न सखायम्-ईषते) स सखायमुपासकं, न हिनस्ति ‘ईष गतिहिंसादर्शनेषु” [भ्वादि०] (ब्रह्म) ‘ब्रह्म’ इति नामतः प्रसिद्धं (नव्यम्) स्तुतियोग्यम् “णु स्तुतौ” [अदादि०] (समानम्) सर्वेभ्यः समानं निष्पक्षं (अनपवृत्) न पृथग्वर्तमानं सर्वान्तर्यामि (क्ष्मया-दिवः-असमम्) द्यावापृथिव्योर्न सममपि तु ततोऽतिमहदस्ति (अस्मै) अस्मै ब्रह्मणे (अर्च) स्तवनं कुरु ॥३॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Worship Indra, constant, evident and immanent, greater than heaven and earth, infinite, adorable ever new, who, as primary foundation and ultimate master, knows all that are born in existence and neither deserts friends nor hurts the devotees.

    इस भाष्य को एडिट करें

    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमात्मा जगाचा स्वामी, महान आत्म्याला जाणणारा, सर्वान्तर्यामी निष्पक्ष आहे. त्याची स्तुती केली पाहिजे. ॥३॥

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top