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ऋग्वेद मण्डल - 2 के सूक्त 16 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 16/ मन्त्र 8
    ऋषिः - गृत्समदः शौनकः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृज्जगती स्वरः - निषादः

    पु॒रा सं॑बा॒धाद॒भ्या व॑वृत्स्व नो धे॒नुर्न व॒त्सं यव॑सस्य पि॒प्युषी॑। स॒कृत्सु ते॑ सुम॒तिभिः॑ शतक्रतो॒ सं पत्नी॑भि॒र्न वृष॑णो नसीमहि॥

    स्वर सहित पद पाठ

    पु॒रा । स॒म्ऽबा॒धात् । अ॒भि । आ । व॒वृ॒त्स्व॒ । नः॒ । धे॒नुः । न । व॒त्सम् । यव॑सस्य । पि॒प्युषी॑ । स॒कृत् । सु । ते॒ । सु॒म॒तिऽभिः॑ । श॒त॒क्र॒तो॒ इति॑ शतऽक्रतो । सम् । पत्नी॑भिः । न । वृष॑णः । न॒सी॒म॒हि॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पुरा संबाधादभ्या ववृत्स्व नो धेनुर्न वत्सं यवसस्य पिप्युषी। सकृत्सु ते सुमतिभिः शतक्रतो सं पत्नीभिर्न वृषणो नसीमहि॥

    स्वर रहित पद पाठ

    पुरा। सम्ऽबाधात्। अभि। आ। ववृत्स्व। नः। धेनुः। न। वत्सम्। यवसस्य। पिप्युषी। सकृत्। सु। ते। सुमतिऽभिः। शतक्रतो इति शतऽक्रतो। सम्। पत्नीभिः। न। वृषणः। नसीमहि॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 16; मन्त्र » 8
    अष्टक » 2; अध्याय » 6; वर्ग » 18; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह।

    अन्वयः

    हे शतक्रतो त्वं यवसस्य वत्सं पिप्युषी धेनुर्न सुमतिभिः पत्नीभिर्वृषणो न ते तव सम्बाधात्पुरा नोऽस्मान् त्वमभ्याववृत्स्व यतो वयं सकृत्सु सन्नसीमहि ॥८॥

    पदार्थः

    (पुरा) प्रथमतः (सम्बाधात्) (अभि) (आ) (ववृत्स्व) (नः) अस्माकम् (धेनुः) गौः (न) इव (वत्सम्) (यवसस्य) (पिप्युषी) वृद्धा (सकृत्) एकवारम् (सु) (ते) तव (सुमतिभिः) शोभना मतयो यासान्ताभिः (शतक्रतो) असङ्ख्यप्रज्ञ (सम्) (पत्नीभिः) (न) इव (वृषणः) बलिष्ठाः सेक्तारः (नसीमहि) गच्छेम। नसत इति गतिकर्मा निघं० २। १४। ॥८॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः। येऽन्यान्प्राणिनः पीडातो निवर्त्तयन्ति ते स्वयमपि पीडातो निवर्त्तन्ते यथा क्रियमाणया पत्न्या सह पतिर्मोदते तथा सज्जनसङ्गेन सर्वे आनन्दन्ति ॥८॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

    पदार्थ

    हे (शतक्रतो) असंख्य बुद्धियोंवाले जन आप (यवसस्य) यवादि अन्नसम्बन्धी (वत्सम्) बछड़े को (पिप्युषी) वृद्ध (धेनुः) गौ (न) जैसे वैसे वा (सुमतिभिः) जिनकी सुन्दर बुद्धियाँ उन (पत्नीभिः) पत्नियों के साथ (वृषणः) बलवान् सेचनकर्त्ता जन जैसे (न) वैसे (ते) आपके (सम्बाधात्) सम्बन्ध से (पुरा) प्रथम (नः) हम लोगों को (अभि, आ, ववृत्स्व) सब ओर से अच्छे प्रकार वर्तो, जिससे हम लोग (सकृत्) एक बार (सुसन्नसीमहि) सुन्दरता से जावें ॥८॥

    भावार्थ

    जो और प्राणियों को पीड़ा से निवृत्त करते हैं, वे आप भी पीड़ा से निवृत्त होते हैं। जैसे क्रियमाण पत्नी के साथ पति आनन्दित होता है, वैसे सज्जन के साथ सब आनन्दित होते हैं ॥८॥

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    विषय

    पुरा सम्बाधात्

    पदार्थ

    १. हे प्रभो! (सम्बाधात् पुरा) = शत्रु हमें पूरी तरह बाँध ही लें-कुचल ही डालें-इससे पहले ही (नः अभ्याववृत्स्व) = आप हमें प्राप्त होइए । (न) = जैसे कि (यवसस्य पिप्युषी) = यवस से-घास से तृप्त हुई हुई (धेनुः) = गाय (वत्सम्) = बछड़े को प्राप्त होती है। आप हमें प्राप्त होइए। आप ही हमें शत्रुओं की बाधा से बचाएँगे । २. हे (शतक्रतो) = अनन्तशक्ति व प्रज्ञानवाले प्रभो ! हम (सकृत्) = एक बार तो (ते) = आपकी (सुमतिभिः) = कल्याणी मतियों से (संनसीमहि) = सम्यक् व्याप्त किये जाएँ, (न) = जैसे कि (वृषणः) = शक्तिशाली पति (पत्नीभिः) = पत्नियों से व्याप्त किये जाते हैं। पत्नी जैसे पति का अंग [Part and parcel] बन जाती है, उसी प्रकार आपकी कल्याणी मति हमारा अंग बन जाए और हम सब प्रकार के अशुभों से दूर होकर शुभमार्ग पर चलनेवाले हों।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु की कल्याणी मति को प्राप्त करके हम शत्रुओं द्वारा कुचले जाने से अपने को बचा पाएँगे।

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    विषय

    परमेश्वर का वर्णन ।

    भावार्थ

    ( यवसस्य ) घास चारे के ऊपर ( पिप्युषी ) परिपुष्ट होने वाली गाय जिस प्रकार ( वत्सं न ) बछड़े के पास प्रेम से उस पर किसी प्रकार संकट आने के पूर्व वन से घर लौट आती है उसी प्रकार ( सम्बाधात् पुरा ) पीड़ा या विपत्ति होने के पूर्व ही तू ( नः ) हमें म और ( अभि आ ववृत्स्व ) प्राप्त हो । हे ( शतक्रतो ) अपरिमित ज्ञान क्रिया सामर्थ्य से युक्त ! ( पत्नीभिः वृषणः नः ) स्त्रियों से जिस प्रकार उन के इच्छुक पुरुष मिल जाते हैं उसी प्रकार ( ते सुमतिभिः ) तेरे उत्तम ज्ञानों से हम ( सकृत् ) एक वार ( सु नसीमहि ) अच्छी प्रकार व्याप जावें ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गृत्समद ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः- १, ७ जगती । विराड् जगती ४, ५, ६, ८ निचृज्जगती च । २ भुरिक् त्रिष्टुप् । ९ त्रिष्टुप् ॥ नवर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जे इतर प्राण्यांच्या त्रासाचे निवारण करतात ते स्वतःही त्रासापासून निवृत्त होतात. जसे पत्नीबरोबर पती आनंदित असतो तसे सज्जनांबरोबर सर्व आनंदित असतात. ॥ ८ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Indra, lord of a hundred noble acts of yajna, by virtue of our ancient and eternal relation as father and son, mother and child, creator and creature, pervader and pervaded, teacher and disciple, come to us like the abundant mother cow overflowing with the milk of life for her darling calf on the pasture, and be with us always, never forsake us, lord, so that we too, with all noble thoughts and intentions, reach you and ever be with you like generous, loving and prayerful men abiding in the company of intelligent and life-sustaining wives and mothers.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    More said about the scholars.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    As cow gives its milk to the calf and the sharp wisdom guides the actions of human-beings like the wife, same way a strong and capable man deals nicely with us. O scholar ! you have multi-pronged intelligence and provide ample food grains like barely etc. to all. We pray to you to deal with us in a fair way and share the sufferings and miseries. Those who act on these lines, they are also verily free from the miseries. As a wife is happy in the company of her husband, like-wise all the gentlemen become joyous in the company of the scholars.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

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    Foot Notes

    (संबाधात्) संबधात् = Because of the relation. (न) इव (वत्सम् ) गोशावक इव = Like a calf. (यवसस्य) यवाद्यन्नस्य = Of the food grains like barley. (सुमतिभिः) शोभना मतयो यासान्ताभिः = With multipronged and nice intelligence. (शतक्रतो) असङ्ख्य्प्रज्ञ। = possessor of vast wisdom ! ( सुसन्नसीमहि ) सुष्ठु गच्छेम | सुस्पष्टतया गच्छेम = Move nicely.

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