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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 89 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 89/ मन्त्र 8
    ऋषिः - रेणुः देवता - इन्द्र: छन्दः - पादनिचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    त्वं ह॒ त्यदृ॑ण॒या इ॑न्द्र॒ धीरो॒ऽसिर्न पर्व॑ वृजि॒ना शृ॑णासि । प्र ये मि॒त्रस्य॒ वरु॑णस्य॒ धाम॒ युजं॒ न जना॑ मि॒नन्ति॑ मि॒त्रम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वम् । ह॒ । त्यत् । ऋ॒ण॒ऽयाः । इ॒न्द्र॒ । धीरः॑ । अ॒सिः । न । पर्व॑ । वृ॒जि॒ना । शृ॒णा॒सि॒ । प्र । ये । मि॒त्रस्य॑ । वरु॑णस्य । धाम॑ । युज॑म् । न । जनाः॑ । मि॒नन्ति॑ । मि॒त्रम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वं ह त्यदृणया इन्द्र धीरोऽसिर्न पर्व वृजिना शृणासि । प्र ये मित्रस्य वरुणस्य धाम युजं न जना मिनन्ति मित्रम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्वम् । ह । त्यत् । ऋणऽयाः । इन्द्र । धीरः । असिः । न । पर्व । वृजिना । शृणासि । प्र । ये । मित्रस्य । वरुणस्य । धाम । युजम् । न । जनाः । मिनन्ति । मित्रम् ॥ १०.८९.८

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 89; मन्त्र » 8
    अष्टक » 8; अध्याय » 4; वर्ग » 15; मन्त्र » 3
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (इन्द्र) हे ऐश्वर्यवन् परमात्मन् ! (त्वं ह) तू निश्चय (त्यत्) जो वह (ऋणया धीरः) ऋण को वृद्ध हुए सूदमूलसहित प्राप्त करनेवाला धीर हो जाता है-धैर्य आनन्द से युक्त हो जाता है, ऐसे ही परमात्मा के आनन्द से युक्त होकर सानन्द हो जाता है, (असिः-न पर्व वृजिनं शृणासि) या जैसे तलवार अङ्ग को काट देता है, ऐसे तू परमात्मन् ! उपासक के पाप को काट डालता है (ये जनाः-मित्रस्य वरुणस्य) जो जन प्रेरक एवं वरनेवाले परमात्मा के (धाम युजं मित्रं न मिनन्ति) मोक्षधाम प्राप्त करने योग्य स्नेहपूर्ण को नष्ट नहीं करते हैं, उनके ही पाप नष्ट करता है ॥८॥

    भावार्थ

    मूलधन को सूद सहित पानेवाला जैसे आनन्द प्राप्त करता है, ऐसे परमात्मा के प्रति अपने आत्मा को समर्पित करनेवाला ब्रह्मानन्द से अपने को सानन्द बनाता है। तलवार जैसे अङ्गों को काट डालता है, ऐसे परमात्मा उपासक के पापों को नष्ट कर देता है ॥८॥

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    विषय

    स्नेह - निर्देषता व प्रभु मित्रता

    पदार्थ

    [१] हे (इन्द्र) = जितेन्द्रिय पुरुष ! (त्वम्) = तू (ह) = निश्चय से (त्यत्) = उस (ऋणया:) = [ऋण: जलः रेतस्] रेतस् को प्राप्त होनेवाला है अतएव (धीरः) = ज्ञान में रमण करनेवाला है [धियि रमते] । इस ज्ञान में रमण के कारण ही तू (वृजिना) = पापों को इस प्रकार (शृणासि) = शीर्ण करता है (इव) = जिस प्रकार (असि:) = तलवार पर्व जोड़ों को चीर डालती है । सोमरक्षण से ज्ञान बढ़ता है, ज्ञान से पापृवृत्ति समाप्त होती है। [२] ये सोमरक्षक वे (जनाः) = व्यक्ति होते हैं (ये) = जो (मित्रस्य) = मित्र के, (वरुणस्य) = वरुण के धाम = तेज को (न प्रमिनन्ति) = हिंसित नहीं करते। ये सबके साथ स्नेह करनेवाले होते हैं, [मित्र] ये किसी के साथ द्वेष को नहीं करते [वरुण] । इस स्नेह व निर्देषता के परिणामरूप ये तेजस्वी बनते हैं । द्वेष की भावना मनुष्य को निस्तेज बनानेवाली है । ये व्यक्ति (युजं मित्रम्) = उस सदा साथ रहनेवाले मित्र प्रभु को [न प्रमिनन्ति] हिंसित नहीं करते । अर्थात् ये सदा उस प्रभु का स्तवन करते हैं। उस प्रभु को मित्र के रूप में देखते हैं। इस प्रभु रूप मित्र के कारण ही इनकी शक्ति सदा बनी रहती है।

    भावार्थ

    भावार्थ - हम प्रभु का स्मरण करें। सब के साथ स्नेह व निर्देषता से चलें। सोम का रक्षण करते हुए अशुभ वृत्तियों को अपने से दूर रखें।

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    विषय

    परम धनी प्रभु। तलवार के तुल्य प्रभु पाप-नाशक।

    भावार्थ

    हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन् ! जल अन्नादि ऐश्वर्यों के देने वाले प्रभो ! (त्वं ह) तू निश्चय से (त्यत्) वह परम (ऋणयाः) धनों का देने वाला है। (असिः पर्व न) जिस प्रकार तलवार शरीर के पोरु २ को काट डालता है उसी प्रकार तू (वृजिना शणासि) अनेक पापों को काट डालता है। शेष आधी ऋचा का अगले मन्त्र से सम्बन्ध है अतः उसका व्याख्यान भी अगली ऋचा के साथ करते हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषि रेणुः॥ देवता—१–४, ६–१८ इन्द्रः। ५ इन्द्रासोमौ॥ छन्द:- १, ४, ६, ७, ११, १२, १५, १८ त्रिष्टुप्। २ आर्ची त्रिष्टुप्। ३, ५, ९, १०, १४, १६, १७ निचृत् त्रिष्टुप्। ८ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। १३ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्॥ अष्टादशर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (इन्द्रः) हे ऐश्वर्यवन् परमात्मन् ! (त्वं ह) त्वं खलु (त्यत्) स्यः-सोऽस्ति “सुपां सुलुक्… [अष्टा० ७।१।३९] इति सोर्लुक्” यः (ऋणया धीरः) यथा ह्यृणं प्रापयिता ऋणस्य वृद्धं धनं प्राप्य धीरो भवति धैर्यं लभते-सवृद्धमृणधनमागतमिति मत्वा, तथा परमात्मानन्दं प्राप्य भवति (असिः-न पर्व वृजिनं शृणासि) यथा वाऽसिः शस्त्रं पर्वाणि छिनत्ति तथा खलूपासकानां वर्जनीयानि पापानि हंसि “वृजिनानि वर्जनीयानि” [निरु० १०।४१] (ये जनाः-मित्रस्य वरुणस्य) ये जनाः-प्रेरकस्य वरयितुश्च (धाम युजं मित्रं न मिनन्ति) मोक्षधाम योक्तव्यं स्नेहपूर्णं न हिंसन्ति ॥८॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    You alone are the constant and magnificent giver of bliss, and you alone, like the sword severing every knot and joint of negativity, destroy the evil and crookedness of life for those good people who do not violate the light and law of Mitra and Varuna, universal spirit of love, friendship and judgement and for those who do not ever deceive a real sincere friend of all time.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    मूळ धन व्याजासहित प्राप्त करणारा जसा आनंद प्राप्त करतो तसे परमात्म्याला समर्पित होणारा ब्रह्मानंदाने आपल्याला आनंदयुक्त करतो. तलवार जशी अंगांना कापते तसे परमात्मा उपासकांच्या पापांना नष्ट करतो. ॥८॥

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