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ऋग्वेद मण्डल - 2 के सूक्त 15 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 15/ मन्त्र 7
    ऋषिः - गृत्समदः शौनकः देवता - इन्द्र: छन्दः - स्वराट्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    स वि॒द्वाँ अ॑पगो॒हं क॒नीना॑मा॒विर्भव॒न्नुद॑तिष्ठत्परा॒वृक्। प्रति॑ श्रो॒णः स्था॒द्व्य१॒॑नग॑चष्ट॒ सोम॑स्य॒ ता मद॒ इन्द्र॑श्चकार॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सः । वि॒द्वान् । अ॒प॒ऽगो॒हम् । क॒नीना॑म् । आ॒विः । भव॑न् । उत् । अ॒ति॒ष्ठ॒त् । प॒रा॒ऽवृक् । प्रति॑ । श्रो॒णः । स्था॒त् । वि । अ॒नक् । अ॒च॒ष्ट॒ । सोम॑स्य । ता । मदे॑ । इन्द्रः॑ । च॒का॒र॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स विद्वाँ अपगोहं कनीनामाविर्भवन्नुदतिष्ठत्परावृक्। प्रति श्रोणः स्थाद्व्य१नगचष्ट सोमस्य ता मद इन्द्रश्चकार॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सः। विद्वान्। अपऽगोहम्। कनीनाम्। आविः। भवन्। उत्। अतिष्ठत्। पराऽवृक्। प्रति। श्रोणः। स्थात्। वि। अनक्। अचष्ट। सोमस्य। ता। मदे। इन्द्रः। चकार॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 15; मन्त्र » 7
    अष्टक » 2; अध्याय » 6; वर्ग » 16; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ सूर्यदृष्टान्तेन विद्वद्विषयमाह।

    अन्वयः

    यः श्रोणो विद्वानिन्द्रो यथा सोमस्य मध्ये कनीनामपगोहं परावृगाविर्भवन्नुदतिष्ठत्प्रतिष्ठाद्द्व्यनगचष्ट तथा मदे ता चकार स सर्वैः सत्करणीयः ॥७॥

    पदार्थः

    (सः) (विद्वान्) सकलशास्त्रवित् (अपगोहम्) आच्छादकम् (कनीनाम्) कान्तीनाम् (आविः) प्रकटतया (भवन्) (उत्) उत्कृष्टे (अतिष्ठत्) तिष्ठति (परावृक्) यः परावृणक्ति (प्रति) (श्रोणः) श्रोता (स्थात्) तिष्ठति (वि) (अनक्) प्रकटी करोति (अचष्ट) उपदिशति (सोमस्य) संसारस्य (ता) (मदे) (इन्द्रः) (चकार) ॥७॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे मनुष्या ! यथा सूर्यः स्वप्रकाशदानेनाऽन्धकारं निवर्त्य विचित्रं जगद्दर्शयति तथा ये विद्वांसः सत्यविद्योपदेशदानेनाऽविद्यां निवर्त्य विविधपदार्थविज्ञानं प्रकटयन्ति ते विश्वभूषका जायन्ते ॥७॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब सूर्य के दृष्टान्त से विद्वान् के विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

    पदार्थ

    जो (श्रोणः) सुननेवाला विद्वान् जन (इन्द्रः) सर्व पदार्थ अलग-अलग करनेवाला सूर्य जैसे (सोमस्य) संसार के बीच (कनीनाम्) कान्तियों के (अपगोहम्) अपगूहन आच्छादन करने को (परावृक्) खोलता (आविर्भवन्) प्रकट होता हुआ (उदतिष्ठत्) ऊपर को स्थिर होता अर्थात् उदय होकर ऊपर को बढ़ता (प्रतिष्ठात्) और प्रतिष्ठा पाता (व्यनक्) पदार्थों को प्रकट करता (अचष्ट) उपदेश करता अर्थात् अपनी गति से यथावत् समय को बतलाता वैसे (मदे) हर्ष के निमित्त (ता) उन कामों को (चकार) करता है (सः) वह सबको सत्कार करने योग्य है ॥७॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! जैसे सूर्य्य अपने प्रकाशदान से अन्धकार को निवृत्त कर विचित्र संसार दिखलाता है, वैसे जो विद्वान् जन सत्य विद्या का उपदेश देने से अविद्या को निवृत्त कर विविध पदार्थ विज्ञान को प्रकट करते हैं, वे विश्व के भूषित करनेवाले होते हैं ॥७॥

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    विषय

    अपंगु व अनन्ध 'परावृक्'

    पदार्थ

    १. (सः) = वह (कनीनाम्) = वेदरूप माता की कन्यारूप मन्त्रवाणियों के (अपगोहम्) = अपने से दूर होकर छिपने को (विद्वान्) = जानता हुआ (आविर्भवन्) = पुनः शक्तियों के विकास को करता हुआ (उदतिष्ठत्) = उठ खड़ा होता है । (परावृक्) = यह पापों का अपने से दूर [परा] वर्जन करनेवाला होता है [वृजी] । जब यह देखता है कि मुझे अन्धा [=ज्ञानवाणियों के अर्थ न समझनेवाला] तथा लंगड़ा [= उनके अनुसार न चलनेवाला] देखकर ये मन्त्ररूप कन्याएँ दूर भाग गई हैं तो यह उनका प्रिय बनने के लिए अपनी शक्तियों का विकास करता है और उन्नत होता हुआ पापों को अपने से दूर करता है । २. (श्रोण:) = आज तक पंगु होता हुआ भी अब यह (प्रतिस्थात्) = गतिशील होता हुआ उन वेदवाणियों के अनुसार क्रियाओं को करनेवाला बनता है और (अनक्) = आज तक आँखों से रहित होता हुआ भी यह अब (व्यचष्ट) = विशेष रूप से देखने लगता है-उन वेद-वाणियों के भाव को खूब समझने लगता है। पंगु को प्रस्थानवाला तथा अन्ध को देखनेवाला करते प्रभु ही हैं । (इन्द्रः) = वे परमैश्वर्यशाली प्रभु ही (सोमस्य) = सोम के मदे उल्लास होने पर (ता) = उन कार्यों को चकार करते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभुकृपा से हम वेदवाणियों के अर्थ को समझनेवाले, अर्थात् आँखोंवाले बनें तथा उनके अनुसार चलनेवाले अर्थात् अपंगु हों तभी हम इन ज्ञानदीप्त (कन दीप्तौ) वेदवाणीरूप कन्याओं के प्रिय होंगे।

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    विषय

    परमेश्वर का वर्णन ।

    भावार्थ

    ( इन्द्रः ) सूर्य या विद्युत् जिस प्रकार ( कनीनाम् ) दीप्ति करने वाली किरणों के ( अपगोहं ) आच्छादन करने वाले अन्धकार को ( परावृक् ) दूर कर देता है और ( आविर्भवन् उत् अतिष्ठत् ) स्वयं तेजस्वी रूप में उदय को प्राप्त होता है वह स्वयं (श्रोणः= शोणः) कान्तिमान्, तेजस्वी होकर ( प्रति स्थात् ) प्रतिष्ठित होता ( वि अनक् ) विविध पदार्थों को प्रकट करता, ( अचष्ट ) सबको पदार्थ दिखाता है उसी प्रकार ( सः विद्वान् ) वह परमेश्वर और विद्वान् ( कनीनाम् अपगोहं ) दीप्ति वाले लोकों या प्रकाशों के आच्छादक घोर तम को और ज्ञान के प्रकाशक सुन्दर वाणियों को ( अपगोहं ) आच्छादक मौन या अज्ञान को भी ( परावृक् ) दूर करे। और स्वयं (आविः भवन् ) प्रकट होकर ( उत् अतिष्ठत् ) उच्च पद पर स्थित हो। वह परमेश्वर ( श्रोणः ) सबकी प्रार्थनाओं को सुनने वाला, होकर ( प्रति स्थात् ) प्रत्येक स्थान में विद्यमान है । वह ( वि अनक ) विविध शक्तियों के रूप में प्रकट होता है और विविध ज्ञानों को प्रकाशित करता है । वह ( वि अचष्ट ) विविध कर्मों का उपदेश करता है । ( सोमस्य मदे) महान् ऐश्वर्य के अति उत्कर्ष के कारण या सोम अर्थात् उत्पन्न संसार, और जीव गण के ( मदे ) आनन्द लाभ के निमित्त ( इन्दः ता चकार ) परमेश्वर यह नाना कार्य करता है। इसी प्रकार विद्वान् ( श्रोणः ) श्रवण शील बहुश्रुत होकर ( प्रतिस्थात् ) प्रतिष्ठा प्राप्त करे। ( वि अनक् ) विविध विज्ञानों को प्रकट करे, (वि अचष्ट ) विविध उपदेश करे ( सोमस्य मदे ) सोम-शिष्य के हर्ष या आनन्द या प्रसन्नता के लिये या ‘सोम’ अपने आत्मा के हर्ष के लिये ( ता ) ये सब कार्य करे । ( ३ ) गृहस्थपक्ष में—( कनीनाम् अपगोहं विद्वान् ) मनुष्य कन्याओं के लज्जाशील स्वभाव को जानकर भी उनके संकोच को ( परावृक् ) अपने से दूर करे। अपने गुणों को प्रकट करता हुआ सूर्य के समान उदय को प्राप्त हो । स्वयं बहुश्रुत होकर विविध गुणों को दिखावे और उत्तम वचन कहे । वीर्य और बल और ऐश्वर्य के ( मदे ) आनन्द में ( इन्द्रः ) संयमी पुरुष इस प्रकार के कर्म करे । इससे वह स्वयंवरा कन्याओं द्वारा वृत होकर गृहस्थ बने ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गृत्समद ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः– १ भुरिक् पङ्क्तिः । ७ स्वराट् पङ्क्तिः । २, ४, ५, ६, १, १० त्रिष्टुप् । ३ निचृत् त्रिष्टुप् । ८ विराट् त्रिष्टुप् । पञ्च दशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे माणसांनो! जसा सूर्य आपल्या प्रकाशदानाने अंधकार नष्ट करून चमत्कारिक जगाचे दर्शन घडवितो तसे जे विद्वान सत्य विद्येचा उपदेश करून अविद्या नाहीशी करून विविध पदार्थ विज्ञान प्रकट करतात ते विश्वाला भूषणावह असतात. ॥ ७ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    He, self-refulgent lord of knowledge, removing the veil of darkness from the lights, manifests himself and stays high and above all. Listening to the prayerful, he abides by all, reveals himself and speaks to the faithful. Thus does Indra perform his actions of divinity in his own ecstasy of creation and for the created.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    Here a scholar is compared with the Sun.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    The sun and a scholar, both, make no discrimination and are accessible to all. Both uncover and discover the truth and secrets of the world. Going upwards, they get honor because they show the right path to the people for their happiness. They both are therefore to be recognized and respected.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    The sun dispels darkness with its might and shows the peculiarity of this world. Same way, the scholars also dispel the ignorance through their knowledge and sermons. Such people are always to be honored.

    Foot Notes

    (अपगोहम्) आच्छादकम् । = Covering, (कनीनाम्) कान्तीनाम् । = Of the glamour. (आवि:) प्रकटतया | = In open. (परावृक) यः परावृणक्ति = One who uncovers or discovers. (श्रोण:) श्रोतां = Listener. (अनक्) प्रकटी करोति । = Manifests. (अचष्ट) उपदिशति । = Teaches.

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