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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 89 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 89/ मन्त्र 4
    ऋषिः - रेणुः देवता - इन्द्र: छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    इन्द्रा॑य॒ गिरो॒ अनि॑शितसर्गा अ॒पः प्रेर॑यं॒ सग॑रस्य बु॒ध्नात् । यो अक्षे॑णेव च॒क्रिया॒ शची॑भि॒र्विष्व॑क्त॒स्तम्भ॑ पृथि॒वीमु॒त द्याम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इन्द्रा॑य । गिरः॑ । अनि॑शितऽसर्गाः । अ॒पः । प्र । ई॒र॒य॒म् । सग॑रस्य । बु॒ध्नात् । यः । अक्षे॑णऽइव । च॒क्रिया॑ । शची॑भिः । विष्व॑क् । त॒स्तम्भ॑ । पृ॒थि॒वीम् । उ॒त । द्याम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्राय गिरो अनिशितसर्गा अपः प्रेरयं सगरस्य बुध्नात् । यो अक्षेणेव चक्रिया शचीभिर्विष्वक्तस्तम्भ पृथिवीमुत द्याम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्राय । गिरः । अनिशितऽसर्गाः । अपः । प्र । ईरयम् । सगरस्य । बुध्नात् । यः । अक्षेणऽइव । चक्रिया । शचीभिः । विष्वक् । तस्तम्भ । पृथिवीम् । उत । द्याम् ॥ १०.८९.४

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 89; मन्त्र » 4
    अष्टक » 8; अध्याय » 4; वर्ग » 14; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (इन्द्राय) ऐश्वर्यवान् परमात्मा के लिये (अनिशितसर्गाः) अननुकूल प्रवाहवाले (अपः-गिरः) जलों के समान स्तुतियाँ (प्रेरयम्) प्रेरित कर (सगरस्य बुध्नात्) आकाश के प्रदेश हृदय से (यः) जो परमात्मा (अक्षेण-इव शचीभिः-चक्रिया) अक्षदण्ड से जैसे चक्रों को कर्मों से (पृथिवीम्-उत द्याम्) पृथिवी और द्युलोक को (विष्वक् तस्तम्भ) व्याप्ति से सम्भाल रहा है ॥४॥

    भावार्थ

    परमात्मा के लिये न रुकनेवाले स्तुतिप्रवाहों को ही प्रेरित करना चाहिए, जो अपनी व्याप्ति से द्युलोक पृथिवी चक्रों के समान चला रहा, सम्भाल रहा है ॥४॥

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    विषय

    अधिकाधिक स्तवन

    पदार्थ

    [१] मैं (सगरस्य बुध्नात्) = [सगर= अन्तरिक्ष नाम नि० १ । ३] हृदयान्तरिक्ष के मूल से, हृदय के अन्तस्तल से इन्द्राय उस परमैश्वर्यशाली प्रभु के लिये (अनिशितसर्गा:) = [अतनूकृत विसर्गाः सा० ] न शिथिल हुई हुई (गिरः) = स्तुति वाणियों को तथा (अपः) = कर्मों को (प्रेरयम्) = प्रेरित करता हूँ । अर्थात् मेरी वाणी अधिकाधिक प्रभु का स्तवन करनेवाली होती है और मैं जो कर्म करता हूँ सब प्रभु के अर्पण करनेवाला होता हूँ। [२] उस प्रभु का मैं अधिकाधिक स्तवन करता हूँ (यः) = जो (अक्षेणेव चक्रिया इव) = धुरे axle से पहियों की तरह (विष्वक् शचीभिः) = सर्वत्र व्याप्त होनेवाले इनका प्रज्ञानों व कर्मों से (पृथिवीम्) = पृथिवी को (उत) = और (द्याम्) = द्युलोक को (तस्तम्भ) = थामते हैं, धारण करते हैं। प्रभु उपासक के भी मस्तिष्करूप द्युलोक को तथा शरीर रूप पृथिवी को धारण करनेवाले हैं। सम्पूर्ण ज्ञान व शक्ति के स्रोत प्रभु ही हैं, वे ही हमारे मस्तिष्क को ज्योतिर्मय तथा शरीर को शक्ति सम्पन्न करते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ- मैं प्रभु का स्तवन करता हूँ। सब कर्मों को प्रभु के प्रति अर्पित करता हूँ । प्रभु ही द्युलोक व पृथिवीलोक का धारण करते हैं ।

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    विषय

    सर्वप्रेरक सर्वधारक प्रभु।

    भावार्थ

    जो परमेश्वर (सगरस्य बुध्नात्) महान् आकाश के प्रदेश से (अनिशित- सर्गाः) अनल्प सृष्टि रचने वाले (अपः) जलों के तुल्य प्रकृति के परमाणुओं को और जीवों को वा लोकों को (प्रेरयम्) ऐसे प्रेरित करता है, जैसे (अक्षेण इव चक्रिया) अक्ष-दण्ड के बल से चक्र को चलाया जाता है। और (यः) जो (शचीभिः) अपनी अनेक शक्तियों से (पृथिवीम् विश्वक् तस्तम्भ) पृथिवी को सब ओर से थामे है (उत यः द्यां तस्तम्भ) और जो आकाश वा सूर्य को सब प्रकार से थामे है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषि रेणुः॥ देवता—१–४, ६–१८ इन्द्रः। ५ इन्द्रासोमौ॥ छन्द:- १, ४, ६, ७, ११, १२, १५, १८ त्रिष्टुप्। २ आर्ची त्रिष्टुप्। ३, ५, ९, १०, १४, १६, १७ निचृत् त्रिष्टुप्। ८ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। १३ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्॥ अष्टादशर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (इन्द्राय) ऐश्वर्यपते परमात्मने (अनिशितसर्गाः) अननुकूलप्रवाहाः (अपः-गिरः) अप इव स्तुतीः (प्रेरयम्) प्रेरय “पुरुषव्यत्ययेनोत्तम-पुरुषः” (सगरस्य बुध्नात्) अन्तरिक्षास्याकाशस्य प्रदेशात्-हृदयात् “सगरोऽन्तरिक्षम्” [निघं० १।३] (यः) य इन्द्रः परमात्मा (अक्षेण-इव शचीभिः-चक्रिया) अक्षदण्डेन यथा चक्राणि कर्मभिः “चक्रात्” “डिया प्रत्ययश्छान्दसः” तथा (पृथिवीम् उत द्यां विष्वक् तस्तम्भ) पृथिवीं द्यां च द्यावापृथिव्यौ व्याप्त्या स्तम्भयति ॥४॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    I sing songs of praise and make incessant streams of water flow from the oceans of space and sky in honour of Indra who, with his cosmic power and actions, sustains the heaven and earth in motion like wheels of a chariot held in balance by the axle.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमेश्वरासाठी सतत स्तुती प्रवाह प्रेरित केले पाहिजेत. जो आपल्या व्याप्तीने द्युलोक पृथ्वी चक्राप्रमाणे चालवीत आहे व सर्वांचे रक्षण करत आहे. ॥४॥

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