ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 15/ मन्त्र 9
स्वप्ने॑ना॒भ्युप्या॒ चुमु॑रिं॒ धुनिं॑ च ज॒घन्थ॒ दस्युं॒ प्र द॒भीति॑मावः। र॒म्भी चि॒दत्र॑ विविदे॒ हिर॑ण्यं॒ सोम॑स्य॒ ता मद॒ इन्द्र॑श्चकार॥
स्वर सहित पद पाठस्वप्ने॑न । अ॒भि॒ऽउप्य॑ । चुमु॑रिम् । धुनि॑म् । च॒ । ज॒घन्थ॑ । दस्यु॑म् । प्र । द॒भीति॑म् । आ॒वः॒ । र॒म्भी । चि॒त् । अत्र॑ । वि॒वि॒दे॒ । हिर॑ण्यम् । सोम॑स्य । ता । मदे॑ । इन्द्रः॑ । च॒का॒र॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
स्वप्नेनाभ्युप्या चुमुरिं धुनिं च जघन्थ दस्युं प्र दभीतिमावः। रम्भी चिदत्र विविदे हिरण्यं सोमस्य ता मद इन्द्रश्चकार॥
स्वर रहित पद पाठस्वप्नेन। अभिऽउप्य। चुमुरिम्। धुनिम्। च। जघन्थ। दस्युम्। प्र। दभीतिम्। आवः। रम्भी। चित्। अत्र। विविदे। हिरण्यम्। सोमस्य। ता। मदे। इन्द्रः। चकार॥
ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 15; मन्त्र » 9
अष्टक » 2; अध्याय » 6; वर्ग » 16; मन्त्र » 4
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अष्टक » 2; अध्याय » 6; वर्ग » 16; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ राजविषयमाह।
अन्वयः
य इन्द्रस्सेनेशः स्वप्नेन सह वर्त्तमानं चुमुरिं च धुनिं दस्युमभ्युप्य जघन्थ दभीतिं प्रावो रम्भी चिदत्र सोमस्य हिरण्ययं विविदे स मदे तानि चकार ॥९॥
पदार्थः
(स्वप्नेन) शयनेन (अभ्युप्य) अभितो वपनं कृत्वा। अत्र दीर्घः (चुमुरिम्) वक्त्रसंयुक्तम् (धुनिम्) कम्पन्तम् (च) (जघन्थ) हन्यात् (दस्युम्) बलात्कारिणं चोरम् (प्र) (दभीतिम्) हिंसकम् (आवः) अवेत् (रम्भी) आरम्भी (चित्) अपि (अत्र) राज्यप्रबन्धे (विविदे) विन्देत (हिरण्यम्) सुवर्णम् (सोमस्य) विश्वस्य (ता) (मदे) (इन्द्रः) (चकार) ॥९॥
भावार्थः
ये पुरुषार्थिनो जना दस्य्वादीन् दुष्टान् निवार्य्य श्रेष्ठान् रक्षणे सन्दध्युस्ते जगत्यैश्वर्यं लभन्ते ॥९॥
हिन्दी (3)
विषय
अब राजविषय को अगले मन्त्र में कहा है।
पदार्थ
जो (इन्द्रः) सेनापति (स्वप्नेन) निद्रापन से वर्त्तमान (चुमुरिम्) मुखयुक्त अर्थात् चोरपन का मुख बनाये और (धुनिम्) कम्पते हुए (दस्युम्) बलात्कारी अति साहसकारी डाकू चोर का (अभ्युप्य) सब ओर से शिर मुँडवाकर (जघन्थ) मारे (दभीतिम्) हिंसक प्राणी को (प्रावः) उत्कर्षता से रक्खें (रम्भी) कार्यारम्भ करनेवाला (चित्) भी (अत्र) इस राज्य व्यवहार में (सोमस्य) विश्व का (हिरण्यम्) सुवर्ण (विविदे) पावे (सः) वह (मदे) हर्षके निमित्त (ता) उक्त कामों को (चकार) करे ॥९॥
भावार्थ
जो पुरुषार्थी जन डाकू आदि दुष्टों का निवारण कर श्रेष्ठों को रक्षा के निमित्त इकट्ठे करें, वे जगत् के बीच ऐश्वर्य को पाते हैं ॥९॥
विषय
हिरण्य-प्राप्ति
पदार्थ
१. हे प्रभो! आप ही (दस्युम्) = हमारी शक्तियों का उपक्षय करनेवाले (चुमुरिम्) = हमें पी जानेवाले- हमारी सब शक्तियों को निचोड़ लेनेवाले काम को (च) = और (धुनिम्) = कम्पित करनेवाले- क्रोध रूप शत्रु को (स्वप्नेन) = निद्रा से (अभ्युप्य) = संयुक्त करके (आ जघन्थ) = नष्ट कर देते हैं । इन दोनों प्रबल शत्रुओं को पहले स्वप्नावस्थाओं में ले जाकर- [Latent] करके फिर समाप्त कर देते हैं। इनको समाप्त करके (दभीतिम्) = इस शत्रु-हिंसन करनेवाले को आप (प्रआव:) = प्रकर्षेण रक्षित करते हैं। २. हे प्रभो! (अत्र) = इस जीवन में (चित्) = निश्चय से (रम्भी) = आपका आश्रय करनेवाला (हिरण्यम्) = हितरमणीय ज्ञानज्योति को (विविदे) = प्राप्त करता है। (ता) = उन सब कार्यों को (इन्द्रः) = परमात्मा (सोमस्य मदे) = सोमजनित उल्लास के होने पर ही चकार करते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभु ही हमारे काम-क्रोध का विनाश करते हैं और हमें हितरमणीय ज्योति प्राप्त कराते हैं।
विषय
परमेश्वर का वर्णन ।
भावार्थ
( इन्द्रः ) ऐश्वर्यवान् परमेश्वर ( स्वप्नेन ) आलस्य के द्वारा ( चुमुरिम् ) दूसरों के ऐश्वर्य पर मुंह लगाने वाले और ( धुनिम् ) अन्यों को त्रास देने वाले ( दस्युं ) दुष्ट पुरुष को ( अभि उप्य जघन्थ ) उखाड़ कर नष्ट कर देता है। इसी प्रकार ( दभीतिम् प्र आवः ) हिंसक जन्तु सिंहादि को भी नाश करता है । ये आलस्य के समय ही मारे जाते हैं । वह ( रम्भी ) समस्त विश्व का बनाने वाला प्रभु या उत्तम कर्म करने वाला जीव ( अत्र ) इस लोक में ( हिरण्यं ) हित और रमणीय वस्तु को (विविदे) प्राप्त कराता और करता है। सोमस्य मदे इत्यादि पूर्ववत् ! (२) योगी पुरुष (चुमुरिं) मुख द्वारा खाने की लालसा और ( धुनिम् ) दूसरे को त्रास देने की प्रवृत्ति को ( स्वप्नेन = सु-अप्नेन ) उत्तम कर्म के आचरण से दस्यु के समान नाश करे इसी प्रकार ( दभीतिम् प्र आवः ) हिंसा वृत्ति को भी दूर करे । वह ( अत्र ) इस लोक में (रम्भी) क्रिया कुशल होकर ( हिरण्यं ) सुवर्ण के समान कुन्दन, केवल शुद्ध आत्मा का ज्ञान प्राप्त करे । ( सोमस्य मदे ) सर्वोत्पादक प्रभु के परमानन्द में वह ये सब कार्य कर सकता है । ( ३ ) राजा परद्रव्य भोक्ता और नाशकारी और हिंसक पुरुषों को उनके स्वप्न या आलस्य द्वारा पकड़कर विनाश करे । वह ( रम्भी ) उद्योगी होकर ही सुवर्ण धन प्राप्त करता है । जगत् के सुख के लिये अथवा आज्ञाकारी बल, ऐश्वर्य शासन के दमन बल के कारण वह यह सब करे ।
टिप्पणी
प्रावः – अवधातुरत्र हिंसार्थः । भ्वादि ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गृत्समद ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः– १ भुरिक् पङ्क्तिः । ७ स्वराट् पङ्क्तिः । २, ४, ५, ६, १, १० त्रिष्टुप् । ३ निचृत् त्रिष्टुप् । ८ विराट् त्रिष्टुप् । पञ्च दशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
जे पुरुषार्थी लोक दुष्टांचे निवारण करून श्रेष्ठांच्या रक्षणानिमित्त एकत्र येतात ते जगात ऐश्वर्य प्राप्त करतात. ॥ ९ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
He alerts the man yawning with sleepy sloth, silences the agitator, destroys the robber, suppresses the fearful devil, and, under his rule, the honest worker gets his wages in gold. Such are the acts of performance which Indra accomplishes in the ecstasy of soma for the joy of the people.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
Some tips about the running of the government.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
Our Head of the Army or security forces should severely punish the wickeds and criminals and round up the rapists, dare-devils, robbers and lifters. They should be severely dealt with and their heads be shaven off and they should not be allowed to roam in open to persuade others to commit the crimes. Those who are noble in dealings and are of golden or sterling character, the ruler should delight them.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Those who protect noble persons and administer severe exemplary punishment to the criminals, such administrators bring prosperity.
Foot Notes
(स्वप्नेन ) शयनेन।= While sleeping. (अष्युप्य) अभितो वपनं कृत्वा = By shaving of the heads as a lesson. (चुमुरिम् ) वक्त्रसंयुक्तम् = With hidden forces. (धुनिम् ) कम्पन्तम् । = Shaking. (दस्युम् ) बलात्कारिणं चोरम् = Rapists or thieves. (अत्न ) राज्यप्रबन्धे । = In the field of administration.
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