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ऋग्वेद मण्डल - 2 के सूक्त 16 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 16/ मन्त्र 4
    ऋषिः - गृत्समदः शौनकः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृज्जगती स्वरः - निषादः

    विश्वे॒ ह्य॑स्मै यज॒ताय॑ धृ॒ष्णवे॒ क्रतुं॒ भर॑न्ति वृष॒भाय॒ सश्च॑ते। वृषा॑ यजस्व ह॒विषा॑ वि॒दुष्ट॑रः॒ पिबे॑न्द्र॒ सोमं॑ वृष॒भेण॑ भा॒नुना॑॥

    स्वर सहित पद पाठ

    विश्वे॑ । हि । अ॒स्मै॒ । य॒ज॒ताय॑ । धृ॒ष्णवे॑ । क्रतु॑म् । भर॑न्ति । वृ॒ष॒भाय॑ । सश्च॑ते । वृषा॑ । य॒ज॒स्व॒ । ह॒विषा॑ । वि॒दुःऽत॑रः । पिब॑ । इ॒न्द्र॒ । सोम॑म् । वृ॒ष॒भेण॑ । भा॒नुना॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    विश्वे ह्यस्मै यजताय धृष्णवे क्रतुं भरन्ति वृषभाय सश्चते। वृषा यजस्व हविषा विदुष्टरः पिबेन्द्र सोमं वृषभेण भानुना॥

    स्वर रहित पद पाठ

    विश्वे। हि। अस्मै। यजताय। धृष्णवे। क्रतुम्। भरन्ति। वृषभाय। सश्चते। वृषा। यजस्व। हविषा। विदुःऽतरः। पिब। इन्द्र। सोमम्। वृषभेण। भानुना॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 16; मन्त्र » 4
    अष्टक » 2; अध्याय » 6; वर्ग » 17; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह।

    अन्वयः

    हे इन्द्र वृषा विदुष्टरस्त्वं ये हि विश्वे वृषभेण भानुना युक्तः सूर्यो रसमिवाऽस्मै यजताय धृष्णवे वृषभाय सश्चते क्रतुं भरन्ति तदनुषङ्गी सन् हविषा यजस्व सोमं पिब ॥४॥

    पदार्थः

    (विश्वे) सर्वस्मिन् (हि) (अस्मै) (यजताय) सङ्गमनाय (धृष्णवे) दृढत्वाय (क्रतुम्) प्रज्ञाम् (भरन्ति) दधति (वृषभाय) श्रेष्ठत्वाय (सश्चते) सम्बन्धाय (वृषा) परशक्तिबन्धकः (यजस्व) सङ्गच्छस्व (हविषा) दातुं ग्रहीतुं योग्येन (विदुष्टरः) अतिशयेन विद्वान् (पिब) (इन्द्र) ऐश्वर्यमिच्छो (सोमम्) ओषध्यादिरसम् (वृषभेण) वर्षकेण (भानुना) प्रदीप्त्या ॥४॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये प्रथमतः स्वप्रज्ञामुन्नीय विदुषः सत्कुर्वन्ति ते सर्वत्र सत्कृता भवन्ति ॥४॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

    पदार्थ

    हे (इन्द्र) ऐश्वर्य के इच्छुक (वृषा) शत्रु की शक्ति बाँधनेहारे (विदुष्टरः) अतीव विद्वान् ! आप जो (हि) ही (विश्वे) सर्वत्र (वृषभेण) वर्षा करानेवाले (भानुना) ताप से युक्त सूर्य जैसे रसको वैसे (अस्मै) इस (यजताय) संगम (धृष्णवे) दृढ़ता (वृषभाय) श्रेष्ठता (सश्चते) और सम्बन्ध के लिये (क्रतुम्) प्रज्ञा को (भरन्ति) धारण करते हैं उनके अनुसंगी होते हुए (हविषा) देने लेने योग्य वस्तु से (यजस्व) यज्ञ करो और (सोमम्) ओषध्यादि पदार्थों के रस को (पिब) पिओ ॥४॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो प्रथम से अपनी बुद्धि को उन्नति देकर विद्वानों का सत्कार करते हैं, वे सब जगत् में सत्कारयुक्त होते हैं ॥४॥

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    विषय

    सर्वदेवानुकूलता

    पदार्थ

    १. (विश्वे) = सब देव हि निश्चय से (अस्मै) = इस (यजताय) = प्रभु के उपासक के लिए, (धृष्णवे) = कामादि शत्रुओं का घर्षण करनेवाले के लिए, (वृषभाय) = शक्तिशाली के लिए, (सश्चते) = [to cling, to stick, to follow] अपने व्रतों पर दृढ़ता से चलनेवाले के लिए (क्रतुं भरन्ति) = शक्ति व प्रज्ञा को प्राप्त कराते हैं। सामान्यतः व्यवहार में 'जलवायु' की अननुकूलता की हम चर्चा किया करते हैं - उस प्रतिकूलता से स्वास्थ्य में कमी आ जाती है। यदि जलवायु आदि सब देव हमारे अनुकूल हों तो हमारा स्वास्थ्य बहुत ही ठीक रहता है और हमारा ज्ञान व बल दोनों ही वृद्धि को प्राप्त करते हैं । २. प्रभु जीव से कहते हैं कि तू (वृषा) = शक्तिशाली होता हुआ 'तू' (यजस्व) = यज्ञशील बन । (हविषा) = त्यागपूर्वक अदन की वृत्ति के कारण (विदुष्टर:) = तू अधिक से अधिक ज्ञानी बन। त्यागपूर्वक अदन की वृत्ति मनुष्य को स्वस्थ बुद्धिवाला बनाती है । हे इन्द्र जितेन्द्रिय पुरुष! तू (वृषभेण) = उस शक्तिशाली भानुना ज्ञानदीप्त प्रभु के उपासन द्वारा (सोमं पिब) = सोमपान करनेवाला बन । उपासना से तेरी वासनाओं का विलय होगा और तू सोमशक्ति का शरीर में रक्षण कर पाएगा। वस्तुतः रक्षित हुई यह शक्ति ही तुझे प्रभुप्राप्ति का पात्र बनाएगी।

    भावार्थ

    भावार्थ – इस उपासक के सब देव अनुकूल होते हैं। वे इसमें शक्ति व प्रज्ञा का भरण करते हैं। उपासना से ही यह वासनाओं को जीतकर सोम का शरीर में रक्षण कर पाता है।

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    विषय

    प्रभुवत् प्रबल व्यक्ति का प्रमुख नायक करने का उपदेश परमेश्वर का वर्णन ।

    भावार्थ

    ( अस्मै ) इस ( यजताय ) दानशील, आदर सत्कार, सत्संग, मान और पूजा के योग्य ( धृष्णवे ) सबको पराजित करने हारे, ( वृषभाय ) सब सुखों की वृष्टि करने वाले ( सश्चते ) सर्वत्र व्यापक ( अस्मै ) उस प्रभु परमेश्वर के प्राप्त करने और जानने लिये ( विश्वे हि ) सब ही और सर्वत्र ही, ( क्रतुं भरन्ति ) यज्ञ करते और अपनी बुद्धि को दौड़ाते और यत्न करते हैं । हे प्रभो ! तू ( वृषा ) सब सुखों का वर्षण, और समस्त संसार का प्रबन्ध करने वाला, दुष्टों का दमन करने हारा (विदुस्-तरः) सबसे बड़ा विद्वान्, (वि-दुस्तरः) विशेष रूप से अलंघनीय, है । तू ही ( हविषा ) अन्नादि पदार्थों से ( यजस्व ) हमें समस्त सुख प्रदान कर और ( वृषभेणभानुना ) वर्षा करने वाले, प्रकाशमान सूर्य और विद्युत् द्वारा हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! प्रभो ! ( सोमं पिब ) इस जगत् का पालन करते हो ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गृत्समद ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः- १, ७ जगती । विराड् जगती ४, ५, ६, ८ निचृज्जगती च । २ भुरिक् त्रिष्टुप् । ९ त्रिष्टुप् ॥ नवर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जे सुरुवातीपासून आपल्या बुद्धीची उन्नती करून विद्वानांचा सत्कार करतात ते सर्व जगात सन्मानित होतात. ॥ ४ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    All bear noble thoughts and perform holy acts of yajna in honour of this lord Indra, cosmic yajamana, bold and daring, overwhelming and generous, and universal friend and constant companion. Generous yajaka, you are very wise and highly knowledgeable. Offer yajna with homage and fragrant havis. O lord Indra, participate in our yajna along with the generous sun and like the sun, drink the soma of joy and grant us the bliss.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The theme of power or electricity is further explained.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O men ! you are desirous of prosperity, smasher of energy power and are very learned. The sun with its heat causes rains all over the world. For this purpose, we should apply our wisdom and knowledge in order to seek firmness supremacy and unity. Accompanying with it, O men ! you should perform the Yajna with nice substances and take the juices of SOMA and other herbal plants.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Those who start their life by honoring the scholars intelligently, they are honored and respected everywhere.

    Foot Notes

    (यजताय) सङ्गमनाय । – In order to bring in unity and meeting (विदुष्टर:) अतिशयेन विद्वान् = Excellently learned. (घृष्णवे ) दृढत्वाय | = In order to seek firmness. (सश्चते) सम्बन्धाय |= in order to establish relation. (वृषा) परशक्तिबन्धकः । = To smash the fighting power of the enemy. (वृषभेण ) वर्षकेण = By making rains. (भानुना ) प्रदीप्त्या | = With shine.

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