ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 16/ मन्त्र 3
न क्षो॒णीभ्यां॑ परि॒भ्वे॑ त इन्द्रि॒यं न स॑मु॒द्रैः पर्व॑तैरिन्द्र ते॒ रथः॑। न ते॒ वज्र॒मन्व॑श्नोति॒ कश्च॒न यदा॒शुभिः॒ पत॑सि॒ योज॑ना पु॒रु॥
स्वर सहित पद पाठन । क्षो॒णीभ्या॑म् । प॒रि॒ऽभ्वे॑ । ते॒ । इ॒न्द्रि॒यम् । न । स॒मु॒द्रैः । पर्व॑तैः । इ॒न्द्र॒ । ते॒ । रथः॑ । न । ते॒ । वज्र॑म् । अनु॑ । अ॒श्नो॒ति॒ । कः । च॒न । यत् । आ॒शुऽभिः॑ । पत॑सि । योज॑ना । पु॒रु ॥
स्वर रहित मन्त्र
न क्षोणीभ्यां परिभ्वे त इन्द्रियं न समुद्रैः पर्वतैरिन्द्र ते रथः। न ते वज्रमन्वश्नोति कश्चन यदाशुभिः पतसि योजना पुरु॥
स्वर रहित पद पाठन। क्षोणीभ्याम्। परिऽभ्वे। ते। इन्द्रियम्। न। समुद्रैः। पर्वतैः। इन्द्र। ते। रथः। न। ते। वज्रम्। अनु। अश्नोति। कः। चन। यत्। आशुऽभिः। पतसि। योजना। पुरु॥
ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 16; मन्त्र » 3
अष्टक » 2; अध्याय » 6; वर्ग » 17; मन्त्र » 3
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अष्टक » 2; अध्याय » 6; वर्ग » 17; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ विद्वद्विषयमाह ।
अन्वयः
हे इन्द्र यस्य त इन्द्रियं समुद्रैः क्षोणीभ्यां न परिभ्वे यस्य ते पर्वतै रथो न परिभ्वे यस्य ते वज्रं कश्चन नान्वश्नोति यदाऽऽशुभिस्सह युक्तेन रथेन पुरुयोजना पतसि स त्वं सर्वथा विजयी भवितुमर्हसि ॥३॥
पदार्थः
(न) (क्षोणीभ्याम्) द्यावापृथिवीभ्याम्। क्षोणी इति द्यावापृथिवीना० निघं० ३। ३०। (परिभ्वे) परिभवनीयः (ते) तव (इन्द्रियम्) धनम् (न) निषेधे (समुद्रैः) सागरैः (पर्वतैः) शैलैः (इन्द्र) विद्युदिव वर्त्तमान (ते) तव (रथः) यानम् (न) (ते) तव (वज्रम्) छेदकं शस्त्रम् (अनु) (अश्नोति) व्याप्नोति (कश्चन) (यत्) (आशुभिः) शीघ्रगमयित्रीभिर्विद्युदादिपदार्थैः (पतसि) गच्छसि (योजना) योजनानि (पुरु) पुरूणि बहूनि ॥३॥
भावार्थः
ये मनुष्या वह्न्यादिपदार्थयुक्तशस्त्राऽस्त्रादीनि साध्नुवन्ति ते परिभवं नाप्नुवन्ति। ये रथानन्तरिक्षे समुद्रे पर्वतयुक्तायामपि भूमौ संगमयन्ति ते सुखेनाध्वानमतियन्ति ॥३॥
हिन्दी (3)
विषय
अब विद्वान् के विषय को इस मन्त्र में कहा गया है।
पदार्थ
हे (इन्द्र) बिजली के समान वर्त्तमान जिन (ते) आपको (इन्द्रियम्) धन (क्षोणीभ्याम्) आकाश और पृथिवी से (न) नहीं (परिभ्वे) तिरस्कार प्राप्त होता जिन (ते) आपका (समुद्रैः) सागरों और (पर्वतैः) पर्वतों से (रथः) रथ (न) नहीं तिरस्कार को प्राप्त होता जिन (ते) आपका (वज्रम्) छिन्न-भिन्न करनेवाले शस्त्र को (कश्चन) कोई (न, अनु, अश्नोति) नहीं अनुकूलता से व्याप्त होता (यत्) जो (आशुभिः) शीघ्रगमन करानेवाली बिजली के साथ युक्त रथ से (पुरु) बहुत (योजना) योजनों को (पतसि) जाते हैं सो आप सर्वथा विजयी होने योग्य हैं ॥३॥
भावार्थ
जो मनुष्य अग्नि आदि पदार्थों से युक्त शस्त्र-अस्त्र आदि पदार्थों को सिद्ध करते हैं, वे तिरस्कार को नहीं पहुँचते और जो लोग आकाश, समुद्र, तथा पहाड़ी भूमि में भी रथों को चलाते हैं, वे सुख से मार्ग के पार होते हैं ॥३॥
विषय
विघ्न-निराकरण -
पदार्थ
१. गतमन्त्र के अनुसार जब प्रभु अपने भक्त के जीवन में 'हस्ते वज्रम्' और 'शीर्षणि क्रतुम्' को स्थापित करते हैं तो (ते) = हे भक्त ! तेरा (इन्द्रियम्) = बल (क्षोणीभ्याम्) = द्यावापृथिवी से - सारे संसार से (न परिभ्वे) = परिभवनीय नहीं होता। सारे संसार के विरोध में भी तू निर्बल नहीं हो जाता हे (इन्द्र) = शक्तिसम्पन्न जितेन्द्रिय पुरुष ! (समुद्रैः पर्वतैः) = समुद्रों व पर्वतों से परिभूत नहीं होता । समुद्र व पर्वत भी (ते रथ:) = तेरे रथ की गति को रोक नहीं सकते। बड़े से बड़े विघ्न को भी दूर करके तू आगे बढ़ता है। २. (यदा) = जब तू (पुरु योजना) = विशाल योजनाओं को लक्ष्य बना कर (आशुभिः पतसि) = तीव्र गतिवाले इन्द्रियाश्वों से आगे बढ़ता है तो (ते वज्रम्) = तेरी क्रियाशीलता को (कश्चन) - कोई भी (न अनु अश्नोति) = व्याप्त नहीं कर पाता है। तेरी क्रियाशीलता का कोई भी मुकाबला नहीं कर सकता।
भावार्थ
भावार्थ – प्रभुभक्त को कोई भी मार्ग विचलित नहीं कर सकता। सब विघ्नों को दूर करता आगे बढ़ता है, यह योजनाओं के अनुसार निरन्तर आगे बढ़ता है । हुआ
विषय
प्रभुवत् प्रबल व्यक्ति का प्रमुख नायक करने का उपदेश परमेश्वर का वर्णन ।
भावार्थ
जिस प्रकार ( आशुभिः पुरु योजना पतति ) तीव्र चलने वाले अश्वों द्वारा कोई पुरुष बहुत से योजनों चला जाता है उसी प्रकार हे परमेश्वर (आशुभिः) शीघ्रगति करने वाले तत्वों, विद्युत्, ताप, प्रकाश आकाश और सूर्य आदि लोकों, प्रकृति के भौतिक परमाणुओं से भी तू (पुरु योजना) बहुत से योजन अर्थात् योगों से बने पदार्थों में व्यापता वा उन्हें (पतसि) बनाने में समर्थ है। ( ते इन्द्रियम् ) तेरा ऐश्वर्य ( क्षोणीभ्यां ) आकाश और पृथिवी दोनों से भी ( न परिभ्वे ) नहीं नापा जा सकता । वह उन दोनों से भी कहीं अधिक है । और (ते रथः) तेरा रथ अर्थात् रमण करने योग्य आनन्द रस भी न ( पर्वतैः परिभ्वे ) मेघों से भी कम नहीं, उनसे भी कहीं बढ़कर है ( न समुद्रैः ) वह समुद्रों से भी कम नहीं है । समुद्रों और मेघ का जल रूप रस भी उस आनन्द रस कहीं न्यून है । ( ते वज्रम् ) तेरे बलवीर्य को ( न कश्चन अश्नोति ) कोई पा नहीं सकता ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गृत्समद ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः- १, ७ जगती । विराड् जगती ४, ५, ६, ८ निचृज्जगती च । २ भुरिक् त्रिष्टुप् । ९ त्रिष्टुप् ॥ नवर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
जी माणसे अग्नी इत्यादी पदार्थांनी शस्त्र, अस्त्र इत्यादी तयार करतात त्यांचा कधी अनादर होत नाही व जे लोक आकाश, समुद्र, पर्वत, भूमीवर रथ (वाहन) चालवितात ते सहजतेने मार्ग काढतात. ॥ ३ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Not by heaven and earth is your wealth and power contained, much less surpassed. Nor can your chariot be exhausted and out-distanced by the expansive seas and high mountains or even by the spatial clouds. Nor can any weapon even remotely approach the invincible terror of your thunderbolt. All this because you shoot like an arrow with the tempestuous rays of light and waves of energy and currents of winds many many miles and yojans distance instantly.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The theme of electricity/power/energy is further detailed.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O Indra (mighty person)! you always succeed admirably by seeking wealth from firmament and earth. Your movements (chariots) never accept defeat from crossing the oceans and mountains. Nobody can successfully challenge your weapons of destructive power, when with your fast transport (chariots) which is fully electrified, you cover big distances while travelling. Consequently, you are capable to score victory over your enemy.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
The men who possess arms ammunition and weapon being operated with fire (energy), they never face defeat or insult. Such people can cover sky, oceans and hilly tops in their transportation (chariots), and cross the path happily.
Foot Notes
(क्षोणीभ्याम् ) द्यावापृथिवीभ्याम्। क्षोणी इति द्यावापृथिवीनाम् (N.G.3/30) = With firmament and earth. (परिभ्वे) परिभवनियः = Not acquired through humiliation or insult. (इन्द्रियम्) धनम् = Quick like electricity. (रथः) यानम् = Transportation or chariots. (वज्रम्) छेदकं शस्त्रम्। = Destructive weapons. (आशुभिः) शीघ्रगमयंतीभिः विद्युदादीपदार्थैः। = Fast moving substances like electricity etc. (योजना) योजनानि |= One Yojana is equal to three kilometers (Several such yojanas).
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