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ऋग्वेद मण्डल - 2 के सूक्त 15 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 15/ मन्त्र 4
    ऋषिः - गृत्समदः शौनकः देवता - इन्द्र: छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    स प्र॑वो॒ळ्हॄन्प॑रि॒गत्या॑ द॒भीते॒र्विश्व॑मधा॒गायु॑धमि॒द्धे अ॒ग्नौ। सं गोभि॒रश्वै॑रसृज॒द्रथे॑भिः॒ सोम॑स्य॒ ता मद॒ इन्द्र॑श्चकार॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सः । प्र॒ऽवो॒ळ्हॄन् । प॒रि॒ऽगत्य॑ । द॒भीतेः॑ । विश्व॑म् । अ॒धा॒क् । आयु॑धम् । इ॒द्धे । अ॒ग्नौ । सम् । गोभिः॑ । अश्वैः॑ । अ॒सृ॒ज॒त् । रथे॑भिः । सोम॑स्य । ता । मदे॑ । इन्द्रः॑ । च॒का॒र॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स प्रवोळ्हॄन्परिगत्या दभीतेर्विश्वमधागायुधमिद्धे अग्नौ। सं गोभिरश्वैरसृजद्रथेभिः सोमस्य ता मद इन्द्रश्चकार॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सः। प्रऽवोळ्हॄन्। परिऽगत्य। दभीतेः। विश्वम्। अधाक्। आयुधम्। इद्धे। अग्नौ। सम्। गोभिः। अश्वैः। असृजत्। रथेभिः। सोमस्य। ता। मदे। इन्द्रः। चकार॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 15; मन्त्र » 4
    अष्टक » 2; अध्याय » 6; वर्ग » 15; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह।

    अन्वयः

    हे मनुष्या य इन्द्रो जगदीश्वरो दभीतेः परिगत्य विश्वं प्रवोढॄँश्चायुधमिव समिद्धेऽग्नावधाक् गोभिरश्वै रथेभिः सोमस्य मदे ता चकार स प्रलयकृदीश्वरोऽस्तीति ध्यातव्यः ॥४॥

    पदार्थः

    (सः) (प्रवोढॄन्) प्रकृष्टतया वहतः (परिगत्य) परितः सर्वतो गत्वा। अत्रान्येषामपीति दीर्घः (दभीतेः) हिंसनात् (विश्वम्) सर्वं जगत् (अधाक्) दहति (आयुधम्) आयुधमिव (इद्धे) प्रदीप्ते (अग्नौ) (सम्) (गोभिः) धेनुभिः (अश्वैः) तुरङ्गैः (असृजत्) सृजति (रथेभिः) भूरथादियानैः (सोमस्य) उत्पन्नस्य जगतः (ता) तानि (मदे) हर्षे (इन्द्रः) सर्वपदार्थविच्छेत्ता (चकार) करोति ॥४॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा संप्राप्तोऽग्निः शुष्कमार्द्रञ्च भस्मी करोति तथा संप्राप्ते प्रलयसमये जगदीश्वरो सर्वं प्रविलापयति ॥४॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! जो (इन्द्रः) जगदीश्वर (दभीतेः) हिंसा से (परिगत्य) सब ओर से प्राप्त होकर (विश्वम्) समस्त जगत् को (प्रवोढॄन्) उसको प्रकृष्टता से पहुँचानेवालों को (आयुधम्) शस्त्र के समान (समिद्धे) प्रदीप्त (अग्नौ) अग्नि में (अधाक्) भस्म करता है वा (गोभिः) गौओं (अश्वैः) तुरङ्गों और (रथेभिः) भूमि में चलवानेवाले रथादि यानों से (सोमस्य) उत्पन्न हुए जगत् के (मदे) हर्ष के निमित्त (ता) ऐश्वर्य्यसम्बन्धी उक्त कामों को (चकार) करता है (सः) वह प्रलय का करनेवाला ईश्वर सबको सब ओर से ध्यान करने योग्य है ॥४॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे संप्राप्त अग्नि सूखे और गीले पदार्थ को भस्म करता है, वैसे अच्छे प्रकार प्राप्त हुए प्रलय समय में जगदीश्वर सबका प्रलय करता है ॥४॥

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    विषय

    शत्रु- शस्त्र - विनाश

    पदार्थ

    १. 'दभीति' वह साधक है जो कि काम-क्रोधादि को जीतने में लगा हुआ है, परन्तु ये शत्रु इतने प्रबल हैं कि ये उसे अपने प्रवाह में बहा ही ले जाते हैं। प्रभुकृपा से रक्षित हुआ हुआ सोम ज्ञानाग्नि का ईंधन बनता है और तब उस सुसमिद्ध ज्ञानाग्नि में इन काम-क्रोधादि के सब आयुध भस्म हो जाते हैं। इन आयुधों के भस्म होने पर ही तो जीवन सुन्दर बनेगा। (दभीतेः) = काम-क्रोधादि का हिंसन करनेवाले दभीति को भी (प्रवोढॄन्) = बहा ले जानेवाले इन काम-क्रोधादि को (परिगत्य) = चारों ओर से घेर कर (इद्धे अग्नौ) = दीप्त ज्ञानाग्नि में (विश्वम् आयुधम्) = इनके सब आयुधों को (अधाक्) = भस्म कर देते हैं, अर्थात् काम-क्रोध आदि को निरस्त्र करके समाप्त कर देते हैं । २. इन शत्रुओं को समाप्त करके (गोभिः) = उत्कृष्ट ज्ञानेन्द्रियों से, (अश्वैः) = उत्कृष्ट कर्मेन्द्रियों से तथा (रथेभिः) = उत्तम शरीररूप रथों से (सम् असृजत्) = संसृष्ट करते हैं- युक्त करते हैं। काम-क्रोधादि के समाप्त होने पर इन सबका उत्कृष्ट होना निश्चित ही है। काम-क्रोध ही तो इनकी शक्तियों को क्षीण करते हैं। काम, क्रोध नष्ट हुए और इनकी शक्तियाँ विकसित हो उठती हैं। (ता) = इन सब कार्यों को (इन्द्रः) = वे सर्वशक्तिमान् प्रभु (सोमस्य मदे) = सोम के, उल्लास के होने पर (चकार) = करते हैं। हमारे जीवनों में सोमरक्षण होने पर ही ये सब बातें होती हैं। सोमरक्षण से ज्ञानाग्नि दीप्त होती है-दीप्त ज्ञानाग्नि में काम-क्रोध भस्म होते हैं एवं इनके भस्म होने पर सब इन्द्रियाँ व शरीर सशक्त व नीरोग बनते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु उपासक के शत्रुओं के आयुधों को दीप्त ज्ञानाग्नि में भस्म कर देते हैं। इनको समाप्त करके उसे उत्तम ज्ञानेन्द्रियों, कर्मेन्द्रियों व शरीर को प्राप्त कराते हैं ।

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    विषय

    परमेश्वर का वर्णन ।

    भावार्थ

    ( सः इन्द्रः ) समस्त पदार्थों का संयोग और विभाग करने में समर्थ प्रकृति के परमाणु २ तक को छिन्न भिन्न करने हारा वह ‘इन्द्र’ परमेश्वर ( दभीतेः ) विनाश या प्रलय के ( प्रवोढॄन ) अच्छी प्रकार लाने वाले अग्नि जलादि तत्वों को ( परिगत्य ) व्यापकर स्वयं (अग्नौ इद्धे) अग्नि तत्व के खूब प्रज्वलित हो जाने पर ( आयुधम् ) एक दूसरे पर आघात प्रतिघात करने वाले ( विश्वम् ) समस्त संसार को ( अधाक् ) युद्धाग्नि के चमक जाने पर आग्नेयास्त्रको एक महारथी के समान भस्म कर देता है । और वही ( इन्द्रः ) परमेश्वर्यवान् प्रभु ( विश्वम् ) इस जगत् को (गोभिः अश्वैः रथेभिः) गौओं अश्वों और स्थादि साधनों से विश्वकर्मा शिल्पी के समान ( असृजत् ) रच देता है। इसी प्रकार ( विश्वम् ) विश्व अर्थात् शरीर में प्रवेश करने वाले आत्मा को भी ( दभीतेः प्रवोढॄन् परिगत्या ) मृत्यु लाने वाले कारणों में व्यापक ज्वरादि से अग्नि के देह में भड़कने पर प्रभु खूब संतप्त करता है और वही ( विश्वम् गोभिः अश्वैः रथेभिः ) आत्मा या जीव को ज्ञानेन्द्रिय, कर्मेन्द्रिय और रमण योग्य देहों सहित (असृजत् ) उत्पन्न कर देता है। यह सब परमेश्वर कैसे करता है ? ( सोमस्य ता) उत्पन्न होने वाले जगत् के उन २ नाना कर्मों को वह परमेश्वर ( मदे चकार ) अति आनन्द में मग्न रहता २ ही करता है। अथवा (ता) उन २ कर्मों को वह प्रभु ( सोमस्य ) उत्पादक और प्रेरक बल के ( मदे ) हर्ष या उत्कर्ष होने से ही करता है । ( ३ ) राजा के पक्ष में ( सः ) वह राजा ( प्रवोढॄन् परिगत्य ) उत्तम कार्य निर्वाहकों को प्राप्त करके ( दभीतेः विश्वम् आयोधम् इद्धे अग्नौ अघाक् ) अग्नि अर्थात् प्रचण्ड युद्धाग्नि में या राजा रूप अग्र नायक के पद पर स्थित होकर स्वयं हिंसक शत्रु का सर्वस्व भस्म करदें । और ( सोमस्य ) विद्वान् सौम्य पुरुष के गृह को ( गोभिः अश्वैः रथेभिः समसृजत् ) गौ, अश्वों रथों से युक्तकरे । वह यह सब काम ( सोमस्य मदे ) राष्ट्र के दमन करने के बल पर करे ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गृत्समद ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः– १ भुरिक् पङ्क्तिः । ७ स्वराट् पङ्क्तिः । २, ४, ५, ६, १, १० त्रिष्टुप् । ३ निचृत् त्रिष्टुप् । ८ विराट् त्रिष्टुप् । पञ्च दशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जसा अग्नी सुकलेल्या व ओल्या पदार्थांना भस्म करतो, तसे प्रलयाच्या वेळी जगदीश्वर सर्वांचा प्रलय करतो. ॥ ४ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Having overcome all the weapons of violence, fear and terror, he burns them in the blazing fire of his cosmic yajna and creates modes of transport and communication with bullocks, horses, chariots and waves of energy and motive power. He does all these in his ecstasy of creativity for the joy of his creation. This is the glory of Indra.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The theme of God, sun and a scholar is combined below.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O men ! with His excellence, God takes the whole universe at a pitch with His power. Like a weapon, He abolishes the sinners in His fire of Hell. He has created cows, horses, chariots and other modes of transportations for happiness of all. He has sole power of final destruction of the universe.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    A devastating fire burns all articles-dry or wet. God also makes final destruction of the universe at His Will after a certain period. We should never forget Him in our life and in our actions.

    Foot Notes

    (प्रवोद्दीन) प्रकृष्टतया वहतः । = Taking to highest excellence. (परिगत्य ) परितः सर्वतो गत्वा । अत्नान्येणमपीति दीर्घः = Reaching or going from all directions. (अधाक् ) दहति | = Burns (आयुधयम् ) आयुधमिव = Like weapons. (सोमस्य ) उत्पन्नस्य जगतः । = Of the created universe. (इन्द्रः) सर्वपदार्थविच्छेन्ता = Final destructor of all substances.

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